जाट आरक्षण की मांग के सामने केन्द्र व हरियाणा सरकार झुकना अत्यन्त निराषाजनक है। हरियाणा की सबसे समृद्ध ,सबल, साहसी और उच्च जाति जाटों द्वारा आरक्षण की मांग करना तथा उसे स्वीकारा जाना सामाजिक समरस तानेबाने के लिए घातक है। इस घटनाचक्र से सिद्ध होता है कि सरकारों के लिए वोटगत चुनावी समीकरणों के सामने व्यापक राष्ट व जनहित गौण होते हैं तथा इस तराजू पर कांग्रेस व भाजपा के चरित्र में कोई फर्क नहीं है।
हरियाणा में भैंसों एवं विदेशी काऊ की बहुतायतता के कारण देशी गाय के पंचगव्य से बनी दूरी के कारण जाटों के चित्त में अस्थिरता आयी है। देशी गाय व पंचगव्य से दूरी के कारण ही जाट साहस व सबलता के बल पर हासिल अब तक की अपनी गौरवान्वित समृद्धि को आरक्षण की अक्रामक मांग से लज्जित कर रहे हैं। चुंकि वर्तमान में सभी जाति व पंथ-संप्रदाय आदि की आरक्षण चाहत का अतिक्रमण युक्त अतिरेक ही एक दिन आरक्षण का अन्त भी सिद्ध होगा । परन्तु जितना भी हो इसकी समाप्ति के प्रयास जल्दी हाने चाहिए क्योंकि तुफान आते व जाते अधिक विनाशक होता है।मेरे द्वारा गत तीन दषकों में समय-समय पर भारतीय आरक्षण व्यवस्था पर दिए जाते रहे व्यक्तव्यों एवं लिखे गये लेखन के अत्यन्त ही सारगर्भित व्यक्तव्यों के सार संक्षेप भावार्थमयी आदर्श वाक्यों को समझलें तो आरक्षण के विषय पर समझाने को उससे आगे कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।
आरक्षण है विषबैल को चिरतार्थ करते सारगर्भित कुछ महत्वपूर्ण बिन्दूः-
1.आरक्षण नीति योग्यता पर अयोग्यता थौंपकर राष्ट्रीय बहुपक्षीय कार्यक्षमता व बहूआयामी विकास की संभावनाओं को समाप्त करने वाली विषबेल है।
2.वर्तमान आरक्षण व्यवस्था सामन्त युग की त्रुटियों, कमियों व सामाजिक ढाँचागत असफलताओं का ही ठीक विपरीत स्वरुप में नया आत्मघाती संस्करण है।
3. देश की सुरक्षा,पुलिस-प्रशासन, स्वास्थ्य,चिकत्सा,इंजनियरिंग ,टेक्नोलोजी और शैक्षणिक आदि विविध बहुपक्षीय विषयक असफलताओं-विफलताओं में आरक्षण व्यवस्था ही सबसे प्रमुख कारण है।
4. आरक्षण की वर्तमान पद्धति की वोटगत सीढी से निजी आधिपत्यवाद को प्रयासरत निहित तत्कालिक स्वार्थों से युक्त पक्षधर तत्वों का आचरण राष्टघात के समान है। ऐसे तत्वों को इतिहास भविष्य में सामंतवादियों की भाँति और भंयकर भूलों वालों व्यक्तित्वों मौहम्मद जिन्ना जैसों की तराजू पर तौलेगा। राष्ट्र की जनमानस व् शासको को स्मरण करना चाहिए कि संविधानसभा के अध्यक्ष युगपुरुष बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर भी इस आरक्षण पद्धति के खिलाफ थे तथा उन्होंने अनेकानेक दबावों के चलते मात्र 10 वर्ष के लिए ही सहमति दी थी।
5. वर्तमान आरक्षण पद्धति कमजोर वर्गों की आम समाज से समरसता बढाने , उनकी रचनात्मक व सृजनात्मकता सामने लाने , बौद्धिक व सामाजिक चिन्तन में उत्कृष्टता प्रदान करने में तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान युक्त प्राकृतिक व् नैसर्गिक मानवीय दिशा और दशा बदलाव में योगदान आदि महान सुददेश्यों में मुख्य बाधा सिद्ध हुई है।
6.आरक्षण व्यवस्था ने उपेक्षित व पिछडे वर्गो के मध्य भी लगातार लाभान्वित हो रहे और लगातार वंचित रह रहे वर्ग के रूप में कभी न पटने वाली एक नयी खाई तैयार कर दी है। आरक्षण पाकिस्तानी विस्तारवादी आंतकीय नीति की ही भाँति सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यकता का बहाना बनाकर कुछ लोगो की स्वार्थी व् कुत्सित प्रवृति का कभी न रूकने वाला सामाजिक ग्रहण है।
7.आरक्षण ने कार्यगत विशिष्ट हूनरों (पारगंता), परम्परागत श्रेष्ठ कलाओं, सांस्कृतिक धरोहरों, विभिन्न विषयक कार्य दक्षताओं और गुणवत्ताओं को अवरोधित कर दिया है। जबकि इन्हीं उददेश्यों की प्राप्ति हेतु ही संविधान मं आरक्षण का जन्म हुआ था।
8. चूंकि कोई सभ्य मानव दूसरों पर अत्याचार व अन्याय का समर्थक नहीं हो सकता है। परन्तु युगोयुग से सभी सामाजिक व शासकीय व्यवस्थाओं में अधिनायकवाद व एकाधिकारवाद की कमियां-खामियां बनी रही है और कमोबेश मानव स्वभाव के कारणों से सदैव रहेगी भी ! वर्तमान नीति निर्धारकों का कर्तव्य है कि किसी भी संस्करण व स्वरूप में इतिहास की भूलों को दोहराया न जा सके ! जबकि कटु सत्य यह है कि वर्तमान की जातीय आरक्षण पद्धति एक तरफ तो प्रतिक्रियावादी बदला लेने जैसी अवधारणा को पुष्ट करती है ! वहीँ दूसरी तरफ लाभान्वित होने वाली जातियों व् वर्गों में चंद मुठी भर लोगो को लगातार लाभ मिलता जा रहा है, शेष ज्यों के त्यों वंचित है !
9. आरक्षण अवश्य ही हो और शत-प्रतिशत जनता के लिए हो परन्तु जातिय व संप्रदायगत न हो ! अर्थात सभी को आगे बढने के अवसरों में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्तरों पर व्यैक्तिक भावानानुसार उनकी तकनीकिय सहित समस्त सर्वांग शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकता व अभिरुचि की पूर्ति करवाकर शासन अवसरों की उपलब्धता प्रदान को सुनिश्चित करे ! इस हेतु शासन व व्यवस्था को संवैधानिक प्रतिबद्धताओं की कठोर अनिवार्यताओं से बाँधा जावे ! परन्तु याद रखना होगा कि सेवा क्षेत्र के गुणवत्ता माणकों की योग्यता में किसी प्रकार से छुट की आरक्षण पद्धति तो दूरगामी स्तर पर सामाजिक ढांचे के लिये अपराध की भाँति ही है।
10. समग्र सांमजस्यमयी एवं समरस सामाजिक ऊत्थान नौकरियों में अंकीय छुट वाले आरक्षण से कदापि संभव नहीं है अपितु वंचितों के महान स्वप्नों, कलाओं, पारंगत हूनरों को जागृत कर उनकी शैक्षिक व व्यवसायिक भावी योजनाओं में नियमबद्ध और अनुशासित सहयोग के अवसरों की अनिवार्य व्यवस्थागत पूर्ति करने से संभव है।
11. जैन व जाट समाज जैसे गौरवान्वित इतिहास वाले और वर्तमान समय में भी सक्षम वर्गों द्वारा क्रमशः अल्पसंख्यक व आरक्षित जातीय दर्जा चाहना व उसे प्राप्त करने को उपलब्धि मानना यह स्पष्ट करता है कि आरक्षण व्यवस्था मानवीय जीवन की महान पूँजी आत्म स्वाभिमान से गिराने वाली है। गुजरात में बहुस्तरीय सबसे प्रभावी व् सक्षम जाति पटेलों का यकायक आरक्षण की मांग उठाना भी एक ऐसा ही जवलंत उदाहरण है !
पूनम राजपुरोहित ‘‘मानावताधर्मी’’
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