अब जबकि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन सितंबर महीने में होने जा रहा तो एक बार यह विचार जरूर होना चाहिए कि आखिर हिंदी के विकास की समस्याएं क्या हैं? वे कौन से लोग और तत्व हैं जो हिंदी की विकास बाधा हैं? सही मायनों में हिंदी के मान-अपमान का संकट राजनीतिक ज्यादा है। हम पिछले सात दशकों में न तो हिंदी समाज बना सके न ही अपनी भाषा, माटी और संस्कृति को प्रेम करने वाला भाव लोगों के मन में जगा सके हैं। गुलामी में मिले, अंग्रेजियत में लिपटे मूल्य आज भी हमारे लिए आकर्षक हैं और आत्मतत्व की नासमझी हमें निरंतर अपनी ही जड़ों से दूर करती जा रही है। यूरोपियन विचारों से प्रभावित हमारा समूचा सार्वजनिक जीवन इसकी मिसाल है और हम इससे चिपके रहने की विवशता से भी घिरे हैं। इतना आत्मदैन्य युक्त समाज शायद दुनिया की किसी धरती पर निवास करता हो। इस अनिष्ट को जानने के बाद भी हम इस चक्र में बने रहना चाहते है।
हिंदी आज मनोरंजन और वोट मांगने भर की भाषा बनकर रह गयी है तो इसके कारण तो हम लोग ही हैं। जिस तरह की फूहड़ कामेडी टीवी पर दृश्यमान होती है क्या यही हिंदी की शक्ति है? हिंदी मानस को भ्रष्ट करने के लिए टीवी और समूचे मीडिया क्षेत्र का योगदान कम नहीं है। आज हिंदी की पहचान उसकी अकादमिक उपलब्धियों के लिए कहां बन पा रही है? उच्च शिक्षा का पूरा क्रिया -व्यापार अंग्रेजी के सहारे ही पल और चल रहा है। प्राईमरी शिक्षा से तो हिंदी को प्रयासपूर्वक निर्वासन दे ही दिया गया है। आज हिंदी सिर्फ मजबूर और गरीब समाज की भाषा बनकर रह गयी है। हिंदी का राजनीतिक धेरा और प्रभाव तो बना है, किंतु वह चुनावी जीतने तक ही है। हिंदी क्षेत्र में अंग्रेजी स्कूल जिस तेजी से खुल रहे हैं और इंग्लिश स्पीकिंग सिखाने के कोचिंग जिस तरह पनपे हैं वह हमारे आत्मदैन्य का ही प्रकटीकरण हैं। तमाम वैज्ञानिक शोध यह बताते हैं मातृभाषा में शिक्षा ही उपयोगी है, पर पूरी स्कूली शिक्षा को अंग्रेजी पर आधारित बनाकर हम बच्चों की मौलिक चेतना को नष्ट करने पर आमादा हैं।
हिंदी श्रेष्टतम भाषा है, हमें श्रेष्ठतम को ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम हमारी सोच, रणनीति और टेक्नालाजी में पिछड़ेपन के चलते मार खा रहे हैं। ऐसे में अपनी कमजोरियों को पहचानना और शक्ति का सही आकलन बहुत जरूरी है। आज भारत में निश्चय ही संपर्क भाषा के रूप में हिंदी एक स्वीकार्य भाषा बन चुकी है किंतु राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर उसकी उपेक्षा का दौर जारी है। बाजार भाषा के अनुसार बदल रहा है। एक बड़ी भाषा होने के नाते अगर हम इसकी राजनीतिक शक्ति को एकजुट करें, तो यह महत्वपूर्ण हो सकता है। बाजार को भी हमारे अनुसार बदलना और ढलना होगा।
हिंदी का शक्ति को बाजार और मनोरंजन की दुनिया में काम करने वाली शक्तियों ने पहचाना है। आज हिंदी भारत में बाजार और मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। किंतु हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक समाज पर छाई उपनिवेशवादी छाया और अंग्रेजियत ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। देश का सारा राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक विमर्श एक विदेशी भाषा का मोहताज है। हमारी बड़ी अदालतें भी बेचारे आम हिंदुस्तानी को न्याय अंग्रेजी में उपलब्ध कराती हैं। इस समूचे तंत्र के खिलाफ खड़े होने और बोलने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है। आजादी के इन वर्षों में हर रंग और हर झंडे ने इस देश पर राज कर लिया है, किंतु हिंदी वहीं की वहीं है। हिंदी के लिए जीने-मरने की कसमें खाने के बाद सारा कुछ वहीं ठहर जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अगर आजादी के बाद कहते हैं कि लोगों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है तो इसके बहुत साहसिक अर्थ और संकल्प हैं। इस संकल्प से हमारी राजनीति अपने को जोड़ने में विफल पाती है।
भाषा के सवाल पर राजनीतिक संकल्प के अभाव ने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को पग-पग पर अपमानित किया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के सम्मान की जगह अंग्रेजी ने ले ली है, जो इस देश की भाषा नहीं है। अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई क्या सिर्फ शासक बदलने की थी? जाहिर तौर पर नहीं, यह लड़ाई देश और उसके लोगों को न्याय दिलाने की जंग थी। स्वराज लाने की जंग थी। यह देश अपनी भाषाओं मे बोले, सोचे, गाए, विचार करे और जंग लड़े, यही सपना था। इसलिए गुजरात के गांधी से लेकर दक्षिण के राजगोपालाचारी हिंदी के साथ दिखे। किंतु आजादी पाते ही ऐसा क्या हुआ कि हमारी भाषाएं वनवास भेज दी गयीं और अंग्रेजी फिर से रानी बन गयी।
क्या हमारी भाषा में सामर्थ्य नहीं थी? क्या हमारी भारतीय भाषाएं ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हैं? हमारे पास तमिल जैसी पुरानी भाषा है, हिंदी जैसी व्यापक भाषा है तो बांग्ला और मराठी जैसी समृद्ध भाषाओं का संसार है। लेकिन शायद आत्मगौरव न होने के कारण हम अपनी शक्ति को कम करके आंकते हैं। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी जीवनशैली और मूल्यों को दीनता से देखना और उसके लेकर न गौरवबोध, न सम्मानबोध। अपनी माटी की चीजें हमें कमतर दिखती हैं। भाषा भी उसी का शिकार है। ऐसे में जब कोई भी समाज आत्मदैन्य का शिकार होता है तो वह एक दयनीय समाज बनता है। वह समाज अपनी छाया से डरता है। उसका आत्मविश्वास कम होता जाता है और वह अपनी सफलताओं को दूसरों की स्वीकृति से स्वीकार कर पाता है। यह भारतबोध बढ़ाने और बताने की जरूरत है। भारतबोध और भारतगौरव न होगा तो हमें हमारी भाषा और भूमि दोनों से दूर जाना होगा। हम जमीन पर होकर भी इस माटी के नहीं होगें।
दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपनी जड़ों को तलाश कर उनके पास लौट रही हैं। तमाम समाज अपने होने और महत्वपूर्ण होने के लिए नया शोध करते हुए, अपनी संस्कृति का पुर्नपाठ कर रहे हैं। एक बार भारत का भी भारत से परिचय कराने की जरूरत है। उसे उसके तत्व और सत्व से परिचित कराने की जरूरत है। यही भारत परिचय हमें भाषा की राजनीति से बचाएगा, हमारी पहचान की अनिवार्यता को भी साबित करेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)