पैगम्बरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और सं० १९२० से उन्होंने अनेक नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरम्भ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूर तक प्रचलित साधु हिन्दी भाषा में ही होते थे। स्वामीजी ने अपना सत्यार्थप्रकाश तो हिन्दी ‘आर्यभाषा’ में प्रकाशित किया ही, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिन्दी दोनों में किये। स्वामीजी के अनुयायी हिन्दी को आर्यभाषा कहते थे।
स्वामीजी ने सं० १९३२ में आर्यसमाज की स्थापना की और आर्यसमाजियों के लिए हिन्दी या आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया। युक्तप्रान्त के पश्चिमी जिलों और पंजाब में आर्यसमाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। पंजाबी भाषा में लिखित साहित्य न होने और मुसलमानों के बहुत अधिक सम्पर्क से पंजाब वालों की लिखने पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। आज पंजाब में हिन्दी की पूरी चर्चा सुनाई देती है, वह इन्हीं की बदौलत है। (हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ० ४४५)
आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल (१८८४-१९४०)
(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- हिन्दी समीक्षा को नवीन रूप देने वाले आचार्य शुक्ल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे। वे अपने मनोवैज्ञानिक निबंधों तथा सूर, तुलसी एवं जायसी पर लिखी समीक्षाओं के कारण विशेष ख्याति अर्जित कर सके। रसवादी समीक्षा शैली के प्रवर्तक।)
जनता के लाभ की दृष्टि से मातृभाषा गुजराती होने पर भी इस दूरदर्शी और विद्वान् संन्यासी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का ही प्रचार किया। अपने ग्रन्थ भी हिन्दी में ही लिखे। हिन्दी की उन्नति और प्रचार, आर्यसमाज का जिसके वे प्रवर्तक थे, एक विशेष लक्ष्य बना। अकेले इन स्वामीजी ने हिन्दी का जितना उपकार किया है, हमारा अनुमान है कि अनेक सुसंगठित संस्थाओं ने मिलकर भी अब तक नहीं किया है। (हिन्दी भाषासार पृ ६२)
पं. रामदास गौड़ (१८८१-१९३७)
(पं. रामदास गौड़- हिन्दी में वैज्ञानिक साहित्य का सूत्रपात करने वाले पं. रामदास गौड़ द्विवेदी काल के प्रसिद्ध लेखक थे।)
वैष्णव कुल का होने पर भी मैं स्वामी दयानन्द को अपने देश का महापुरुष मानता हूं। उनके लिए मेरे मन में श्रद्धा है। कौन उनके महान् कार्य को स्वीकार न करेगा?
जो आज वेद ध्वनि गूंजती है।
कृपा उन्हीं की यह कूजती है। (५ मार्च १९५९ को पं. नरदेव शास्त्री को लिखा पत्र)
मैथिलीशरण गुप्त (१८८६-१९६४)
जैसे राजनीति के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले तिलक में प्रत्यक्ष हुआ वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र में भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द ने निखारा। जो बात राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन और रानाडे आदि के ध्यान में नहीं आई, उसे लेकर ऋषि दयानन्द और उनके शिष्य आगे बढ़े और घोषणा की कि कोई भी हिन्दू (आर्य) धर्म में प्रवेश कर सकता है। हमारा गौरव सबसे प्राचीन और सबसे महान् है- यह जागृत हिन्दुत्व का महासमरनाद था। रागरूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा और कोई भी नहीं। दयानन्द के समकालीन अन्य सुधारक केवल सुधारक थे किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आगे बढ़े। वे हिन्दू धर्म के रक्षक होने के साथ ही विश्वमानवता के नेता भी थे। (संस्कृति के चार अध्याय)
रीति काल के ठीक बाद वाले काल में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी, वह स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी विचार था। इस युग के कवियों को श्रृंगाररस की कविता लिखते समय यह प्रतीत होता था जैसे स्वामी दयानन्द पास ही खड़े सब कुछ देख रहे हैं। (काव्य की भूमिका पृ० २७,३२)
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर (१९०८-१९७४)
(डॉ. रामधारी सिंह दिनकर- हिन्दी के राष्ट्रीय भावधारा के कवियों में प्रमुख दिनकर अपने ग्रन्थ संस्कृति के चार अध्याय के कारण एक गम्भीर इतिहासकार तथा सांस्कृतिक चिन्तक के रूप में पहचाने गये।)
(डॉ० हरिवंशराय बच्चन- हालाबाद के प्रवर्तक कवि बच्चन अपने किशोर और युवाकाल में इलाहाबाद की आर्य कुमार सभा के सदस्य रहे। पद्य और गद्य में समान रूप से उत्कृष्ट लेखन के लिए विख्यात डॉ० बच्चन प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक भी रहे थे।)
मैं किसी समय आर्य कुमार सभा तथा आर्य समाज का सदस्य था। मेरे स्वतन्त्र चिन्तन पर दयानन्द का प्रभाव है। मैं ऋषि दयानन्द को एक महामानव तथा वेदों का उद्धारक मानता हूं। (आत्मकथा- क्या भूलूं क्या याद करूं)
डॉ. हरिवंशराय बच्चन (१९०७)
डॉ. श्रीकृष्णलाल
(डॉ० श्री कृष्णलाल- हिन्दी के आधुनिक समीक्षकों तथा साहित्य के इतिहासकारों में प्रमुख डॉ० लाल ने आधुनिक हिन्दी साहित्य का विशद इतिहास लिखा है।)
आर्यसमाज अवतारवाद के विरुद्ध झण्डा उठाये हुए था। इसका फल साहित्य पर भी पड़ा। अयोध्यायसिंह उपाध्याय और रामचरित उपाध्याय ने राम, कृष्ण को यथासम्भव मानवचरित्र के रूप में चित्रित किया। (आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास {१९२५-१९५०} पृ० ४६)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (१८५०-१८८५)
(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र- आधुनिक हिन्दी साहित्य के निर्माता। अग्रवाल वैश्यकुलोत्पन्न बाबू हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में नाटक, निबन्ध, पत्रकारिता, समालोचना आदि विधाओं को आरम्भ किया। आस्था से पुष्टिमार्गीय वैष्णव होने पर भी वे स्वामी दयानन्द की देश भक्ति तथा समाज सुधार की भावना के प्रशंसक थे।)
इन दोनों (स्वामी दयानन्द और केशवचन्द्र सेन) पुरुषों ने प्रभु की मंगलमयी सृष्टि का कुछ भी विघ्न नहीं किया, वरंच उसमें सुख और सम्पत्ति अधिक हो, इसी में परिश्रम किया। जिस चण्डाल रूपी आग्रह और कुरीति के कारण मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक न पाकर लाखों स्त्री कुमार्गमागिनी हो जाती हैं, लाखों विवाह होने पर भी जन्म भर सुख भोगने नहीं पातीं, लाखों गर्भनाश होते और लाखों बाल हत्या होती हैं, उस पापमयी नृशंस रीति को उठा देने में इन लोगों (दयानन्द और केशव) ने अपने शक्य भर परिश्रम किया। जन्मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्त्री पुरुष जियें एक तीर घाट एक मीर घाट रहें, बीच में वैमनस्य और असन्तोष के कारण स्त्री व्यभिचारिणी, पुरुष विषयी हो जायें, परस्पर नित्य कलह हो, शान्ति स्वप्न में भी न मिलें, वंश न चले, यह उपद्रव इन लोगों से नहीं सहे गये। विधवा गर्भ गिरावें, पण्डितजी या बाबू साहब यह सह लेंगे, वरंच चुपचाप उपाय भी करा देंगे, पाप को नित्य छिपावेंगे, अन्ततोगत्वा (स्वधर्म से) से निकल ही जायें तो सन्तोष करेंगे, पर विधवा का विधिपूर्वक विवाह न हो। फूटी सहेंगे, आंजी न सहेंगे। इस दोष को इन दोनों ने निस्सन्देह दूर करना चाहा।
सवर्ण पात्र न मिलने से कन्या को वर मूर्ख, अंधा, वरंच नपुंसक तथा वर को काली, कुरूपा, कर्कशा कन्या मिले, जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हों, इस दुराग्रह को इन लोगों (दयानन्द और केशव) ने दूर किया। चाहे पढ़े हों, या चाहे मूर्ख, सुपात्र हों कि कुपात्र, चाहे प्रत्यक्ष व्यभिचार करें या कोई भी बुरा कर्म करें, पर गुरुजी जो हैं, पण्डितजी जो हैं, इनका दोष मत कहो। कहोगे तो पतित होगे। इनको दो, इनको राजी रक्खो, इस सत्यानाश संस्कार को इन्होंने (दयानन्द और केशव) दूर किया। आर्य जाति का दिन प्रति दिन ह्रास हो, लोग स्त्री के कारण, धन के या नौकरी व्यापार आदि के लोभ से, मद्य पान के चस्के से, वाद (मुकद्दमा) में हारकर, राजकीय विद्या का अभ्यास करके मुसलमान या क्रिस्तान हो जायें, आमदनी एक मनुष्य की भी बाहर से न हो केवल नित्य व्यय हो, अन्त में आर्यों का धर्म और जाति की कथा शेष रह जाय, किन्तु जो बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर जाति में कैसे आवेगा। कोई दुष्कर्म किया तो छिप के क्यों नहीं किया, इसी अपराध पर हजारों मनुष्य आर्य जाति पंक्ति से हर साल छूटते थे, उनको इन्होंने (दयानन्द और केशव) रोका। सबसे बढ़कर इन्होंने यह कार्य किया- सारा आर्यावर्त जो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता बेचारे तो दूर रहे, भूत, प्रेत, पिशाच, मुर्दे, सांप के काटे, बाघ के मारे, आत्महत्या करे, मरे, जल, दब या डूब कर मरे लोग, यही नहीं, मुसलमानी पीर, पैगम्बर, औलिया, शहीद, ताजिया, गाजी मियां, जिन्होंने बड़ी मूर्ति तोड़कर और तीर्थ पार कर आर्य धर्म विध्वंसन किया, उनको मानने और पूजने लग गये थे। विश्वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था, देखते सुनते लज्जा आती थी कि हाय ये कैसे आर्य हैं, किससे उत्पन्न हैं। इस दुराचार की ओर से लोगों को अपनी वक्तृताओं के थपेड़े के बल से मुंह फेर कर सारे आर्यावर्त को शुद्ध, लायक कर दिया।
(स्वर्ग में विचारसभा का अधिवेशन- मित्र विलास लाहौर के १८ जून १८८५ के अंक में प्रकाशन, पुनः भारतेन्दु ग्रन्थावली खण्ड ३ में संगृहीत)
हिन्दी काव्य स्वामी दयानन्द के व्यापक प्रभाव से बच नहीं सका। भारतेन्दु युग की कविता में समाज सुधार की भावना स्पष्ट मिलती है और सभी कवियों में यह प्रवृत्ति पूर्णतया लक्षित होती है। क्या कट्टरपंथी, क्या सुधारवादी और क्या आर्यसमाजी, समान रूप से समाज का कल्याण और सुधार चाहते हैं, भले ही इन लोगों में साधन के सम्बन्ध में मतभेद दिखाई दे।
स्वामीजी भारतीय जागरण तथा राष्ट्रोत्थान के वैतालिक थे। स्वामीजी ने हिन्दी काव्य को देशभक्ति का स्वर प्रदान किया। स्वामीजी के सिद्धान्तों तथा आर्यसमाज के प्रचार हेतु आर्य समाज में विपुल भजन-साहित्य लिखा गया। इन भजनीकों में चौधरी नवलसिंह और उनकी लावनियों का प्रमुख स्थान है। भजनीकों का हिन्दी काव्य पर प्रभाव पड़ा। भजन साहित्य में कुरीतियों का चित्रण मिलता है। बाल विवाह निषेध, नारी जागरण, अंध विश्वास खण्डन, शुद्धि और जन जागृति के तत्त्व बिखरे पड़े हैं जिनका जनता पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा। (हिन्दी काव्यधारा)
स्त्रोत : “महर्षि दयानन्द: हिन्दी साहित्यकारों की दृष्टि में” (पृ. 33)
डॉ. केसरीनारायण शुक्ल
(डॉ. केसरीनारायण शुक्ल- हिन्दी के प्रसिद्ध समीक्षक तथा हिन्दी-काव्य धारा नामक शोधकृति के लेखक।)
इस ग्रंथ का संपादन डॉ. भवानीलाल भारतीय ने किया है।)
[ डॉ. भारतीय जी द्वारा संपादित इस ग्रंथ में हिन्दी के कतिपय कवियों, लेखकों तथा साहित्यकारों के ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज विषयक भावों, विचारों और उद्गारों का संकलन किया गया है. आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपरोक्त उद्गार “आर्य मित्र” के दयानन्द जन्म-शताब्दी अंक से लिये गये हैं]
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