शहर की चार दिवारी, जंतर मंतर और आमेर हैं यूनेस्को की विश्व विरासत में शामिल.
यह है विश्व प्रसिद्ध गुलाबी नगर जयपुर और इसका कलात्मक परकोटा जिसे राजस्थान के नियोजित शहर की वजह से भारत की 38 वीं विरासत के रूप में वर्ष 2020 ई. में यूनेस्को ने विश्व धरोहर में शामिल किया है। गुजरात के अहमदाबाद के बाद जयपुर राजस्थान का पहला और देश का दूसरा ऐसा शहर बन गया है। नगर निर्माण शैली के विचार से यह भारत और यूरोप में अपने ढंग का अनूठा नगर है, जिसकी समकालीन और वर्तमान विदेशी यात्रियों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। इस नगर का गुलाबी रंग सदियों से आज भी जयपुर को गुलाबी नगर के नाम से ख्याति दिला रहा है।
देश के उत्तर-पश्चिमी राज्य राजस्थान के परकोटे वाले जयपुर नगर की स्थापना वर्ष 1727 ई. में सवाई जय सिंह द्वितीय द्वारा की गई थी और इसको मैदानी भाग में बसाया गया था। एक स्वप्निल योजना को मूर्त रूप देते हुए नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाले वास्तु पुरूष मंडल के प्रतीक को धरातल पर आकार दिया गया। नव स्थापित राजधानी जयपुर के शिल्प और विज्ञान का महत्वपूर्ण केन्द्र बनने के कारण से पुरानी राजधानी के रूप में आमेर का गौरव कम हो गया, यद्यपि आमेर महल का महत्व विश्व स्तरीय है।
जयपुर के बसने से पूर्व आमेर कछवाहा राजाओं की राजधानी था। राजा मानसिंह ने आमेर महल का निर्माण कराया था। लेकिन सवाई जयसिंह ने इसको अंतिम रूप दिया। परकोटे वाले जयपुर नगर की सुरक्षा प्राचीरें आमेर से जा मिलती हैं । यद्यपि दोनों राजधानियों के मध्य करीब 13 किमी. की दूरी है, परन्तु प्राचीरों के कारण दोनों एक ही प्रतीत होता है।
भारत में जयपुर ही एकमात्र ऐसा नगर है जो योजनानुसार वैज्ञानिक पद्वति के आधार पर बसाया गया है। सभी सड़कों और गलियां सीधी रेखा में समकोण बनाती हुई एक-दूसरे को काटती हुई आगे बढ़ती हैं। यहां नगर निर्माण कला और वास्तुशिल्प परम्परागत ढंग से विकसित होती रही। राजस्थान के नगरों के प्रतिरक्षामूलक स्वरूप के दृष्टिगत उन्हें दुर्ग-नगर की संज्ञा देना भी दी जाती है। किला, तालाब और बाजार और चौंक ये तीन जगहें राजस्थानी नगर के सरंचनात्मक प्रमुख अंग थे। उनकी अवस्थिति के अनुसार ही सड़कों का जाल विकसित किया जाता था।
शिल्पशास्त्र के ज्ञाता बंगाली विद्याधर चक्रवर्ती की जयपुर नगर के नियोजित निर्माण और वैज्ञानिक संकल्पना में मुख्य भूमिका रही। सवाई जयसिंह की ज्योतिष तथा इतिहास सम्बन्धी अभिरूचियों में दीवान विद्याधर प्रधान सहयोगी थे। विद्याधर की देखरेख में वास्तुविदों ने नक्शे के आधार पर शहर निर्माण की समस्त कल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया। उसकी सहायता से ही उसने कि चौरस आकार की सीधी सड़कें और गलियों वाली बस्ती बसाना आरम्भ किया जो जयपुर के नाम से विख्यात है।
सवाई जयसिंह के घासीराम मुरलीधर नामक व्यापारी को लिखे पत्र से ज्ञात होता है कि ऐसा नगर योजना में राज्य के नियंत्रण को कायम रखने और भवनों की ऊंचाई और निर्माण के प्रकार की एकरूपता को सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। जयसिंह ने व्यापारी को पत्र में विद्याधर के निर्देशों के अनुसार कार्य करने की बात कही है। विद्याधर के जिम्मे जयपुर में ठाकुरों के घरों के रखरखाव के लिए आने वाले व्यय के लिए उनकी आय से 10 प्रतिशत की वसूली का भी काम था। जयपुर में आज भी विद्याधर का रास्ता, विद्याधर काॅलोनी और आगरा रोड पर विद्याधर जी का बाग है, जिसे महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने जयपुर के वास्तु निर्विवाद रूप से जयपुर एक अभिजात्य नगरीय जीवन वाला शहर है।
नगर योजना और समृद्ध वास्तुकला जयपुर की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं। जयपुर की शहरी आयोजना में प्राचीन हिंदू, प्रारंभिक आधुनिक मुगल काल और पश्चिमी संस्कृतियों के विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। इसे वैदिक वास्तुकला में वर्णित व्याख्या के आधार पर ग्रिड योजना के अनुरूप बनाया गया था। ग्रिड योजना के माॅडल की पश्चिम में अधिक स्वीकार्य उपस्थिति है जबकि शहर के विभिन्न क्षेत्रों (चौकड़ियों ) की व्यवस्था से पारंपरिक हिंदू अवधारणाओं के संदर्भ का आभास होता है। अपना पुराना रूप नगर-प्राचीर से घिरे मध्य भाग ने ही सुरक्षित रखा है। यहां इमारतें वैसी ही सुंदर और शानदार हैं और सड़कें भी आधुनिक जीवन की जरूरतों के दबाव को झेलती हुई वैसी ही खुली-खुली और चौड़ी लगती हैं।
नगर के परकोटे वाला भाग जीवंत विरासत वाले शहर जयपुर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। परकोटे की दीवार का नगर की सीमाओं को परिभाषित करने और एक प्रकार की व्यवस्था की भावना को स्थापित करने के उद्देश्य से निर्माण किया गया था। सड़कों में कार्यात्मक और बहुआयामी विविधताएं परिलक्षित होती हैं। भारत के अन्य नगरों की भांति जयपुर में भी मुख्य सड़कें सार्वजनिक संपर्क साधन की भूमिका निभाती हैं। जयपुर की चौड़ी और सीधी सड़कें आधुनिक परिवहन की अपेक्षाओं के भी पूर्णतः अनुरूप हैं। जब हम जयपुर की सड़कों और लंबे-चैड़े चौड़ी से गुजरते हैं, बाहर की सीढ़ियों के जरिए घरों की चौरस, खुली छतों से उतरते हैं और अलंकृत ड्योढ़ियों से भीतरी अहातों को झांकते हैं तो विस्तार का आभास होता है। बरामदों की स्तंभ-पंक्तियां और अन्य वास्तु-रचनाओं तथा अंगों की एकरूपता सड़क को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करती हैं ।
जयपुर के निर्माताओं की भव्य कल्पना तथा कला-कौशल की शानदार मिसाल है। छतरी (गुंबद युक्त मंडप) और नुकीले किनारों वाली ढलवां छत के आकार का सजावटी शिखर, जिसका अनुकरण बंगाली लोक वास्तुशिल्प से किया गया था विभिन्न संयोजनों में हर कहीं दोहराये प्रतीत होते हैं। जयपुर में भवनों के सड़क की ओर अग्र भाग अपने कलात्मक अलंकरणों की बाहुल्यता से आश्चर्यचकित करने वाली हैं। जयपुर में बुर्ज जेसे दरवाजे बताते हैं कि भीतर कोई महत्वपूर्ण इमारत है। यह नगर सुरक्षा की दृष्टि की अपेक्षा विभिन्न प्रकार के व्यापार, कला और शिल्प में लगे विभिन्न समुदायों के लिए एक बसावट के रूप में बनाया गया था।
जयपुर की मूल योजना के अनुसार केवल चार आयताकार खंड थे, जिसमें आज महल, पुरानी बस्ती, तोपखानी देश और मोदीखाना और विश्वेरजी को मिलाकर खंड हैं। इन दो अंतिम खंडों को बांटने के लिए किसी भी सड़क की योजना नहीं बनाई गई थी। यह साफ नहीं है कि जब वर्तमान चौड़ा रास्ता और त्रिपोलिया गेट की योजना बनाकर उन्हें बनाया गया था, तब क्या स्थिति थी। पर यह स्पष्ट है कि चौड़ा रास्ता का बाजार, जैसा कि आज का जौहरी बाजार है की तरह नहीं बनाया गया था। चौड़ा रास्ता के सामने कईं महत्वपूर्ण मंदिर स्थित हैं। शहर के लिए चार बाजारों की योजना बनाई गई, जिन्हें आज जौहरी बाजार, देवरी बाजार, किशनपोल बाजार और गणगौरी बाजार के नाम से जाना जाता हैं।
नगर की अधिकांश इमारतें जिस गुलाबी बलुए पत्थर से बनी हैं। पत्थरों की खूब टिकाऊ गारे के साथ चिनाई की हुई होने की वजह से बाहर पलस्तर की जरूरत नहीं है। बाद में जो इमारतें ईंटों से बनायी गयी, उनके पलस्तर पर भी गुलाबी रंग का ही लेप है।
जयपुर में प्रवेश-द्वार के प्रति परंपरागत स्वरूप अपने चरम रूप में सामने आता है। प्रक्षेपों तथा देवलियों से युक्त शानदार नगर-द्वार महीन नक्काशियों, मूर्ति-अलंकरणों तथा चित्रकारी से सजे हुए हैं। द्वार के मध्य भाग में ऊपर नोकदार तथा अन्य किसी आकृति की मेहराब और शिखर पर गुंबदाकार छतरी बनी होती है, जो उसकी रचना को बहुत ही अभिव्यक्तिपूर्ण बना देती है। जयपुर में छह नगर-द्वार हैं और हर द्वार आकृति और सज्जा में दूसरे द्वारों से भिन्न है। गली, मौहल्ला, इमारत, भीतरी अहाता, सबके प्रवेश-स्थल पर अलंकृत सिंह-द्वार बने हुए हैं और वे सभी सड़क की शोभा में चार चांद लगा देते हैं।
जलेबी चौक जयपुर का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण चौंक है जो चारों ओर से इमारतों से घिरा हुआ है और उसके दो प्राकार्य थे। विशेष दिनों पर महाराजा की सवारी निकलती थी, सैनिक परेड होती थीं और तमाशे, नाटक आदि आयोजित होते थे। जब महाराजा की सवारी निकलती थी, चौंक में संगीत गूंजता था। जलेब चौंक से प्रासाद की मुख्य इमारतों तक चार दरवाजे हैं। एक मुख्य इमारत दीवाने आम है, जो चारों ओर से खुले बहुस्तंभी मंडप जैसा है। उनके मध्य में स्थित सिंहासन पर बैठकर महाराजा जनता को दर्शन देता था। राजप्रासाद का वास्तु-स्वरूप और अभिन्यास स्वाभाविकतः उसके निर्माता की रूचियों और रूझानों को प्रतिबिंबित करते हैं।
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जयपुर को ऐसा सुनियोजित और सुअभिन्यस्त नगर कहा था कि जो नगर-आयोजना का प्रतिमान बन सकता है। उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्व फ्रांसिसी वास्तु-विशेषज्ञ ला कार्बूजिये ने भी, जिसने पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ की योजना बनायी थी (1952-1955), जयपुर से ही प्रेरणा ग्रहण की थी। जयपुर भारत का एक ऐसा शहर है, जिसने भविष्य की आवश्यकताओं का प्रावधान रखते हुए परंपरा के सकारात्मक मूल्यों को कायम रखा है।
परकोटे वाला जयपुर नगर अपनी भौतिक विशेषता को कायम रखते हुए वर्तमान में एक संपन्न आर्थिक केंद्र है। परकोटे में स्थित जंतर मंतर पहले से ही विश्व विरासत निधियों में शामिल है। हवामहल, सिटी पैलेस, सरगासूली, गोविन्ददेव मंदिर, गेटोर की कारीगरी पूर्ण छतरियां परकोटे के भीतर महत्वपूर्ण स्मारक एवं धार्मिक स्थल हैं। शहर का भव्य स्वरूप, अनेक आकर्षण और मेट्रो आज जयपुर की शान और सैलानियों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र हैं। ( संदर्भ सामग्री सुजस से साभार )
(लेखक पर्यटन, साहित्य व कला संस्कृति पर नियमित लेखन करते हैं राजस्थान सरकार के मान्यता प्राप्त पत्रकार हैें व कई पुस्तकें लिख चुके हैं,)