भारतीय परिवारों में खिचड़ी महज एक प्रकार का भोजन नहीं है, वरन् यह एक पारंपरिक पकवान है। खिचड़ी को भारत के त्यौहारों का मान समझा जाता है। ऐसे कई त्यौहार आते हैं, जिसके दौरान खिचड़ी बनाया जाना अनिवार्य है। यह उन उत्सवों का एक अहम हिस्सा है। मूल रूप से खिचड़ी का मतलब है दाल और चावल का मिश्रण। चावल, मूंग की दाल, घी, नमक, लौंग, जीरा के साथ पानी की संतुलित मात्रा में इसे पकाएं तो वाह क्या स्वाद आता है। असल में ये हानिरहित शुद्ध आयुर्वेदिक खाना है, जायके और पोषकता से भरपूर। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो जब चावल और दालों को संतुलित मात्रा में मिलाकर पकाते हैं तो एमिनो एसिड तैयार होता है, जो शरीर के लिए बहुत जरूरी है।
1977 में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो इंदिरा गाँधी ने इसे खिचड़ी सरकार का नाम दिया था, और इसके जवाब में अटल जी ने कहा था कि जैसे बीमार आदमी के लिए खिचड़ी जरुरी है वैसे ही कांग्रेस ने देश को जिस हालत में छोड़ा था उसके लिए खिचड़ी सरकार जरुरी है।
किसी भी खाद्य पदार्थ में उस देश के इतिहास और संस्कृति की झलक पाई जाती है जहां से उसकी उत्पत्ति हुई होती है। खिचड़ी इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण है। खिचड़ी बनाने में प्राय: चावल, दाल और मसालों का प्रयोग किया जाता है। यह खाद्य पदार्थ भारत के हर कोने में अलग-अलग रूप रंग में मिल जाएगा। गुजरात में खिचड़ी को मसालेदार कढ़ी के साथ खाने की परंपरा है। वहीं, तमिलनाडु में खिचड़ी में पर्याप्त घी डालकर खाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में खिचड़ी एक अलग रूप में नज़र आती है। यहां की खिचड़ी में बीन्स और मटर डालकर बनाया जाता है। कर्नाटक में खिचड़ी का रूप काफी अलग होता है। यहां की खिचड़ी में इमली, गुड़, मौसमी सब्जियां, कढ़ी पत्ता, सूखे नारियल का बुरादा और सेमल की रुई का इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, पश्चिम बंगाल में खिचड़ी को दुर्गा पूजा के अवसर पर पांडालों में प्रसाद के रूप में परोसा जाता है।
खिचड़ी संस्कृत शब्द ‘खिच्चा’ से आया है. इब्न बतूता ने ने 1350 में सिरका में रहने के दौरान खिचड़ी का जिक्र किशरी के नाम से किया था जिसे उन्होंने चावल और मूंगदाल से बनाने की बात कही है।
इतिहास के पन्नों को खोलें तो मालूम होता है कि खिचड़ी कोई सामान्य पकवान नहीं है, बल्कि यह भारत की संस्कृति को बखूबी दर्शाती है। यह खिचड़ी धर्म और संस्कृति का उदाहरण देती है। लोक मान्यता के अनुसार मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा का आरंभ भगवान शिव ने किया था।
खिलजी ने जब आक्रमण किया तो उस समय नाथ योगी उनका डट कर मुकाबला कर रहे थे। उनसे जूझते-जूझते वह इतना थक जाते कि उन्हें भोजन पकाने का समय ही नहीं मिल पाता था। जिससे उन्हें भूखे रहना पड़ता और वह दिन-ब-दिन कमजोर होते जा रहे थे। यह समस्या इतनी बढ़ गई थी कि अब वक्त आ गया था कि जल्द से जल्द कोई समाधान हासिल हो। एक दिन अपने योगियों की कमजोरी को दूर करने लिए बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एकत्र कर पकाने को कहा। अपने इस सफल प्रयोग को देखते हुए बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन का नाम ‘खिचड़ी’ रखा। आज भी गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ के मंदिर के समीप मकर संक्रांति के दिन से खिचड़ी मेला शुरू होता है।
कहा जाता है कि एक बार बादशाह जहांगीर गुजरात की यात्रा पर गए हुए थे। वहां उन्होंने एक गांव में लोगों को खिचड़ी खाते देखा। बादशाह को भी ये व्यंजन परोसा गया तो उन्हें ये बहुत अच्छा लगा। हालांकि इस खिचड़ी में चावल की जगह बाजरे का इस्तेमाल किया गया था। तुरंत एक गुजराती रसोईया शाही पाकशाला के लिए नियुक्त किया गया। फिर मुगल पाकशाला में इस पर और प्रयोग किए गए। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि खिचड़ी को दरअसल शाहजहां ने ही मुगल दस्तरखान में शामिल किया। मुगल बादशाहों को कई तरह की खिचड़ी परोसी जाती थी। इसमें एक बेहद विशेष खिचड़ी थी, जिसमें ड्राइ फ्रूट्स, केसर, तेज पत्ता, जावित्री, लौंग और अन्य मसालों का इस्तेमाल किया जाता था। जब ये पकने के बाद दस्तरखान पर आती थी, तो इसकी लाजवाब सुगंध गजब ढ़ाती थी। मुगल पाकशाला में खिचड़ी पर तमाम प्रयोग हुए। आमतौर पर खिचड़ी विशुद्ध शाकाहारी व्यंजन है लेकिन मुगलकाल में मांसाहारी खिचड़ी का भी सफल प्रयोग हुआ, जिसे हलीम कहा गया।
अबुल फजल ने ‘आइने अकबरी’ में किया है खिचड़ी का जिक्र
आइने अकबरी में अबुल फजल ने खिचड़ी बनाने की सात विधियों का जिक्र किया है। दुनियाभर में शाकाहारी व्यंजनों को पसंद करने वाले हरे कृष्ण आंदोलन की पाकशाला संबंधी किताब ‘हरे कृष्ण बुक ऑफ वेजिटेरियन कुकिंग’ भी पढ़ सकते हैं। इसके जरिए दुनियाभर में बड़ी संख्या में लोगों ने शाकाहारी भोजन बनाना-खाना सीखा। 1973 में ये किताब पहली बार प्रकाशित हुई। फिर इस कदर लोकप्रिय हुई कि पूछिए मत। किताब के मुताबिक वैदिक डाइट में दालें आयरन और विटामिन बी के साथ प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत होती थीं। माना जाता है कि खिचड़ी की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई थी। कुछ यह भी कहते हैं कि इसे मिस्त्र की मिलती-जुलती डिश खुशारी से प्रेरणा लेकर बनाया गया था।
भारत में यह कहावत बहुत ही प्रसिद्ध है, ‘बीरबल की खिचड़ी’, इसका मतलब सह है कि खिचड़ी मुगलों के समय भी मौजूद थी। मुगल शासकों ने जहां इसमें शाही तड़का लगया, तो वहीं अंग्रेजों ने इसमें क्रीम मिलाया। आज के दौर में खिचड़ी के कई रूप जैसे शाही खिचड़ी, गुजराती खिचड़ी, बंगाली खिचड़ी, मुगलई खिचड़ी आदी हैं। यह व्यंजन सैकड़ों सालों से हमारी संस्कृति का हिस्सा है। खिचड़ी सिकंदर की सेना और अबुल फजल के सिर भी खूब चढ़कर बोली। अब हालात ये हैं कि खिचड़ी ने अब सीमाओं और भाषाओं का बंधन तोड़ चुकी है। भारतीय उपमहाद्वीप में विदेशी आक्रमणकारी आए, अपना उपनिवेश स्थापित किया, नई खोजें हुईं और जब वे यहां से वापस अपने देश लौटे तो खिचड़ी को भी अपने साथ ले गए। सभी इसमें अपने मसालों और सामग्रियों से समृद्ध भी किया।
एलन डेविडसन अपनी किताब ‘आक्सफोर्ड कम्पेनियन फॉर फूड’ में लिखते हैं कि सैकड़ों सालों से जो भी विदेशी भारत आता रहा, वो खिचड़ी के बारे में बताता रहा। अरब यात्री इब्ने बबूता वर्ष 1340 में भारत आए। उन्होंने लिखा, मूंग को चावल के साथ उबाला जाता है, फिर इसमें मक्खन मिलाकर खाया जाता है। खिचड़ी के इतने रूप, संस्करण और बनाने की विधियां हैं कि पूछिए मत (अलग दालों और सब्जियों के साथ), जनवरी का समय खासतौर पर गरमा-गरम, लज्जतदार खिचड़ी खाने के लिए सबसे अनुकूल होता है।