आमचुनाव 2019 घोषित हो जाने से और उसकी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने से जो क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हो रही हैं उसने ही सबके दिमागों में सोच की एक तेजी ला दी है। प्रत्याशियों के चयन व मतदाताओं को रिझाने के कार्य में तेजी आ गई है। लेकिन इन चुनावों में विपक्ष की भूमिका जितनी सशक्त एवं प्रभावी होनी चाहिए, वह नजर नहीं आ रही है। जबकि कोई भी चुनाव विपक्ष और सामान्य मतदाता को यह हक देता है कि वह सत्ता से जुड़े लोगों से जमकर जवाब-तलबी करे और उनके कामकाज का हिसाब-किताब ले और इस तरह ले कि वे कोई भी बहाना बनाकर बच कर न निकल सकें। लेकिन इस तरह की भूमिका के लिये विपक्ष की तैयारी का न होना लोकतंत्र के लिये चिन्तनीय स्थिति है।
सतहरवीं लोकसभा के रचाए जा रहे मतदान का पवित्र कार्य सन्निकट है। लेकिन इन चुनावों को लेकर जो संकेत मिल रहे हैं, वे लोकतांत्रिक दृष्टि से शुभ के परिचायक नहीं हैं। परम आवश्यक है कि सर्वप्रथम राष्ट्रीय वातावरण अनुकूल बने। देश ने साम्प्रदायिकता, आतंकवाद तथा घोटालों के जंगल में एक लम्बा सफर तय किया है। उसकी मानसिकता घायल है तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। पुराने चेहरों पर उसका विश्वास नहीं रहा। अब प्रत्याशियों का चयन कुछ उसूलांे के आधार पर होना चाहिए न कि जाति और जीतने की निश्चितता के आधार पर । मतदाता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ की परिपक्वता दिखाई दे रही है। ये चुनाव ऐसे मौके पर हो रहे हैं जब राष्ट्र विभिन्न चुनौतियों से जूझ रहा है। हमें राष्ट्र को संकट से उबारना है, सशक्त बनाना है।
सम्पूर्ण विपक्षी राजनीति के मंच पर ऐसा कोई महान् व्यक्तित्व नहीं है जो भ्रम-विभ्रम से देश को उबार सके, कोई ठोस एजेंडा प्रस्तुत कर सके। इस तरह चुनावी महासंग्राम में विपक्ष का कमजोर एवं निस्तेज होना एक गंभीर स्थिति है। बुजुर्ग नेतृत्व पर विश्वास टूट रहा है, नए पर जम नहीं रहा है। इसलिए अभी समय है जब देश के बुद्धिजीवी वर्ग को सैद्धांतिक बहस शुरू करनी चाहिए कि कैसे ईमानदार, आधुनिक सोच और कल्याणकारी दृष्टिकोण वाले प्रतिनिधियों का चयन हो सके। लोकतन्त्र इसीलिए आदर्श एवं पारदर्शी प्रणाली कही जाती है कि जनता ने जिन लोगों को बहुमत देकर शासन करने का अधिकार दिया था वे उन्हीं लोगों को एक-एक पाई का पूरा नकद हिसाब-किताब देने के लिये विवश करें। लेकिन इस तरह का हिसाब-किताब मांगने की पात्रता होना भी जरूरी है।
नौकरी-रोजगार, अर्थव्यवस्था, महंगाई, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, रुपया का अवमूल्यन, किसानों की दुर्दशा, अयोध्या का मसला, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, महिलाओं पर बढ़ते अपराध, शिक्षा, चिकित्सा ऐसे अनेक ज्वलंत मुद्दे हंै जिनपर सार्थक बहस होनी चाहिए एवं सत्ता पक्ष से इन सवालों के जबाव मांगे जाने चाहिए। इन बुनियादी मसलों के खड़े रहने पर भी जिन्दगी तो चलती ही है और चलती ही रहेगी। मगर ये सवाल ऐसे नहीं हैं जिनका सामना मौजूदा सरकार को ही चुनावी मौसम में करना पड़ेगा बल्कि पिछले हर चुनावों में विपक्ष ठीक ऐसे ही सवाल सत्ताधारी दल से पूछता आ रहा है। इन सवालों के सही जवाब से ही पता चलता है कि देश ने तरक्की का कितना सफर तय किया है। ये ही एकमात्र पैमाना है जिससे किसी भी सरकार की सफलता या असफलता का मूल्यांकन जनता खुद करती है। लेकिन चुनाव के समय इन सवालों का उभरना एवं उनके समाधान का वातावरण बनना ही असली लोकतन्त्र है। यही वह समय है जिसमें बहुमत की जोर-जबर्दस्ती न चलकर अल्पमत की भावनाओं का आदर किया जाता है। सतरहवीं लोकसभा के चुनाव कितनों के पेट की आग शांत करेगा? कितनों को न्याय देगा? कितनों को सुरक्षा देगा? कितनों के भ्रष्टाचार पर नकेल कसेगा? महिलाओं को कैसे सुरक्षा का आश्वासन देगा? युवाओं के बिखरते सपनों को कैसे रोकेगा? कैसे महंगाई पर काबू पायेगा? यह बहुत कुछ अपने आप में समेटे हुए है। कामना तो शुभ, सुखमय एवं शांतिमय नये लोकसभा सत्र की करें। लेकिन इसके लिये अवसरवादी, अनैतिक एवं गलत मूल्यों के खिलाफ आवाज तो उठानी ही होगी। इन चुनावों में अगर हमने कुछ लोगों को भी अपराध और भ्रष्टाचार के विरोध में जागृत कर सके तो हम इसे सार्थक समझेंगे, तभी इन चुनावों का संदेश होगा कि समाज और जंगल के जीवन में कुछ तो फर्क होता ही है।
मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष की तरफ से यदि सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर सत्ता में रहते हुए बेईमानी या भ्रष्टाचार करने के आरोप लगाये जा रहे हैं तो उसका उत्तर व्यक्तिगत आरोप नहीं हो सकता। क्योंकि इस देश के लोग इतने बुद्धिमान तो हैं कि वे समझ सकें कि इस तरह के जवाबी हमले क्यों किये जा रहे हैं और उनका लक्ष्य क्या है? चुनाव आचार संहिता लगने का मतलब यह कतई नहीं है कि विपक्ष सरकार से उन सवालों का जवाब मांगना छोड़ दे। श्रीमती प्रियंका गांधी का कहना कि इस देश को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी हम सबकी है जिसे सिर्फ नफरत समाप्त करके ही किया जा सकता है। इस देश के लोगों में ही यदि आपस में नफरत फैलाने की राजनीति को किसी भी वाद या सिद्धान्त के नाम पर फैलाने की कोशिश की जायेगी तो इसका नतीजा सिर्फ देश का कमजोर होना ही निकलेगा। इसलिए चुनावों में वे मुद्दे उठाये जायें जिनका आम लोगों की जिन्दगी से सरोकार है। मगर ऐसे किसी भी सवाल का जवाब व्यक्तिगत हमला या निजी निन्दा नहीं हो सकता। राजनीति में निजी हमला वे लोग ही करते हैं जिनके पास कोई सैद्धान्तिक तर्क या तीक्ष्ण जवाब नहीं होता।
मतदाता भी धर्म संकट में है। उसके सामने अपना प्रतिनिधि चुनने का विकल्प नहीं होता। प्रत्याशियों में कोई योग्य नहीं हो तो मतदाता चयन में मजबूरी महसूस करते हैं। मत का प्रयोग न करें या न करने का कहें तो वह संविधान में प्रदत्त अधिकारों से वंचित होना/करना है, जो न्यायोचित नहीं है। इस बार की लड़ाई कई दलों के लिए आरपार की है। ”अभी नहीं तो कभी नहीं।“ दिल्ली के सिंहासन को छूने व लालकिले पर ध्वज की डोरी पकड़ने के लिए सबके हाथों में खुजली आ रही है। उन्हें केवल अगले चुनाव की चिन्ता है, अगली पीढ़ी की नहीं। मतदाताओं के पवित्र मत को पाने के लिए पवित्र प्रयास की सीमा लांघ रहे हैं। यह त्रासदी बुरे लोगों की चीत्कार नहीं है, भले लोगों की चुप्पी है जिसका नतीजा राष्ट्र भुगत रहा है/भुगतता रहेगा, जब तब भले लोग मुखर नहीं होगे। इसलिये इन चुनावों में विपक्ष भी सशक्त बने एवं मतदाता भी मुखर हो।
वोट की राजनीति ने भी पूरा अपराध जगत खड़ा किया हुआ है। मतदान जैसी पवित्र विधा भी आज असामाजिक तत्वों के हाथों में कैद है। राम के रामराज्य, अम्बेडकर के सामाजिक न्याय और गांधी की अहिंसा का जिस प्रकार स्वार्थ सिद्धि के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है, यह भी एक मनोवैज्ञानिक माफियापन की शुरूआत है, जो वोट हड़पने का भड़काऊ तरीका है। राजनेता जन-सेवक बनकर अहिंसा और सेवा की बात करते हैं। यह राष्ट्रीय गौरव की अहिंसा और सेवा नहीं कि जहां अधिकारी प्रशासकीय घुमाव, गलियों द्वारा जनता का खून चूसते रहें और राजा संगीनों के पहरे में अहिंसक बना बैठा रहे। शांति एवं अहिंसा जो आम जीवन में व्याप्त होनी चाहिए। सुधार में सदैव हम अपेक्षाकृत बेहतर मुकाम पर होना चाहते हैं, ना कि पानी में गिर पड़ने पर हम नहाने का अभिनय करने लगे। वह तो फिर अवसरवादिता होगी।
चुनाव आयोग के निर्देश, आदेश व व्यवस्थाएं प्रशंसनीय हैं, पर पर्याप्त नहीं हैं। इसमें मतदाता की जागरूकता, संकल्प और विवेक ही प्रभावी भूमिका अदा करेंगे। क्योंकि चयन का विकल्प लापता/गुम है। उसकी खोज लगता है अभी प्रतीक्षा कराएगी। वह चुनाव आयोग नहीं दे सकता।
(ललित गर्ग)
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