Saturday, November 23, 2024
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दीवार में अमिताभ बच्चन वाली भूमिका का प्रस्ताव पहले पं. शिवकुमार शर्मा को दिया गया था

संगीतकार और संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा का मुंबई में ह्रदयाघात के कारण निधन हो गया। वह 84 वर्ष के थे। वह पिछले छह महीने से किडनी संबंधी समस्याओं से पीड़ित थे और डायलिसिस पर थे। पंडित शिव कुमार शर्मा का सिनेमा जगत में अहम योगदान रहा। बॉलीवुड में ‘शिव-हरी’ नाम से मशहूर शिव कुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया की जोड़ी ने कई सुपरहिट गानों में संगीत दिया था। इसमें से सबसे प्रसिद्ध गाना फिल्म ‘चांदनी’ का ‘मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां’ रहा, जो दिवंगत अभिनेत्री श्रीदेवी पर फिल्माया गया था।

वर्ष 2002 में मुंबई के एक पाँच सितारा होटल में सुश्री ईना पुरी द्वारा पं. शिवकुमार शर्मा पर लिखी गई पुस्तक द मैन ऐंड हिज़ म्यूज़िक के लोकार्पण और चर्चा के लिए आयोजित कार्यक्रम में फिल्मी दुनिया के संगीत , अभिनय से लेकर निर्देशक, लेखक गायक एक से एक धुरंधर लोगों की मौजूदगी थी। जाने माने सितारों और सेलीब्रिटियों की इस भीड़ में सबका ध्यान खींच रही थी पं. शिव कुमार शर्मा की बहू, जो साधारण से साधारण अतिथि तक पहुँचकर उससी आवभगत कर रही थी, बहुत बाद में पता चला कि वो पं. शिवकुमार शर्मा की बहू हैं। कहने का आशय यही है कि पंडितजी ने सफलता और प्रसिध्दि के शीर्ष पर पहुँचकर भी अपने घर की बहू बेटियों को ऐसे संस्कार दिए थे। मुझे नहीं याद पड़ता कि मुंबई कि किसी सामाजिक या रस्मी पार्टी में मेहमानों को बुलाने वाला कोई व्यक्ति अपने मेहमानों का इतना ध्यान रखता है। मेहमानों का ध्यान रखने की जिम्मेदारी तो होटल के वेटर की हो जाती है।

खैर, इसी पार्टी में पं. शिवकुमार शर्मा से जब अनौपचारिक चर्चा हो रही थी तो उन्होंने बताया कि दीवार फिल्म का अमिताभ बच्चन वाली भूमिका का प्रस्ताव उन्हें मिला था, लेकिन उन्होंने विनम्र्तापूर्क मना कर दिया। उन्होंने बड़े गर्व से बताया कि जब वे मुंबई में धोबी तावाब यानी मेट्रो सिनेमा के पास किराय ेसे रह रहे थे तो किराया नहीं देने पर उनके मकान मालिकन ने उनका सामान सड़क पर फेंक दिया था। अपने संघर्ष के दिनों के किस्से उन्होंने इतनी सहजता और गर्व से बताए कि ऐसा लगता था जैसे वे खुद ये सब अनुभव हासिल करना चाहते थे।

पं. शिव कुमार शर्मा ने वाद्य यंत्र संतूर को विश्व विख्यात बनाने में अहम योगदान दिया। संतूर वाद्य यंत्र कभी कभी जम्मू-कश्मीर का एक अल्पज्ञात वाद्य था, लेकिन पंडित शर्मा के योगदान के संतूर को एक शास्त्रीय संगीत वाद्य यंत्रदर्जा दिया और इसे अन्य पारंपरिक और प्रसिद्ध वाद्ययंत्रों जैसे सितार और सरोद के साथ ऊंचाई पर पहुंचा दिया। पंडित शिवकुमार शर्मा ने सिलसिला, लम्हे और चांदनी जैसी फिल्मों के लिए बांसुरीवादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ संगीत तैयार किया। 1967 में घाटी की पुकार के नाम से. साथ में तबले पर पंडित ब्रजभूषण कालरा भी थे.1985 में, उन्हें बाल्टीमोर शहर, यूएसए की मानद नागरिकता प्रदान की गई।

पंडित शिवकुमार शर्मा ने एक बार इंटरव्यू के दौरान खुलासा किया था कि उनके पिता चाहते थे कि जम्मू या श्रीनगर के आकाशवाणी में काम करें। पिता चाहते थे कि उनका बेटा सरकारी नौकरी के जरिए भविष्य सुरक्षित करें, लेकिन पंडित जी ऐसा नहीं चाहते थे। एक बार उन्होंने घर छोड़ दिया और इकलौती संतूर और जेब में महज 500 रुपये लेकर मुंबई आ गए और संघर्ष शुरू कर दिया।

पंडित जी ने एक किस्सा सुनाते हैं- एक बार बीच कार्यक्रम में एक श्रोता ने गायक से कहा, पं. जी राग बागेश्री सुनाइए। पंडित जी ने कहा कि डेढ़ घंटे से मैं वहीं बजा रहा था। तब उसने कहा, तभी इसमें इतना रस आ रहा था। तो संगीत समझने की चीज नहीं महसूस करने की है। आप भी उस आनंद को महसूस कीजिए।

रागगिरी https://raaggiri.com/ में उनका यादगार साक्षात्कार
मशहूर संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा के बारे में उनके लाखों करोड़ों फैंस उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी कई खास बातें जानना चाहते हैं। रागगिरी को दिए खास इंटरव्यू में पंडित शिव कुमार शर्मा ने अपने बचपन से लेकर अपने पहले कार्यक्रम से लेकर कई बातें बताई। उनके पिता पंडित उमादत्त शर्मा उनके गुरु भी थे और फिर आगे उन्होंने कैसे कैसे संगीत की तालीम ली संतूर वादक का सफर कैसे शुरु हुआ और उन्होंने संगीत को गंभीरता से लेना कब और कैसे शुरु किया आज इस इंटरव्यू में वो इन सब सवालों के जवाब देंगे। साथ ही बचपन में पंडित शिव कुमार शर्मा जी कितने शैतान थे और क्या कभी शैतानियों की वजह से उनके पिता जी से उन्हें कभी मार खानी पड़ी आइए सब जानते हैं।

हमने पंडित शिव कुमार शर्मा से पूछा कि आपकी संगीत की तालीम कैसे शुरु हुई?

मेरी पैदाइश जम्मू की है। मेरे पिता पंडित उमादत्त शर्मा जी मेरे गुरू भी थे। पिताजी अलग-अलग कलाओं को जानने वाले बड़े काबिल कलाकार थे। उन्होंने बनारस के पंडित बड़े रामदास जी से गाना सीखा था। पंडित बड़े रामदास जी बनारस घराने के अद्वितीय कलाकार थे। इससे पहले उन्होंने जम्मू में सरदार हरनाम सिंह से तबला भी सीखा था। सरदार हरनाम सिंह, दतिया रियासत के कुदऊ सिंह महाराज जो बहुत महान पखावज वादक थे के शिष्य थे। हमारे जम्मू कश्मीर में शास्त्रीय संगीत का अपना कोई घराना नहीं है। ना जम्मू में, ना कश्मीर में। इस वजह से मेरे पिता जी ने हरनाम सिंह जी से तबला सीखने की तलाश में बनारस का रूख किया। ये वो दौर था जब पाकिस्तान नहीं बना था। बंटवारे से पहले लाहौर संगीत का गढ़ हुआ करता था। उस जमाने में टेलीविजन नहीं था। लाहौर रेडियो से उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, अब्दुल वहीद खान साहब, पंडित गिरीश चंद्र जी वहां से ब्रॉडकास्ट करते थे। मेरे पिता जी भी उसी समय एक शास्त्रीय गायक के तौर पर ब्रॉडकॉस्ट किया करते थे। जाहिर है संगीत मेरे परिवार का अभिन्न हिस्सा था। हमारी परंपरा में शुमार था। जब मैं पांच साल का था तब गायन और तबले की मेरी शिक्षा मेरे पिताजी के पास ही शुरू हुई थी। शुरूआत गायन से जरूर हुई थी लेकिन मेरा मन धीरे धीरे तबला बजाने में ज्यादा लगने लगा था। करीब 7-8 साल की उम्र रही होगी जब मैं रेडियो से बच्चों के कार्यक्रम में तबला बजाना शुरू कर दिया था।

संतूर सीखने की शुरुआत कब और कैसे हुई?

जब मैं 11-12 साल का था तब मेरे पिताजी ने एक दिन मुझसे कहाकि वो मुझे संतूर सीखाना चाहते हैं। एक बार तो मैंने सोचा कि गायन और तबला तो सीख ही रहा हूं फिर एक बिल्कुल नया वाद्ययंत्र क्यों? लेकिन फिर गायकी और तबला की जानकारी होने की वजह से संतूर को बजाने में मुझे अच्छा लगा। इस तरह मेरे पिताजी ने मुझे संतूर सिखाना शुरू किया। उस वक्त तक संतूर बजाना तो दूर की बात है वादिए कश्मीर के बाहर जम्मू में कभी भी किसी ने संतूर को देखा और सुना भी नहीं था। कश्मीर में जो संतूर बजाया जाता था वो सूफियाना मौसिकी में इस्तेमाल किया जाता था। मोहम्मद अब्दुल्ला कालीन और कालीन बफ नाम के दो कलाकार थे जो संतूर बजाया करते थे। उस समय तक संतूर पर शास्त्रीय संगीत किसी ने नहीं बजाया था। ये पहल मेरे पिताजी ने की। सबसे पहले मेरे पिताजी ने सोचा कि संतूर पर शास्त्रीय संगीत बजाना चाहिए। ये आसान काम नहीं था। शास्त्रीय संगीत में संतूर का किस तरह का ‘सिस्टम’ बनाया जा सकता है, कैसे उसे बजाया जा सकता है, स्वरों को कैसे मिलाना चाहिए, कलम को कैसे बजाना चाहिए, रागदारी कैसे होनी चाहिए? इन सारे सवालों का जवाब पिताजी ने ढूंढाय़। इस तरह संतूर की मेरी तालीम शुरू हुई। यानी करीब 12 साल की उम्र तक आते आते पहले गाना, फिर तबला और आखिर में संतूर की बारी थी। संतूर अपनी तरह का एकदम अलग ही साज था।आप बचपन की कुछ शैतानियों के

बारे में बताइए या फिर आप बहुत ही सीधे बच्चे थे?

संगीत सीखने से अलग बचपन में वैसे तो मैं शैतान बच्चों में से नहीं था। लेकिन मैं पढ़ाई में ज्यादा अच्छा भी नहीं था। खासतौर पर गणित में। हमारे जो गणित के टीचर थे वो मुझे छड़ी से पिटते थे मेरी हथेलियों पर। गणित में ज्यादातर हमारा ‘सिफर’ ही आता था। वहां काफी पिटाई हुई है। ऐसे ही एक बार बच्चों के साथ होली में अपनी शैतानी का एक किस्सा याद है। होली में यूं भी शैतानियां होती हैं। हुड़दंग होती है। हमारे साथ वाले घर में वजीर साहब रहते थे। उन दिनों महाराजा का जमाना था। वजीर साहब की बेटी को पढ़ाने के लिए एक प्रोफेसर साहब आते थे। होली वाले दिन वो बड़ा सजधज और बनठन कर उनकी बेटी को पढ़ाने आए थे और हम लोगों ने छत के ऊपर से उनके ऊपर रंग डाल दिया था। रंग भी ऐसा वैसा नहीं, बस यूं समझिए कि उनके लिए अपनी ही शक्ल पहचानना मुश्किल हो गया। इन बदमाशियों के बावजूद पिताजी से तो कभी कान खिंचाई कभी नहीं हुई क्योंकि वो जो सिखाते थे वो मैं भगवान के आशीर्वाद से जल्दी ही सीख जाता था। दूसरे उस जमाने की जो तालीम थी पिताजी मुझे लिखने नहीं देते थे। रिकॉर्डर तो उस वक्त होते भी नहीं थे। ऐसा नहीं था कि कॉपी पेंसिल लेकर बैठ गए, तानें लिख लीं और बाद में उनकी प्रैक्टिस कर ली। पिताजी इसकी इजाजत बिल्कुल नहीं देते थे। वो कहते थे याद रखो। इस तरह मेरा ज्यादातर बचपन संगीत सीखने और रियाज करने में गुजरा है। थोड़ा बहुत खेला भी तो वापस आकर रियाज करने बैठ जाते थे।

आपका पहला स्टेज परफोर्मेंस कब और कहां हुआ और आपको ये मौका कैसे मिला?

मैंने अपने शुरूआती दिनों के कार्यक्रम में ही एक बड़ा प्रयोग कर डाला। 1955 का साल था। मेरी उम्र सिर्फ 17 साल थी। मुंबई में हरिदास संगीत सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। बृजनारायण जी उस कार्यक्रम का आयोजन किया करते थे और वो देश का बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित संगीत कार्यक्रम था। देश के जितने बड़े कलाकार थे वो सब वहां अपनी प्रस्तुति दिया करते थे। वो चाहें गायक हो, वादक हो या नृत्य से जुड़े हों। मैं वहां पहुंचा कैसे ये भी किस्सा दिलचस्प है। डॉ. कर्ण सिंह मेरे पिता जी के शिष्य हैं। उन्होंने 10-12 साल तक मेरे पिताजी से गायन सीखा है। वो मुंबई आए थे। महाराज हरिसिंह वहां थे। वहीं डॉ. कर्ण सिंह से बृजनारायण दास जी ने कहाकि आप इतना अच्छा संगीत सम्मेलन कराते हैं मैं आपको एक ऐसे कलाकार के बारे में बताता हूं जो अनोखा साज बजाता है। उस साज के बारे में आपने कभी नहीं सुना होगा। बृजनारायण जी ने ये बात सुनकर ही मुझे उस कार्यक्रम में बुलाने का फैसला किया। उन दिनों मैं तबला और संतूर दोनों बजाता था और मुझमें परिपक्वता भी नहीं थी।

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