संध्या सक्सेना भगत १९९७ में भारत के दिल्ली शहर से अमेरिका आईँ। पिछले २५ सालों से आप परिवार के साथ अटलांटा में रहतीं हैं। आपको साहित्य से लगाव विरासत में अपनी माँ से मिला। कविता ,कहानी,लेख,नाटक और नाटिकाएँ लिखने का शौक रखती हें। आपने अटलांटा शहर में २००७ में ‘धूपछाँव’ नाम से हिंदी नाट्य समूह की स्थापना की। अब तक आपने अनेक नाटकों का मंचन किया है । बहुत सी लघु फिल्में व वैब श्रृंखला भी बनाई है। इन गतिविधियों के अतिरिक्त ये हिन्दी शिक्षिका भी हैं। पिछले लगभग ४० सालों से हिन्दी शिक्षण का कार्य भी कर रही हैं। हाल में आपसे बात करने का मौका मिला। तो आईये जानते हैं कि अमेरिका में “हिन्दी नाट्य संस्थान’ स्थापित करने वालों में एक संध्या सक्सेना भगत के अनुभवों के बारे में।
संध्या जी आपकी एक समूह है जिसका नाम है “,धूप छाँव ” उसके बारे में कुछ बताइये?
जी हाँ अटलांटा में मेरा यह नाट्य समूह है। शायद मेरे अन्दर बचपन से अभिनय का कीड़ा था। मुझे लगता था कि मैं अभिनय करूँ या करवाऊँ क्योंकि मुझे यह लगता था कि अपनी बात कहने का मंच बहुत ही सशक्त माध्यम है। इसलिए हमने २००७ इस समूह की स्थापना की। इससे पहले मैं छोटे बच्चों को नाटिकाएँ करवाती थी। लोगों ने कहा कि आप बहुत अच्छा नाटक करवातीं है तो आप क्यों नहीं कुछ नया शुरू करती तब हमने इस समूह की स्थापना की।
अपने इस समूह का नाम आपने ‘धूप छाँव’ ही क्यों रखा ?
मुझे लगा कि इस समूह का नाम ऐसा होना चाहिये जिसे आम और खास, सभी समझ सकें और यदि आप देखें तो इसमें गहरा अर्थ तो छिपा ही है । यह जीवन की ‘धूप छाँव’ को दर्शाता है। नाम को सार्थक करते हुए ही हम जब अपना वार्षिक कार्यक्रम करतें हैं तो प्रयास करते हैं एक नाटक का विषय गंभीर हो और दूसरे का हास्य।
जब आप अपने नाटक करती हैं तो आपको कोई जगह लेनी होती होगी। इसके लिए पैसे भी लगते हैं। तो आप किस तरह से मैनेज करती हैं ?
रचना जी ये बहुत अच्छा प्रश्न है। क्योंकि हमारे पास बहुत सीमित फंड्स होते हैं , कभी कभी तो फंड्स होते ही नहीं हैं। अपना जो वार्षिक कार्यक्रम करते हैं वो एक स्कूल में करते हैं। अभी हमारा शो दिसम्बर में होने वाला है। अब ये हो गया है कि हम इतने सालों से काम कर रहें हैं तो लोग हमें जानने लगे हैं। हमारा अकेला हिन्दी नाट्य समूह अटलांटा में सक्रिय है। नवम्बर में हम बैंक ऑफ़ अमेरिका में परफॉर्म करने वाले हैं। नाटक नहीं है पर दिवाली का उनका एक कार्यक्रम होने वाला है जिसमें हम अपने भारत की एक सांस्कृतिक झलक दिखाने वाले हैं। अगस्त में अटलांटा बंगाली संस्था “अबोहा” का एक अंतर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह होने वाला है जिसमे हम मोहन राकेश द्वार रचित नाटक ‘आधे अधूरे’ प्रस्तुत करने वाले हैं।
हम बहुत भाग्यशाली हैं कि ‘आधे अधूरे’ नाटक हम तीन जगह पर प्रस्तुत करने जा रहे हैं, कैलिफोर्निया , अटलांटा और न्यूयॉर्क यहाँ पर जो कलाकार है उनको घर के कामों के लिए भारत जैसा सहयोग तो नहीं हैं। फिर भी वे समय निकालते है।
उनके साथ काम करते हुए आप कौन कौन से चैलेंजस् का सामना करती हैं?
जी हाँ रचना बहुत अच्छा प्रश्न किया है आपने। यहाँ पर जो कलाकार हैं उनको घर के कामों के लिए भारत जैसी सुविधा नहीं मिल पातीं। ज़्यादातर सभी नौकरीपेशा हैं उसी में से समय निकाल कर वे आते हैं। जो भी कलाकार हैं उनमें से कोई इंजीनियर है कोई शिक्षक है ,कोई चिकित्सक है या फिर किसी अन्य प्रकार के काम कर रहे हैं। अपने व्यस्त जीवन से समय निकाल कर अभ्यास करने आते हैं। बहुत कठिन होता है सबको जोड़ना सबकी समस्याएं सुनना। सच पूछो तो सबसे दुरूह काम होता है सबके साथ ताल मेल बैठाना। फिर भी पिछले १६ सालों से लगी हूँ। अकेले दम पर हज़ारों लोगों के साथ काम कर चुकी हूँ। अभी हमारा समूह बहुत आगे बढ़ रहा है और अब हमें बहुत अवसर मिल रहें हैं,तो इसीलिए लगता है करते रहो।
क्या कभी आपने सोचा कि यदि अंग्रेजी के नाटक भी किये जाएँ तो वो अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचेंगे?
हाँ जी, हमने सोचा भी है और किया भी है। हमने महात्मा गाँधी पर एक नाटक किया था, जिसका नाम था ‘गाँधी टू महात्मा’। ‘ यहाँ पर एक गाँधी फाउंडेशन है जिसके साथ मैं जुडी हूँ। उनके लिए महात्मा गाँधी की १५०वीं जयन्ती पर हमारे समूह ने यह नाटक किया था। हिंदी भाषा में अधिक कार्यक्रम करती हूँ क्योंकि हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया है। मैं हिन्दी पढ़ाती हूँ, मैं अपने विद्यार्थियों से कह देती हूँ यदि तुम सीख रहे हो तो तुमको मेरे नाटकों में काम करना होगा। यह उनका ‘फाइनल रिसाइटल’ होता है।
आपने बताया आप स्वंय नाटक लिखती हैं तो आप किस तरह के नाटक लिखती हैं?
मैं जो नाटक लिखती हूँ वे समसामायिक होते हैं।जो आस पास घटित होता है उसी को अपने नाटक का विषय बनाती हूँ। मैंने लघु फिल्में भी बनायीं हैं। वेब सीरीज़ भी बनायीं हैं। हमने प्रेमचंद्र जी की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ पर लघु फिल्म बनायी। यह १९४० के आस पास की कहानी थी कलाकारों ने मुझसे कहा कि इसको आधुनिक परिवेश में बदल देते हैं, हम सैट कैसे बनाएंगे, हम उस ज़माने का सामान कहाँ से लाएंगे। मैं भारत से कुछ कुछ चीजें लाती रहती हूँ ,उनका प्रयोग कर के हमने उस ज़माने के सैट बनाए। एकदम वैसा तो नहीं बन सकता था पर फिर भी बहुत अच्छा बना। चूल्हा भी बनाया ,डेगची रखी ,चिमटा रखा,हंडिया,सड़सी,हुक्का,तवा थाली,कटोरी अदि।
आप अभी शिशिर शर्मा जी के साथ वर्कशॉप करने वालीं हैं तो आप क्या कहना चाहेंगी कि लोग क्यों जुड़ें इस वर्कशॉप से ?
शिशिर जी से मिलना भी एक इत्तफाक है। दीप्ती शर्मा हाल ही में हमारे समूह से जुडी हैं उन्होंने शिशिर जी के साथ दिल्ली में काम किया है। शिशिर जी ने उनको हमारे समूह की एक फोटो में देखा बस यहीं से सिलसिला चल पड़ा। अब तो शिशिर जी व हम मित्र हैं। रही वर्कशॉप की बात तो असल में क्या है कि मेरे समूह में बहुत से लोग चाहते थे शिशिर के साथ कार्यशाला करना। शिशिर जी अपने कीमती समय में से समय निकाल वर्कशॉप करने को भी तैयार हो गए यह उनका बड़प्पन है। हमारे समूह के कुछ लोग अभिनय के क्षेत्र में बहुत ही नए हें। उनके लिए यह कार्यशाला बहुत मददगार होगी। कुछ पुराने कलाकार भी इस कार्यशाला से जुड़ना चाहते थे।
एक और बात शिशिर जी के साथ रेनिता कपूर भी इस कार्यशाला का कार्यकर रही हैं वे स्वंय़ भी दक्ष अभिनेत्री हैं। शुरु मेरी उनसे वर्कशॉप के लिए कोई बात नहीं हुई थी। उन्होंने कहा चलिए एक मीटिंग करते हैं। वो मीटिंग ढ़ाई घंटे चली और बहुत ही अच्छी रही। शिशिर जी के अभिनय की खूबियों से तो हम सभी प्रभावित हैं ही पर इसके अलावा वो जिस तरह से इन्सान हैं वो कमाल है। सभी ने कहा कि वे बहुत अपने से लगे। तब हमने उनसे पूछा कि क्या हमारे लोग आपके साथ वर्कशॉप कर सकते हैं। क्या आप सिखाएंगे? लोगों ने भी कहा तो उन्होंने हाँ कर दिया। ये तो आप भी जानती हैं कि सीखने की कोई सीमा होती हैं। आप जितना भी सीखें अच्छा होता है। हमने इस कार्यशाला में हिस्सा लेने वालों की अधिकतम सीमा २० रखी है। अभी कई नए लोग जुड़े हैं। इस समय १५ लोग हो गए हैं। इस वर्कशॉप में शिशिर जी ५ सप्ताहांत (वीकेंड )की क्लास लेंगे। जो भी इससे जुड़ना चाहते हैं वो मुझे संपर्क कर सकते हैं। फोन:४०४-५८५-७२४७
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संध्या जी ,शिशिर जी से अभी मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने कहा कि वर्कशॉप करने से आप अभिनेता बन जायेंगे ऐसा सोचना गलत है। आप बताइये वर्कशॉप करने के क्या लाभ हैं?
शिशिर जी ने जो कहा है वो मेरे अनुसार से सत्य है ,क्योंकि अभिनय को लेकर आम लोगों की धारणा है कि हम लोग संवाद बोल लेंगे और कोई वर्कशॉप कर लेंगे तो हम अभिनेता /अभिनेत्री बन जाएंगें। मैं उनको बहुत समझाती भी हूँ कि जब आप नृत्य सीखते हैं तो एक-एक स्टेप सीखते हैं। अभिनय में भी ऐसा ही होता है। बल्कि आपको एक-एक संवाद को याद करना होता है। सच पूछो तो कलाकार तो हम सबके भितर होता है। उसे बाहर लाना ही अभिनय है। बहुत अच्छी बात है कि शिशिर जी हमारे दल के साथ वर्कशॉप करने को तैयार हैं। उनसे मिल कर बहुत ही अच्छा लगा। शिशिर जी के साथ बात करके बहुत सारी बारीकियां सीखीं। हमारे समूह के लोग बहुत उत्साहित हैं। ऐसा नहीं है कि सभी एक से होते हैं कुछ लोग अभिनय को हल्के में लेते हैं तो बहुत सारे ऐसे भी हैं जो अभिनय को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं।
हमारे पाठकों से कुछ कहना चाहेंगी ?
अमेरिका जैसे देश में लाइव शो करना वैसे कठिन होता है जब आपके पास पैसे न हों तो और कठिन होता है। ऐसा नहीं की यहाँ काम करने वाले लोग नहीं मिलते पर उनको पैसे तो देने होते हैं न। हम सब कुछ खुद ही करते हैं। दूसरी बात लोगों के साथ काम करना भी एक चैलेंज होता। लोगो बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं। क्योंकि मेरे लिए तो सभी एक जैसे हैं पर सभी लोग सभी रोल नहीं कर सकते हैं। ये जो कार्य मैं कर पा रही हूँ इसमें परिवार का बहुत बड़ा हाथ है। मेरे दोनों बेटे और मेरे पति मेरी सहायता करते हैं। लोगों को थियेटर के महत्व को समझना चाहिए। मंच पर अभिनय करना आसान नहीं होता। कम से कम आप हमारे कार्यक्रमों को देखने आएं। इसके पीछे बहुत मेहनत होती है। कभी कभी जब मैं थकती हूँ या निराश होती हूँ तो टैगोर जी की ये पंक्ति “जदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे” मुझको हौसला देती है।दूसरे में मुझे हौंसला मिलता है। Robert Frost की लिखी कविता “Stopping by Woods on a Snowy Evening” की इन पंक्तियों से। Miles to Go and miles to go Before I Sleep
रचना श्रीवास्तव अमेरिका में रहती हैं और वहां की गतिविधियों पर हिंदी मीडिया के लिए नियमित रूप से रिपोर्टिंग करती हैं।
Rachana Srivastava
Freelance Reporter, Writer, and Poet
Los Angeles, CA
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