मंगलवार को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के अरनपुर थाना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले नीलावाया के जंगलों में माओवादियों ने घात लगाकर सैन्य बलों पर हमला किया और उसमें दो जवानों सहित नई दिल्ली से गयी दूरदर्शन टीम के एक पत्रकार कैमरामैन अच्युतानंद साही की मौत हो गई और एक पत्रकार गंभीर रूप से घायल हो गया। इससे एक बार फिर यह आशंका पुष्ट हो गई कि भारत में निर्भीक पत्रकारिता करना खतरों से भरा है। ड्यूटी के दौरान पत्रकारों की जिंदगी पर खतरा अब एक आम बात हो गई है। आए दिन किसी पत्रकार पर हमला या हत्या की घटनाएं इस बात का साक्ष्य हैं कि पत्रकारिता करना और वास्तविक खबरें निकालना कितने जोखिम का काम हो चला है। पत्रकारिता में इन खतरों से खेलने वाले जाबाज कलम के खिलाड़ी या कहें तो सिपाही को न केवल युद्ध, आतंकवाद, नक्सलवाद या माओवाद की गोली का शिकार होना पड़ता है, बल्कि स्थानीय अफसरशाही या राजनीतिक नेताओं और गुंडों की गोली भी खानी पड़ती है। अनेक जाबाज पत्रकारों की जुबान को भ्रष्टाचार और अन्याय के विरूद्ध् लड़ते वक्त हमेशा-हमेशा के लिय बंद कर दी गई। पत्रकारों पर हो रहे लगातार हमलों ने फ्रीडम ऑफ स्पीच और लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। पत्रकारों की हत्या मामूली नहीं होती असल मंे वो उस सच की हत्या होती है जिसे सफेदपोश भेड़िये जानबूझकर छुपाना चाहते हैं।
विधानसभा चुनाव से पहले दंतेवाड़ा इलाके में माओवादियों की यह हिंसक वारदात एक चुनौती है। उनकी गोली के शिकार हुए जवान निश्चित रूप से देश के लिए बेहद कीमती है और उनके हमले में दो जवानों की शहादत दुखी करने वाली घटना है। लेकिन एक पत्रकार जिसका काम तटस्थ एवं निष्पक्ष भाव से सिर्फ घटना को दर्ज करना था, उसकी इस तरह हत्या करना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण है। इसी घटना में एक अन्य पत्रकार की जान किसी तरह बच सकी। दुखद एवं त्रासद तो यह है कि माओवादियों की ओर से एक पत्र जारी कर कहा गया था कि बस्तर के किसी भी हिस्से में रिपोर्टिंग के लिए पत्रकार आ सकते हैं। उन्हें किसी भी इलाके में आने-जाने से नहीं रोका जाएगा। लेकिन ताजा हमले में कैमरा संभाले जिस पत्रकार की मौत हुई, उसे पहचानना भी मुश्किल नहीं था। फिर भी उसे निशाना बनाया गया। आखिर इससे माओवादियों को क्या हासिल हुआ? निर्दोष पत्रकार की इस तरह की गई हत्या अनेक सवाल खड़े कर रही है। इस तरह का हमला और उसका शिकार कोई पत्रकार होता है तो इसे एक तरह से सच्चाई को खामोश करने की कोशिश ही कहा जायेगा। इसमें हमलावारों को इस बात की परवाह नहीं होती कि उनके निशाने पर आए पत्रकार के काम से उसका पक्ष भी दुनिया के सामने आ जाए। क्योंकि पत्रकार उनके पक्ष को भी प्रस्तुत करने के माध्यम होते हैं।
अब तक देखा जाये तो हजारों पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये हैं। जिनमे से कई पत्रकारों की निर्मम हत्या कर दी गई। कई ऐसे मामले भी हैं जिन्हें प्रकाश में ही नहीं आने दिया गया। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पत्रकारों की निर्मम हत्या के मामलें में अब तक न तो किसी हत्यारें को सजा ही मिली है और न ही किसी न्याय की गुंजाइश ही की जा सकती है। भारत में पत्रकारों को जोखिम का सामना केवल माओवाद प्रभावित या कश्मीर के अशांत क्षेत्रों में युद्ध या हिंसक टकराव के दौरान ही नहीं करना पड़ता। दूसरे सामान्य दिखते शहरों और दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में भी भ्रष्ट या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों के भी शिकार होना पड़ता है, उनके बारे में खबरें निकालने वाले या फिर साहस के साथ सच लिखने वाले पत्रकारों को भी कभी सीधे हमलें में तो कभी हादसे की शक्ल में मार डाला गया है। मुश्किल यह है कि कई बार खुद पुलिस और सत्ता प्रतिष्ठानों की ओर से पत्रकारों को निशाने पर रखा जाता है। पत्रकारों को राजनीतिक हिंसा का भी बार-बार शिकार होना पड़ता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि एक पत्रकार की जिम्मेदारी सच को सामने लाना है। अगर धमकी, हत्या या अन्य किसी भी रास्ते से उसे बाधित करने की कोशिश होगी, तो उसका असर एक व्यक्ति के खामोश होने या जान से जाने के रूप में ही नहीं, बल्कि सच की मौत की शक्ल में सामने आएगा, और यह लोकतंत्र को कमजोर करने की घटना ही मानी जायेगी। बिहार के सिवान में दैनिक हिंदुस्तान के ब्यूरो प्रमुख राजदेव रंजन की हत्या हो या कट्टर हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ एक मुखर और मजबूत आवाज बने पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या क्यों न हो, सीरिया के बाद दुनिया भर में भारत ही ऐसा देश है जहां पत्रकारों को सबसे अधिक खतरों का सामना करना पडता है, और इसी देश में सबसे अधिक हत्याएं होती हैं। अनेक पत्रकारों की जुबान को भ्रष्टाचार और अन्याय के विरूद्ध् लड़ते वक्त हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दी गई।
बीते साल में कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स ने 42 पन्नों की एक रिपोर्ट पेश कर यह खुलासा किया था कि भारत में रिपोर्टरों, पत्रकारों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा अभी भी नहीं मिल पाती है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि 1992 के बाद से भारत में 27 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जब पत्रकारों का उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया। लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी है। एक निजी टीवी चैनल के रिपोर्टर अक्षय सिंह मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले की जांच कर रहे थे। मेडिकल कॉलेज दाखिलों में कथित धांधलियों और फर्जी डिग्री वाले इस घोटाले में कई बड़े नेता और अफसरों के खिलाफ सीबीआई जांच कर रही थी। अक्षय और उनकी टीम मध्य प्रदेश में एक ऐसे व्यक्ति का इंटरव्यू कर लौट रहे थे जिसकी बेटी की संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हुई थी। इसी रिपोर्ट के बाद उन्हें मार दिया गया। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में स्थानीय पत्रकार जागेंद्र सिंह की मृत्यु अभी तक पहेली बनी हुई है। उन्होंने प्रदेश के एक मंत्री के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी। छत्तीसगढ़ में रायपुर में मेडिकल की लापरवाही के कुछ मामलों की खबर जुटाने में लगे उमेश राजपूत को उस समय मार दिया गया जब वो अपने काम को अंजाम दे रहे थे।
जम्मू कश्मीर पिछले 30 सालों से आतंकवाद की चपेट में है। इस दौरान यहां समाज और सरकार की सारी संस्थाएं आतंकवाद की ज्वाला में झुलस कर अपना तेज खो चुकी हैं। मगर प्रजातंत्र का चैथा स्तम्भ कहलाने वाली प्रेस इस बीहड़ समय में भी न केवल अपना अस्तित्व बचाए हुए है, बल्कि सारे खतरे उठाते हुए अपने दायित्व का भी पूरी तरह से निर्वाह कर रही है। लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि आज कश्मीर प्रेस की स्थिति कुएं और खाई के बीच वाली है और कश्मीर के पत्रकारों के लिए जिन्दगी के मायने हैं दोधारी तलवार पर चलना। वहां के प्रमुख दैनिक के संपादक की गोली मार कर की गई हत्या इसका पुख्ता सबूत है। आतंकवादियों ने प्रेस के विरूद्ध छेड़ी गई अपनी मुहिम के अंतर्गत समाचारपत्रों के कार्यालयों को आग लगाने के अतिरिक्त पत्रकारों का अपहरण करना, उन्हें पीटना तथा धमकियां देने की कायरतापूर्ण हरकतें भी की हैं। यहां तक कि पिछले कई सालों से मानवाधिकार के मुद्दे पर भारत ने पाकिस्तान को जो करारी शिकस्त दी, उसके पीछे भी जम्मू कश्मीर के पत्रकारों के लेखन एवं खोजपूर्ण खबरों का बहुत बड़ा हाथ है। हालांकि आतंकवादियों ने इन पत्रकारों की कलम को रोकने की भरपूर कोशिश की थी। यह भी कड़वी सच्चाई है कि अपनी पेशेगत जिम्मेदारियों को निबाहने वाले यहां के पत्रकार बहुत ही विकट परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं। एक तरफ उन पाक समर्थित आतंकवादियों की बंदूकें तनी हुई हैं, तो दूसरी ओर राज्य सरकार उन्हें सूचना के अधिकार से वंचित रखने से लेकर उन पर डंडे बरसाने, गिरफ्तार करने और उनका हर तरह से दमन करने की कोशिशों में लगी रहती है।
चुनौतीपूर्ण विपरीत परिस्थितियों में कार्य कर रहे पत्रकार इस दुविधा में हैं कि वे किस प्रकार स्वतंत्र रूप से निष्पक्ष एवं तटस्थ पत्रकारिता को अंजाम दें क्योंकि परिस्थितियां ऐसी हैं कि निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से कार्य कर पाना कठिन होता जा रहा है। देश में आतंकवादियों, माओवादियों, नक्सलियों, अपराधियों एवं राजनीतिक गुंडाओं के चक्रव्यूह का शिकंजा दिन-प्रतिदिन कसता जा रहा है जिससे बाहर निकलने का रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। ऐसी विकट एवं विपरीत स्थितियों में पत्रकार का जीवन खतरे में हैं। पत्रकारों की सुरक्षा के लिये सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे, अन्यथा झंझावतों के बीच पत्रकार अपने प्रयासों के दीप कैसे जलायेंगे? राष्ट्र की एकता एवं सुदृढ़ता को पत्रकारों ने निरन्तर अपनी कलम के पैनेपन से संवारा है, पसीना दिया है, बलिदान दिया है, उनको सुरक्षा की छांव देना सरकार की प्राथमिकता होनी ही चाहिए। यह कटु सत्य है कि पत्रकार ही समाज एवं राष्ट्र को दिशा देते हैं, उनके इस काम को बाधिक करने का अर्थ है राष्ट्र के विकास को बाधित करना।
(ललित गर्ग)
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