Friday, November 22, 2024
spot_img
Homeपर्यटनछत्तीसगढ़ी संस्कृति का जीवंत संग्रहालय ‘पुरखौती मुक्तांगन’

छत्तीसगढ़ी संस्कृति का जीवंत संग्रहालय ‘पुरखौती मुक्तांगन’

चिलचिलाती गर्मी में कहीं घूमने निकलना कतई आनंददायक नहीं होता है। परंतु, अपन तो ठहरे यात्रा प्रेमी। संयोग से जून के पहले सप्ताह में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर पहुँच गए। जब पहुँच गए तो फिर अपन राम का मन कहाँ होटल के आरामदेह बिस्तर पर लगता। जिस कार्य से रायपुर पहुँचे थे, सबसे पहले सुबह उसे पूर्ण किया। फिर दोपहर भोजन के बाद नये रायपुर की ओर निकल पड़े। नया रायपुर मुख्य शहर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर बसाया गया है, जिसे अब अटल नगर के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ की पूर्व सरकार ने भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के देहावसान के बाद उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा व्यक्त करने के लिए नये रायपुर का नाम ‘अटल नगर’ कर दिया। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाये जाने की माँग लंबे समय से उठती रही, जो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वर्ष 2000 में 1 नवंबर को मान्य हुई और मध्यप्रदेश की गोद से निकलकर 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ ने अपनी यात्रा प्रारंभ की। उस समय छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े शहर रायपुर को राजधानी बनाया गया। अब प्रशासकीय मुख्यालय के लिए नियोजित ढंग से नये रायपुर को विकसित किया जा रहा है। आठ जून की शाम को पुरखौती मुक्तागंन देखने के लिए हम नये रायपुर आये थे।

पुरखौती मुक्तांगन नया रायपुर स्थित एक पर्यटन केंद्र है। इसका लोकार्पण भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 2006 में किया था। मुक्तांगन 200 एकड़ भूमि पर फैला एक तरह का खुला संग्रहालय है, जहाँ पुरखों की समृद्ध संस्कृति को संजोया गया है। यह परिसर बहुत ही सुंदर ढंग से हमें छतीसगढ़ की लोक-संस्कृति से परिचित करता है। वनवासी जीवन शैली और ग्राम्य जीवन के दर्शन भी यहाँ होते हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्यटन केंद्रों की जानकारी भी यहाँ मिल जाती है- जैसे चित्रकोट का विशाल जलप्रपात जिसे भारत का ‘नियाग्रा फॉल’ भी कहा जाता है, दंतेवाडा के समीप घने जंगल में ढोलकल की पहाड़ी पर विराजे भगवान श्रीगणेश, कबीरधाम जिले के चौरागाँव का प्रसिद्ध प्राचीन भोरमदेव मंदिर इत्यादि। मुक्तांगन में छतीसगढ़ के पर्यटन स्थलों की यह प्रतिकृतियां दो उद्देश्य पूर्ण करती हैं। एक, आप उक्त स्थानों पर जाये बिना भी उनकी सुंदरता एवं महत्व को अनुभव कर सकते हैं। दो, यह प्रतिकृतियां मुक्तांगन में आने वाले पर्यटकों को अपने मूल पर आने के लिए आमंत्रित करती हैं।

जैसे ही हम पुरखौती मुक्तांगन पहुँचे, तो उसकी बाहरी दीवार को देखकर ही मन प्रफुल्लित हो उठा। क्या सुंदर चित्रकारी बाहरी दीवार पर की गई है, अद्भुत। दीवार पर छत्तीसगढ़ की परंपरागत चित्रकारी से लोक-कथाओं को प्रदर्शित किया गया है। भीतर जाने से पहले सोचा कि बाहरी दीवार को ही अच्छे से निहार लिया जाए और उस पर बनाए गए चित्रों से भी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की कहानी को देख-सुन लिया जाए। मुक्तांगन में प्रवेश के लिए टिकट लगता है, जिसका जेब पर कोई बोझ नहीं आता। अत्यंत कम खर्च में हम अपनी विरासत का साक्षात्कार कर पाते हैं। हम तीन लोग थे- शुभम गुप्ता, जो रायपुर में एक कम्प्युटर शिक्षण संस्थान एवं स्कूल का संचालन करते हैं और इंद्रभूषण मिश्र, जो पत्रकार हैं, फिलहाल हरिभूमि समूह को सेवाएं दे रहे हैं। इंद्रभूषण बिहार प्रांत से हैं। जैसे ही हमने भीतर प्रवेश किया, आदमकद प्रतिमाओं ने हमारा स्वागत किया। एक लंबा रास्ता हमें ‘छत्तीसगढ़ चौक’ तक लेकर जाता है, जिसके दोनों ओर लोक-जीवन को अभिव्यक्त करतीं आदमकद प्रतिमाएं खड़ी हैं। चौक से एक राह ‘आमचो बस्तर’ की ओर जाती है, जहाँ बस्तर की लोक-संस्कृति को प्रदर्शित किया गया है। दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण स्थानों एवं नृत्य की झलकियाँ प्रदर्शित हैं, जिसमें पंथी नृत्य, गेड़ी नृत्य, सुवा नृत्य और राउत नाच इत्यादि को आदमकद प्रतिमाओं के जरिये दिखाया गया है। थोड़ा डूब कर देखो तो लगने लगेगा कि यह प्रतिमाएं स्थिर नहीं हैं, सचमुच नाच रही हैं। मूर्तियों के चेहरों के भाव जीवंत दिखाई देते हैं। आनंद से सराबोर हाव-भाव देखकर अपना भी नाचने का मन हो उठे। छत्तीसगढ़ के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान है, उनकी आदमकद प्रतिमाएं भी इस मुक्तांगन में हैं।

‘आमचो बस्तर’ नाम से विकसित प्रखंड में बस्तर की जीवन शैली और संस्कृति के जीवंत दर्शन होते हैं। जीवंत इसलिए, क्योंकि इस प्रखंड के निर्माण एवं इसको सुसज्जित करने में बस्तर अंचल के ही जनजातीय लोक कलाकारों एवं शिल्पकारों का सहयोग लिया गया है। यही कारण है कि यहाँ बनाई गई गाँव की प्रतिकृतियां बनावटी नहीं लगतीं। आमचो बस्तर का द्वार जगदलपुर के राजमहल का सिंग डेउढ़ी जैसा बनाया गया है। समीप में ही विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का रथ भी रखा गया है। एक गोलाकार मण्डप में चित्रों के माध्यम से बस्तर दशहरे के संपूर्ण विधान को भी प्रदर्शित किया गया है। इस प्रखंड में धुरवा होलेक, मुरिया लोन, कोया लोन, जतरा, अबूझमाडिय़ा लोन, गुन्सी रावदेव, बूढ़ी माय, मातागुड़ी, घोटुल, फूलरथ, नारायण मंदिर, गणेश विग्रह, राव देव, डोलकल गणेश, पोलंग मट्टा, उरूसकाल इत्यादि को प्रदर्शित किया गया है। होलेक और लोन अर्थात् आवास गृह। एक स्थान पर लोहा गलाकर औजार बनाने की पारंपरिक विधि ‘घानासार’ को भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है। पुरखौती मुक्तांगन को अभी और विकसित किया जाना है। पूर्ववर्ती सरकार की इच्छा इसे आदिवासी अनुसंधान केंद्र एवं संग्रहालय के रूप में विकसित करने की थी।

पारंपरिक छत्तीसगढ़ी खान-पान का ठिहाँ- गढ़ कलेवा :

पुरखौती मुक्तांगन की यादों को समेट कर हम वहाँ से निकले और छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खान-पान का स्वाद लेने के लिए पहुँच गए ‘गढ़ कलेवा’। यह स्थान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर के परिसर में है। रायपुर आने वाले पर्यटकों और जो लोग अपने पारंपरिक खान-पान से दूर हो चुके हैं, उन्हें छत्तीसगढ़ी व्यंजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 26 जनवरी, 2016 को गढ़ कलेवा का शुभारंभ हुआ। गढ़ कलेवा का संचालन महिला स्व-सहायता समूह द्वारा किया जाता है। यहाँ भी छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति का अनुभव किया जा सकता है। बैठने के लिए बनाए गए कक्षों/स्थानों के नाम इसी प्रकार के रखे गए हैं, यथा- पहुना, संगवारी, जंवारा इत्यादि। गढ़ कलेवा परिसर में आंतरिक सज्जा ग्रामीण परिवेश की है। बरगद पर मचान बनाया गया है। बैठने के बनाए गए कक्षों को रजवार समुदाय के शिल्पियों ने मिट्टी की जालियां और भित्ति चित्र से सज्जित किया है। बस्तर के मुरिया वनवासियों ने लकड़ी की उत्कीर्ण बेंच, स्टूल, बांस के मूढ़े बनाये हैं। अपन राम ने यहाँ चीला, फरा, बफौरी जैसे छत्तीसगढ़ी व्यंजन का स्वाद लिया। इसके अलावा चौसेला, घुसका, हथफोड़वा, माड़ा पीठा, पान रोटी, गुलगुला, बबरा, पिडिय़ा, डेहरौरी, पपची इत्यादि भी उपलब्ध थे, लेकिन बफौरी थोड़ी भारी हो गई। पेट ने इस तरह जवाब किया कि ‘चहा पानी ठिहाँ’ पर चाह कर भी करिया चाय, दूध चाय, गुड़ चाय और काके पानी का स्वाद नहीं ले सका। अधिक खाने के बाद उसे पचाने के लिए तेलीबांधा तालाब पर विकसित ‘मरीन ड्राइव’ टहलने का आनंद भी उठाया जा सकता है। शाम के बाद यहाँ टहलने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं। रायपुर की मरीन ड्राइव देर रात तक गुलजार रहती है।

कुल मिलाकर रायपुर के प्रवास को ‘पुरखौती मुक्तांगन’ और ‘गढ़ कलेवा’ ने यादगार बना दिया। यदि आप कभी रायपुर जायें तो इन दोनों जगह जाना न भूलियेगा। पुरखौती मुक्तांगन में आपको तीन-चार घंटे का समय लेकर जाना चाहिए। गर्मी के दिनों में जाएं तो शाम के समय का चयन करें। सर्दी में किसी भी समय जा सकते हैं।


भवदीय
लोकेन्द्र
संपर्क :
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस काम्प्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर जोन-1,
भोपाल (मध्यप्रदेश) – 462011
दूरभाष : 09893072930
www.apnapanchoo.blogspot.in

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार