इक्कीसवीं सदी का सफर करते हुए तमाम तरह के विकास के वायदें तब खोखले साबित हो रहे हैं जब हम अपने बचपन को उपेक्षित होते एवं कई तरह के खतरों से जूझते देखते हैं। निश्चित रूप से यह चिंताजनक है और हमारी विकास-नीतियों पर सवाल भी उठाती है। बड़ा सवाल तो तब खड़ा हुआ जब सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़ों के मुताबिक 2016 में ही देश भर में करीब एक लाख बच्चे यौन अपराधों के शिकार हुए। समाज के सभ्य होने की उम्मीद तभी संभव है जब अपने बीच के उन तबकों के जीवन की स्थितियां सहज और सुरक्षित हो, जो कई वजहों से जोखिम या असुरक्षा के बीच जीते हैं। लेकिन बच्चों का उजड़ता, उपेक्षित होता, शोषित होता जीवन अनेक सवाल खड़े कर रहा है, जिनका समाधान वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है।
बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध लंबे समय से सामाजिक चिंता का विषय रहे हैं। लेकिन तमाम अध्ययनों में इन अपराधों का ग्राफ बढ़ने के बावजूद इस दिशा में शायद कुछ ऐसा नहीं किया जा सका है, जिससे हालात में सुधार हो। इन जटिल एवं संकटग्रस्त होती स्थितियों का समाधान न होना, सरकार की असफलता को भी उजागर करता है। भले ही सरकार की ओर से इस मुद्दे पर अनेक बार चिंता जताई गई, समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम उठाने के दावे किए गए। मगर इस दौरान आपराधिक घटनाओं के शिकार होने वाले मासूमों की संख्या में कमी आने के बजाय और बढ़ोतरी ही होती गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में बच्चों के प्रति अपराध के मामलों में ग्यारह फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इनमें भी कुल अपराधों के आधे से ज्यादा सिर्फ पांच बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में हुए। सबसे ज्यादा मामले अपहरण और उसके बाद बलात्कार के पाए गए। बच्चों के खिलाफ अपराधों में यौन शोषण एक ऐसा जटिल पहलू है, जिसमें ज्यादातर अपराधी पीड़ित बच्चे के संबंधी या परिचित ही होते हैं।
यह बचपन रूपी भविष्य न केवल यौन शोषण एवं अपराधों का शिकार है बल्कि आज वह नशे एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्या कारण है कि बचपन अपराध की अंधी गलियों में जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? ये प्रश्न हमें झकझोर रहे हैं।
जब हम किसी गली, चैराहे, बाजार, सड़क और हाईवे से गुजरते हैं और किसी दुकान, कारखाने, रैस्टोरैंट या ढाबे पर 4-5 से लेकर 12-14 साल के बच्चे को टायर में हवा भरते, पंक्चर लगाते, चिमनी में मुंह से या नली में हवा फूंकते, जूठे बर्तन साफ करते या खाना परोसते देखते हैं और जरा-सी भी कमी होने पर उसके मालिक से लेकर ग्राहक द्वारा गाली देने से लेकर, धकियाने, मारने-पीटने और दुव्र्यवहार होते देखते हैं तो अक्सर ‘हमें क्या लेना है’ या ज्यादा से ज्यादा मालिक से दबे शब्दों में उस मासूम पर थोड़ा रहम करने के लिए कहकर अपने रास्ते हो लेते हैं। लेकिन कब तक हम बचपन को इस तरह प्रताड़ित एवं उपेक्षा का शिकार होने देंगे।
बच्चे पहले ही आपराधिक मानसिकता के लोगों के निशाने पर ज्यादा होते हैं। फिर व्यवस्थागत कमियों का फायदा भी अपराधी उठाते हैं। विडंबना यह है कि चार से पंद्रह साल उम्र के जो मासूम बच्चे अभी तक समाज और दुनिया को ठीक से नहीं समझ पाते, वे आमतौर पर मानव तस्करों के जाल में फंस जाते हैं। इनमें भी लड़कियां ज्यादा जोखिम में होती हैं। एक आंकड़े के मुताबिक गायब होने वाले बच्चों में सत्तर फीसद से ज्यादा लड़कियां होती हैं। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि बच्चों को मानव तस्करी का शिकार बनाने वाले गिरोह छोटी बच्चियों को देह व्यापार की आग में धकेल देते हैं। घरेलू नौकरों से लेकर बाल मजदूरी के ठिकानों पर बेच दिए जाने के अलावा यह लड़कियों के लिए दोहरी त्रासदी का जाल होता है। इन अपराधों की दुनिया और उसके संचालकों की गतिविधियां कोई दबी-ढकी नहीं रही हैं। लेकिन सवाल है कि हमारे देश में नागरिकों की सुरक्षा में लगा व्यापक तंत्र अबोध बच्चों को अपराधियों के जाल से क्यों नहीं बचा पाता! आपराधिक मानसिकता वालों के चंगुल में फंसने से इतर मासूम बच्चों के लिए आसपास के इलाकों के साथ उनका अपना घर भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं होता। जाहिर है, बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों के कई पहलू हैं, जिनसे निपटने के लिए कानूनी सख्ती के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता के लिए भी अभियान चलाने की जरूरत है। अक्सर हम देश के विकास को आंकड़ों की चकाचैंध से आंकते हैं। लेकिन अगर चमकती तस्वीर के पर्दे के पीछे अंधेरे में अपराध के शिकार बच्चे कराह रहे हों, तो उस विकास की बुनियाद मजबूत नहीं हो सकती!
किसी भी राष्ट्र का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के मनुष्यों पर उतना अवलम्बित नहीं है जितना कि आने वाली कल की नई पीढ़ी पर। अर्थात् आज का बालक ही कल के समाज का सृजनहार बनेगा। बालक का नैतिक रूझान व अभिरूचि जैसी होगी निश्चित तौर पर भावी समाज भी वैसा ही बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि बालक नैतिक रूप से जिसे सही समझेगा, आने वाले कल के समाज में उन्हीं गुणों की भरमार का होना लाजिमी है। ऐसी स्थितियों में हम बचपन को शिक्षा की ओर अग्रसर न करके उनसे बंधुआ मजदूरी कराते हैं, उनका यौन शोषण करते हैं, उन्हें अपराध की अंधी गलियों में धकेलते हैं, इन स्थितियों का उन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, और इन कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं?
बचपन को लेकर सरकार और समाज का नजरिया कितना विडम्बनापूर्ण है, इसे हमें समझना होगा। पारिवारिक काम के नाम पर अब बचपन की जरूरतों को दरकिनार कर संशोधित कानून के अनुसार खुलेआम बच्चों से काम कराया जा सकता है। कुछ बच्चे अपनी मजबूरी से काम करते हैं तो कुछ बच्चों से जबरन काम कराया जाता है। यदि गौर करें तो हम पाएंगे कि किसी भी माता-पिता का सपना अपने बच्चों से काम कराना नहीं होता। हालात और परिस्थितियां उन्हें अपने बच्चों से काम कराने को मजबूर कर देती हैं। पर क्या इसी आधार पर उनसे उनका बचपन छीनना और पढने-लिखने की उम्र को काम की भट्टी में झोंक देना उचित है? ऐसे बच्चे अपनी उम्र और समझ से कहीं अधिक जोखिम भरे काम करने लगते हैं। वहीं कुछ बच्चे ऐसी जगह काम करते हैं जो उनके लिए असुरक्षित और खतरनाक होती है जैसे कि माचिस और पटाखे की फैक्टरियां जहां इन बच्चों से जबरन काम कराया जाता है। इतना ही नहीं, लगभग 1.2 लाख बच्चों की तस्करी कर उन्हें काम करने के लिए दूसरे शहरों में भेजा जाता है।
इतना ही नहीं, हम अपने स्वार्थ एवं आर्थिक प्रलोभन में इन बच्चों से या तो भीख मंगवाते हैं या वेश्यावृत्ति में लगा देते हैं। देश में सबसे ज्यादा खराब स्थिति है बंधुआ मजदूरों की जो आज भी परिवार की समस्याओं की भेंट चढ़ रहे हैं। चंद रुपयों की उधारी और जीवनभर की गुलामी बच्चों के नसीब में आ जाती है। महज लिंग भेद के कारण कम पढ़े-लिखे और यहां तक कि शहरों में भी लड़कियों से कम उम्र में ही काम कराना शुरू कर दिया जाता है या घरों में काम करने वाली महिलाएं अपनी बेटियों को अपनी मदद के लिए साथ ले जाना शुरू कर देती हैं। कम उम्र में काम करने वाले बच्चे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रूप से कमजोर होते हैं। साथ ही उनकी सेहत पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। उनसे न केवल मजदूरी करायी जाती है बल्कि उनका यौन शोषण भी किया जाता है। इन त्रासद स्थितियों में उनका शारीरिक विकास समय से पहले होने लगता है जिससे उन्हें कई बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इन बच्चों को न पारिवारिक सुरक्षा दी जाती है और न ही सामाजिक सुरक्षा। बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता क्योंकि जो बच्चे काम करते हैं वे पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर हो जाते हैं और जब ये बच्चे शिक्षा ही नहीं लेंगे तो देश की बागडोर क्या खाक संभालेंगे? इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। महान विचारक कोलरिज के ये शब्द-‘पीड़ा भरा होगा यह विश्व बच्चों के बिना और कितना अमानवीय होगा यह वृद्धों के बिना?’
वर्तमान संदर्भ में आधुनिक पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन शैली पर यह एक ऐसी टिप्पणी है जिसमें बचपन की उपेक्षा को एक अभिशाप के रूप में चित्रित किया गया है। सच्चाई यह है कि देश में बाल अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे अपराधी न बने इसके लिए आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाये। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। श्रेष्ठ संस्कार बच्चों के व्यक्तित्व को नई पहचान देने में सक्षम होते हैं। अतः शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही होनी चाहिए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिये योजनाएं बनानी चाहिए। ताकि इस बिगड़ते बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।
प्रेषक (ललित गर्ग)
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