भारतीय साहित्य में यह ‘अवधू’ शब्द कई संप्रदायों के सिद्ध आचार्यों के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। साधारणत: जागातिक द्वंद्वों से अतीत, मान- अपमान-विवर्जित, पहुँचे हुए योगी को अवधूत कहा जाता है। यह शब्द मुख्यतया तांत्रिकों, सहज यानियों और योगियों का है। सहजयान और वज्रयान नामक बौद्ध तांत्रिक मतों में ‘अवधूती वृत्ति’ नामक एक विशेष प्रकार की यौगिक वृत्ति का उल्लेख मिलता है।
मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ को अवधू. कह कर संबोधित करते थे । नाथ संप्रदाय को ‘अवधू संप्रदाय’ आचार्यगण सहजवस्था की बात करते हैं। सहजावस्था को प्राप्त करने पर ही साधक अवधूत होता है।
निर्गुण भक्ति में साधक कवियों द्वारा बार बार अवधू या अवधूत शब्दों का प्रयोग भजन गायन में देखने को मिलता है। निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवियों में कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी आदि रहे। नाथ पंथी
गोरखनाथ इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं।
अवधू शब्द का प्रयोग संन्यास आश्रम में रहने वाला तथा उसके नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति होता है।
कबीरदास ने प्रायः अपने पदों में अवधू संबोधन का प्रयोग किया है। यहाँ ‘अवधू’ शब्द का प्रयोग नाथपंथियों के अनुगामी साधक नहीं, अपितु प्रतिपक्षी, प्रतिद्वंद्वी के लिए प्रयुक्त किया है, जिसको वे उद्बोधन के लिए चुनौती -सी देते दिखाई देते हैं ।
अवधू शब्द का अर्थ है ‘वधू जाके न होई, सो अवधू कहावे।’ जिसको दूसरे की जरूरत न रही; वधू यानी दूसरा। किसी को पत्नी की जरूरत है; किसी को मकान की जरूरत है; किसी को दूकान की जरूरत है; किसी को मित्र की जरूरत है; किसी को बेटे की, बेटी की; कोई न कोई जरूरत है। किसी को धन की, किसी को पद की। जब तक दूसरे की जरूरत है, तब तक तुम अवधू नहीं। जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत न रही; जो अकेला काफी है; जो अपने में पूरा है; ऐसा सब छोड़ कर जो चला गया; संसार से बिलकुल विरक्त हो गया, परिपूर्ण हो गया ,संसार से पीठ मोड़ ली, वह अवधू या अवधूत होता है । इस अनोखे शब्द अवधूत का अर्थ होता है – जिसने सब कुछ छोड़ा। जो त्यागी हो गया– परमहंस– जिसने क्रमशः घर-द्वार छोड़ा, गहराई से देखा जाए तो वर्ण-व्यवस्था छोड़ी, समाज छोड़ा, सभ्यता छोड़ी–इतना ही नहीं अंत मे सम्पूर्ण रूप से संन्यास भी जिसने छोड़ा। अवधूत एक परम उत्कृष्ट अवस्था होता है।
भारत का चमत्कारिक शब्द:-
संपूर्ण विश्व में एक अद्वितीय शब्द, भारत में निर्मित हुआ जिसका नाम “अवधूत” है। यह अवधूत एक ऐसा शब्द है जो बड़ा कीमती है और जिसका आशय उससे भी ज्यादा कीमती है क्योंकि यह अवस्था, दुर्लभ अवस्था होती है। ऐसे व्यक्ति को संभालना वर्तमान के हिसाब से थोड़ा तो कठिन है, क्योंकि यह समाज से बिल्कुल हटके होते हैं,लेकिन कुछ सम्प्रदाय में यह अवधूत का आशय हट के प्रतीत होता है। इनको सुरक्षा देना इनके अनुरूप वातावरण तैयार करना काफी हद तक सरल होता है ।
अवधुत शब्द की व्युत्पत्ति:-
विद्वानों ने अवधुत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई है– अ+वधू यानी जिसकी वधू न हो अर्थात अकेला, सांसारिक बंधनो से मुक्त । भाव ग्रहण करने के स्तर पर तो यह व्युत्पत्ति आनंदित कर सकती है मगर यह सही नहीं है।अवधूत बना है संस्कृत के धूत शब्द में अव उपसर्ग लगने से । अव + धूत = अवधूत। अव उपसर्ग का मतलब होता है दूर, परे, फासले पर ,नीचे,अवतल। धूत शब्द भी मूलतः धू धातु से बना है जिसका अर्थ है- झकझोरना, हिलाना, अपने ऊपर से उतार फेंकना, हटाना आदि। इससे बने धूत शब्द में हटाया हुआ, भड़काया हुआ, फटकारा हुआ, तिरस्कृत, परित्यक्त, पापमुक्त जैसे भाव उजागर होते हैं। इस तरह देखें तो अवधूत का मतलब निकलता है वह सन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषय वासनाओं का त्याग कर दिया है। सभी प्रकार से मुक्त, धूत अर्थात परिष्कृत ।व्यक्ति पहले गृहस्थ होता है,फिर ग्रहस्थ से संन्यस्त बनता है,और एक दिन ऐंसा भी घटित होता है कि फिर संन्यस्त के भी पार हो जाता है। जीवात्मा के उत्कृष्टता की परम अवस्था ही अवधूत अवस्था होता है।
“अवधू” बड़ा ही गहरा शब्द है । इसका अर्थ है:-“वधू जाके न होई,अवधू कहावे सोई ।” अब जिसको दूसरे की जरूरत न रहे वह अवधू । वधू से मतलब होता है दूसरा। जीवन मे किसी को पत्नी की जरूरत है, किसी को मकान की जरूरत है,किसी को दूकान की जरूरत है, किसी को मित्र की जरूरत है,किसी को बेटे की, बेटी की, कोई न कोई जरूरत बनी ही रहती है। इतना ही काफी नहीं किसी को धन की, किसी को पद की,किसी को प्रतिष्ठा की भी जरूरत भी होती है। जब तक दूसरे की जरूरत है,तब तक आप अवधू नहीं हैं। अब जो ‘पर’ से मुक्त हो गया, जिसको दूसरे की जरूरत बिल्कुल भी न रही, जो अकेला ही काफी है,जो अपने में ही पूरा है । ऐसा सब छोड़ कर जो चला गया। संसार से बिलकुल विरक्त हो गया, परिपूर्ण हो गया और पीठ मोड़ ली, वह है- अवधू= मतलब अवधूत बन गया।
कबीर दास जी कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है; और वह दशा है–जल में कमलवत रहना। संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है। अवधूत के प्रति उनका सम्मान है। वे कहते हैंः कुछ तो किया; कुछ तो अपने को बदला; ‘पर’ से मुक्त हुआ। संसार से मुक्त हुआ। लेकिन कबीर कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात हैः संसार में मुक्त होना। वह कबीर की संसार और परमात्मा के बीच संधि है; संसार और परमात्मा के बीच समन्वय है। संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है।यही मेरे संन्यास की धारणा भी है। तुम जहां हो, वहीं; जैसे हो वैसे ही; ठीक उसी दशा में तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाए। क्योंकि रूपांतरण मनःस्थिति का है परिस्थिति का नहीं।
अवधूतों के चार प्रकार :-
तंत्र-ग्रंथों में चार प्रकार के अवधूतों की चर्चा है- ब्रह्मावधूत, शैवावधूत, भक्तावधूत और हंसावधूत। हंसावधूतों में जो पूर्ण होते हैं वे परमहंस और जो अपूर्ण होते हैं वे परिव्राजक कहलाते हैं (‘प्राण्तोषिणी’)। परंतु कबीरदास ने न तो इतने तरह के अवधूतों की कहीं कोई चर्चा ही की है और न ऊपर ‘निर्वाण-तंत्र’ के बताए हुए अवधूत से उनके अवधूत की कोई समता ही दिखाई है। ‘हंसा’ की बात कबीरदास कहते ज़रूर हैं पर वे हंस और अवधूत को शायद ही कहीं एक समझते हों। वे बराबर हंस या पक्षी शुद्ध और मुक्त जीवात्मा को ही कहते हैं। इसी भाव को बताने के लिए भर्तृहरि ने कहा है कि इस अवधूत मुनि की बाह्य क्रियाएँ प्रशमित हो गई हैं। वह न दु:ख समझता है, न सुख को सुख। वह कहीं भूमि पर सो सकता है कहीं पलंग पर, कहीं कंथा धारण कर लेता है कहीं दिव्य वसन, कहीं मधुर भोजन पाने पर उसे भी पा लेता है। ‘किंतु कबीरदास इस प्रकार योग में भोग को पंसद नहीं करते। यद्यपि इन योगियों के संप्रदाय के सिद्धों को ही कबीर अवधूत कहते हैं तथापि वे साधारण योगी अवधूत के फ़र्क़ को बराबर याद रखते हैं। साधारण योगी के प्रति उनके मन में वैसा आदर का भाव नहीं है जैसा अवधूत के बारे में है। कभी-कभी उन्होंने स्पष्ट भाषा में योगी को और अवधूत को भिन्न रूप से याद किया है। इस प्रकार कबीरदास का अवधूत नाथपंथी सिद्ध योगी है।
अक्खड़ता कबीरदास का सर्वप्रधान गुण नहीं हैं । जब वे अवधूत या योगी को संबोधन करते हैं तभी उनकी अक्खड़ता पूरे चढ़ाव पर होती है । वे योग के बिकट रूपों का अवतरण करते हैं गगन और पवन की पहेली बुझाते रहते हैं, सुन्न और सहज का रहस्य पूछते रहते हैं, द्वैत और अद्वैत के सत्त्व की चर्चा करते रहते हैं-
अवधू, अच्छरहूँ सों न्यारा ।
जो तुम पवना गगन चढ़ाओ, गुफा में बासा ।
गगना पवना दाेनों बिनसैं,कहँ गया जोग तुम्हारा ।
गगना-मद्धे जोती झलके, पानी मद्धे तारा ।
घटिगे नींर विनसिने तारा, निकरि गयौ केहि द्वारा ।
कबीर स्वभाव से फक्कड़ थे । अच्छा हो या बुरा, खरा हो या खोटा, जिससे एक बार चिपट गए उससे जिंदगी भर चिपटे रहो, यह सिद्धांत उन्हेें मान्य नहीं था । वे सत्य के जिज्ञासु थे और कोई माेह-ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी । वे अपना घर जलाकर हाथ में मुराड़ा लेकर निकल पड़े थे और उसी को साथी बनाने को तैयार थे जो उनके हाथों अपना भी घर जलवा सके –
हम घर जारा अपना, लिया मुराड़ा हाथ ।
अब घर जारों तासु का,जो चलै हमारे साथ।
कबीर मस्त-मौला भी:-
वे सिर से पैर तक मस्त-मौला थे । मस्त-जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कर्मों को सर्वस्व नहीं समझता और भविष्य में सब-कुछ झाड़-फटकार निकल जाता है । जो दुनियादार किए-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्त रखता है वह मस्त नहीं हो सकता । जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है वह भविष्य का क्रांतदर्शी नहीं बन सकता । जो मतवाला है वह दुनिया के माप-जोख से अपनी सफलता का हिसाब नहीं करता । कबीर जैसे फक्कड़ को दुनिया की होशियारी से क्या वास्ता ? ये प्रेम के मतवाले थे मगर अपने को उन दीवानों में नहीं गिनते थे जो माशूक के लिए सर पर कफन बाँधे फिरते हैं —
हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ।
जो बिछुड़ै हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते ।
हमारा यार है हम में, हमन को इंतजारी क्या।
कबीर की यह घर-फूँक मस्ती, फक्कड़ना, लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता उनके अखंड आत्मविश्वास का परिणाम थी । उन्होंने कभी अपने ज्ञान को, अपने गुरु को और अपनी साधना को संदेह की नजरों से नहीं देखा । अपने प्रति उनका विश्वास कहीं भी डिगा नहीं । कभी गलती महसूस हुई तो उन्होंने एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा कि इस गलती के कारण वे स्वयं हो सकते हैं । उनके मत से गलती बराबर प्रक्रिया में होती थी, मार्ग में होती थी, साधन में होती थी । उनका विश्वास ही इस प्रेम की कुंजी है। उनके विश्वास है जिसमें संकोच नहीं, द्विधा नहीं, बाधा नहीं है। वे कहते हैं–
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जिस रुचे, सिर दे सो ले जाय ।।
सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस ।
आगेथैं हरि मुलकिया, आवत देख्या दास ।।
युगावतारी शक्ति और विश्वास लेकर पैदा हुए थे और युगप्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी इसीलिए वे युग प्रवर्तन कर सके । एक वाक्य में उनके व्यक्तित्व को कहा जा सकता हैः वे बेपरवाह , दृढ़, उग्र, कुसुमादपि कोमल, वज्रादपि कठोर सिर से पैर तक मस्त-मौला सन्त थे।
अवधूत अवस्था को प्राप्त सन्यासी दोनो ही सम्प्रदाय से सम्बन्धित होते हैं -पहला शैव और दूसरा वैष्णव शैव अवधूत वे हैं जो कठोर साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। तथा भस्म को पूरे शरीर में लगाकर अधिकतर मौन,बिना कपड़ों के रहकर ही तपस्या रत होते हैं।इस सम्प्रदाय में विशेष रूप से विचित्र अवधूत के रूप में गुरु गोरखनाथ जी को जाना जाता है।
वैष्णव अवधूत वे हैं जो प्रमुख रूप से ग्रहस्थ रहकर सन्यस्त हो सकते हैं। जिनके मन की अवस्था कुछ ऐंसी है कि आप जहां हो, वहीं। जैसे हो वैसे ही । ठीक उसी दशा में आपके भीतर रूपांतरण हो जाए। रूपांतरण मनःस्थिति का है–परिस्थिति का नहीं। अर्थात सन्यासी और गृहस्थी एक साथ जरा भी भेद नहीं । कबीर दास जी भी इस विधि से सहमत हैं।
कबीर दास जी ने अवधूत के विषय मे बड़ी ही अद्भुत बात कही है। कबीर दास जी के मन में अवधूत का सम्मान है। लेकिन वे उनकी जीवन व्यवस्था से वे कतई राजी नहीं हैं। कारण यह है कि कबीर दास जी कहते हैं- कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं,सब कुछ जहां हैं वहीं हो सकता है। जो व्यक्ति दौड़-दौड़ कर, भाग-भाग कर, जंगल-पहाड़ में तप करते हैं, वह तो बाजार में भी हो सकता है। इतने दूर जाने की जरूरत ही क्या? परमात्मा दूर नहीं–पास है। परमात्मा आपके हृदय में विराजमान है। कबीर दास जी का यह अत्यंत ही अनमोल वचन यह है कि संसार छोड़ना, संसार में रहने से बड़ी बात है। लेकिन संसार में रहना और संसार को छोड़कर रहना, संसार छोड़ने से भी कीमती बात है।
कबीर दास जी कहते हैंः अवधूत से भी ऊपर एक दशा है । और वह दशा है–जल में कमलवत, संसार में होकर भी संसार को अपने में न होने देना। कबीर उसके पक्षपाती है। आगे वे कहते हैं कि संसार से मुक्त होने से भी बड़ी बात है, संसार में मुक्त होना। वह कबीर दास जी का संसार और परमात्मा के बीच का जोड़ है । संसार और परमात्मा के बीच का समन्वय है। एक बात तो निश्चित है कि संसारी से बेहतर है त्यागी। लेकिन त्यागी से भी बेहतर है वह, जो संसार में है और संन्यस्त है। इस तरह शैव और वैष्णव दोंनो ही सम्प्रदाय में यह उपयोगी रहस्य है जो हमारे जीवन को बदल सकता है। चाहे शेव की तरह अवधूत हो कोई या फिर वैष्णव की तरह से यह अवधूत शब्द की रचना ईश्वर के निकट में रहने की अवस्था है। इतने निकट की उसी में हम जीने लगें। हर सांस में ईश्वर ही वस जाए। ऐंसा है अवधूत का रहस्य ।
वैष्णोवी देवी धाम के भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं। और विशेष इन्हे योगी भी कहते और जोगी भी कहा जाता हैं। देवो के देव महादेव जी स्वयं शिव जी ने नवनाथो को खुद का नाम जोगी दिया हैं। इन्हें तो नाथो के नाथ नवनाथ भी कहा जाता हैं। नाथ सम्प्रदाय में योगी और जोगी एकही सिक्के के दो पहलू हैं, एक जो सन्यासी जीवन और दुसरा गृहस्थ जीवन हैं। इनके कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन व हिन्दू भी हुए हैं।
तुलसीदास का अवधूत:-
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥
(अर्थात चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मसजिद (देवालय) में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।) ( कवितावली पृष्ठ 120) ।
इसलिए मेरा मंतव्य है कि —
अवधू बनो ,अवधू बनो ,अवधू बनो रे।
सब त्याग दो ,सब त्याग दो ,परम सत्य में मिलो रे।।
(लेखक : सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद पर कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और अध्यात्म विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं।)