अपनी हिंदी आलोचना और लेखन में भी एक से एक राहुल गांधी उपस्थित हैं। बस उन्हें एक एक्सपोजर भर की ज़रूरत होती है। जैसे कि बिलकुल अभी सुल्तानपुर के एक गांव कुरंग में रेणु पर आयोजित एक कार्यक्रम में लखनऊ से गए आलोचक वीरेंद्र यादव ने बेल के पेड़ पर फले बेल को देख कर प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि बहुत सुंदर आम आए हैं। फेसबुक लाइव पर यह प्रसारित हो गया। सोचिए जो प्रकृति और वनस्पति का अर्थ नहीं समझते। बौर के समय में बड़ा-बड़ा आम देख लेते हैं। गोया दक्षिण भारत में हों। श्रीलंका में हों। तो यह लोग आलोचना में किसी रचना को कैसे और किस तरह देखते होंगे। किस बेईमानी और किस तराजू से देखते होंगे। अच्छी से अच्छी रचना आ जाए , आंख मूंद लेंगे। रद्दी से रद्दी रचना छप कर आई भी नहीं होती है या आते ही इन की आलोचना आ जाती है। अहा-अहा करते हुए। तो इसी कार्यक्रम में रेणु पर संजीव द्वारा रेणु पर लगाए गए आपत्तिजनक आरोपों के साथ ही वीरेंद्र यादव के बेल की भी चर्चा हो रही है। यह सब अचानक नहीं हो रहा। असल में ये लोग रचना , रचना की प्रवृत्ति और वनस्पति भी नहीं जानते।
सिर्फ़ और सिर्फ़ एजेंडा जानते हैं। इस एजेंडे के तहत नफ़रत की नागफनी , जहर और जहर बोना जानते हैं। सारी आग और तमाम प्रतिरोध के गान के बावजूद यह लोग इसी लिए फुस्स हैं। क्यों कि साहित्य समाज का सेतु है। समाज में तोड़-फोड़ और नफ़रत बोने का हथियार नहीं। रेणु भी इसी एजेंडे के तहत इन्हें रचनाकार नहीं लंपट नज़र आते हैं। ये लोग उस रूसी तानाशाह जोसेफ विस्सारवियानोविच स्टालिन के अनुयायी हैं जिस ने अपने कार्यकाल में अपनी तानाशाही और हिंसा में डेढ़ करोड़ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। अस्सी लाख सैनिकों को मरवा दिया। बीते 5 मार्च को स्टालिन की 68 वीं पुण्य-तिथि थी। स्टालिन की राह पर चलते हुए ये लोग साहित्य में भी वही हिंसा , वही तानाशाही का बिगुल बजाए हुए हैं। वीरेंद्र यादव कैंप कहिए या गिरोह कहिए , इस गिरोह के लेखक भी इसी तरह का दुर्निवार लेखन करने के लिए जाने जाते हैं। अखिलेश इस गैंग के इन दिनों मुखिया माने जाते हैं। खुद अखिलेश अपने उपन्यास निर्वासन में इसी तरह की विद्वता झाड़ते उपस्थित मिलते हैं।
प्रसंग कई हैं। पर एक प्रसंग का जायजा लीजिए। एक चरित्र कलक्ट्रेट से गुज़रते हुए इतनी तेज़ हवा खारिज करता है कि कलक्ट्रेट के भीतर ट्रेजरी में हड़कंप मच जाता है। क्या तो कहीं बम फट गया है। जानने वाले जानते हैं कि बम फटने और हवा खारिज करने की ध्वनि और उस की गूंज कितनी और क्या होती है। फिर अव्वल सवाल यह कि क्या किसी कलक्ट्रेट की ट्रेजरी सड़क किनारे होती है क्या भला। लेकिन सवाल है कि जिस गैंग के लोग पेड़ पर बेल फला है कि आम , नहीं समझ पाते उस गैंग के लोग कुछ भी लिख और बता सकते हैं। एजेंडा लेखन की महिमा की इति और अति है यह।
इसी गैंग के एक और लेखक हैं रवींद्र वर्मा। उन्हों ने भी अपने एक उपन्यास में महुआ तोड़ कर खाने का विवरण दिया है। अब उन्हें कौन समझाए कि महुआ कभी तोड़ा नहीं जा सकता। पर गैंग है , सेक्यूलरिज्म के छौंक की आड़ है , लाल सलाम की गरमी भी। सो आप कुछ भी लिखें , कुछ भी पढ़ें। सब गुड है। सब प्रशंसनीय है। मनोहर श्याम जोशी का एक उपन्यास है कुरु कुरु स्वाहा। उस में एक प्रसंग आता है कि एक कपड़े की दुकान पर सेठ जी जब भी कभी हवा खारिज करते हैं तो दुकान पर काम करने वालों से चिल्ला कर पूछते हैं , कौन थान फाड़ रहा है। तो यह आलोचक , यह लेखक , यही सेठ जी लोग हैं। हवा खारिज करने को थान फाड़ने की व्यंजना में गुम कर देते हैं।
क्या है कि राजनीति में राहुल गांधी बेवजह बात-बेबात बदनाम कर दिए जाते हैं। पर जानने वाले जानते हैं कि उन के परिवार में यह उलटबासियां परंपरा में हैं। राजीव गांधी के लिए भी तमाम ऐसे किस्से हैं। पर तब के दिनों सोशल मीडिया नहीं था सो तमाम बातें दब-ढंक जाती थीं। पर एक क़िस्सा सुनिए। राजीव गांधी राजस्थान के किसी गांव में अचानक पहुंचे और खलिहान में गए। वहां उन्हों ने देखा कि खलिहान में एक तरफ लाल मिर्च रखी थी , दूसरी तरफ हरी मिर्च। राजीव गांधी ने किसानों से पूछा कि लाल मिर्च के ज़्यादा पैसे मिलते हैं कि हरी मिर्च के। किसानों ने बताया कि लाल मिर्च के। तो राजीव गांधी ने किसानों से कहा कि जब लाल मिर्च के ज़्यादा पैसे मिलते हैं तो सिर्फ़ लाल मिर्च बोओ। हरी मिर्च क्यों बोते हो। किसानों ने अपना माथा ठोंक लिया। पर प्रधान मंत्री थे , सो चुप रहे। इसी तरह एक चुनाव में मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप को धोने और सॉफ्ट हिंदुत्व को दिखाने के लिए अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू किया। जनसभा में बोलते-बोलते राजीव गांधी बोले , इसी क्षेत्र में एक नैमिषारण्य जी भी हुए हैं। बहुत बड़े ऋषि थे वह। अब उन्हें यह बताने वाला कोई नहीं था कि नैमिषारण्य किसी ऋषि का नाम नहीं , जगह का नाम है। पर जड़ों से कटे लोग ऐसे ही बात करते हैं।
संजय गांधी अपने भाषणों में कहते ही रहते थे कि पेड़ बोओ , गुड़ बोओ। एक बार जब संजय गांधी की चुनाव लड़ने की इच्छा हुई तो देश भर में कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों ने संजय गांधी को अपने-अपने प्रदेश से प्रत्याशी बनाने के लिए प्रस्ताव दर प्रस्ताव की मुहिम चला दी। उस समय उत्तर प्रदेश में नारायणदत्त तिवारी मुख्य मंत्री थे। तिवारी जी ने संजय गांधी को रायबरेली के बगल में अमेठी से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा। हेलीकाप्टर से अमेठी का दौरा करवाया। सर्दियों के दिन थे। नीचे खासी हरियाली दिखी तो संजय गांधी ने हेलीकाप्टर में बैठे-बैठे तिवारी जी से पूछा , यह कौन सी फसल है। तिवारी जी को भी उस फसल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। पर छूटते ही तिवारी जी ने संजय गांधी को बताया कि यहां की सारी फसलें हरी-भरी हैं। यह सुनते ही संजय गांधी ने अमेठी से चुनाव लड़ना फाइनल कर दिया और बोले , डन ! वह तो चुनाव जीतने के बाद संजय गांधी को बताया गया कि वह हरी-भरी फसल , कोई फसल नहीं , सरपत थी। सरपत ऊसर में पैदा होता है। ऊसर में कोई फसल नहीं होती। संजय गांधी का माथा ठनका। फिर अमेठी में उद्योग की बात वह करने लगे। अलग बात है , असमय ही संजय गांधी का निधन हो गया।
ठीक ऐसे ही बेल को आम समझने वाले आलोचकों की आलोचना भी असमय अवसान पर है। महुआ तोड़ कर खाने वाले प्रसंग लिखने वाले और हवा खारिज कर बम विस्फोट से ट्रेजरी हिला देने वाले लेखकों के लेखन की पाठक क्या गति बनाते हैं , किसी से छुपा नहीं है। लेकिन चूंकि एक व्यवस्थित गैंग है इन लेखकों के पास सो एक दूसरे की पीठ खुजाते हुए राहुल गांधी की तरह आलू से सोना बनाने की तरकीब में लगे हुए हैं। अब अगर किसी लेखक-आलोचक के पास आम और बेल की शिनाख्त की समझ नहीं है ,समझ नहीं है कि रेणु जैसे लेखक की जन्म-शताब्दी पर आयोजित कार्यक्रम में क्या बोलना है और क्या नहीं , सिर्फ अपना उग्र और कुंठित एजेंडा ही कायम रखना है तो तौबा , तौबा ! ख़ुदा खैर करे ! रूपा सिंह ने संजीव की आपत्तिजनक आपत्तियों का प्रतिवाद करते हुए उचित ही लिखा है :
यह कोई विवाद का विषय है कि
‘रेणु की आठ प्रेमिकाएँ थीं …?’
अस्सी हों भाई ! वे अस्सी जानेंगी, आप क्यूँ परेशान ?
सोबती से किसी ने पूछा कभी, सुना था आपका एक प्रेम प्रसंग था ? तो जवाब मिला- सुनिये मेरी इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी, जहाँ सिर्फ़ एक ही प्रेम – प्रसंग होता।
कहाँ है वह ताक़त साहित्य की तुम्हारे .. पैदा करो न भीष्म साहनी, श्री लाल शुक्ल , रेणु या और एक अमरकान्त ..?
जिनके प्रेम में हम तड़प जाएँ होने को गिरफ़्तार
महुआ तोड़ कर खाने और हवा खारिज कर बम फोड़ कर ट्रेजरी में हड़कंप मचाने की आज़ादी इन्हें बख्श दीजिए ! बाक़ी ले के रहेंगे आज़ादी का उग्र नारा भी इन के पास पहले से है ही। ये लोग इसे मांगें , उस से पहले ही उन्हें दे दीजिए। आप अपनी पाठकीय दुनिया में ख़ुश रहिए , वह अपनी लेखकीय दुनिया में ख़ुश रहें। आख़िर इन की सभी रचनाएं और आलोचना हरी-भरी है तो आप को क्या किसी डाक्टर ने कहा है यह बताने को कि यह रचना नहीं , आलोचना नहीं , सरपत है। खर-पतवार है। इन्हें उखाड़ने या फेकने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह अभिशप्त हैं खुद-ब-खुद सूख जाने के लिए। खुद-ब-खुद सूखने दीजिए। इस लिए भी कि रचना और आलोचना की भी अपनी प्रकृति होती है। अपनी प्रवृत्ति होती है। वनस्पति और सुगंध होती है। सच आनंद बहुत आता है। निर्मल आनंद। जब पूंजीवाद का डट कर विरोध करते हुए फ़ेसबुक पर ये लोग अपनी किसी किताब के अमेज़न पर होने का लिंक परोसते हैं। गरज यह कि यह हिप्पोक्रेसी भी निहुरे-निहुरे। हालां कि इन के पास किताब है भी कितनी।
साभार- http://sarokarnama.blogspot.com/2021/03/blog-post_6.html से