आजकल डाक्टरी, वकालत और शिक्षा— ये तीन सेवाएं नहीं, धंधे माने जाते हैं। यदि कोई धंधा करता है तो पैसा तो वह बनाएगा ही ! इन तीनों सेवाओं को सीखने के दौरान जो अनाप-शनाप खर्च करना पड़ता है, अगर उसे वसूला नहीं जाए तो काम कैसे चलेगा ? वसूली के इस दौर में शहरी, सपंन्न और ऊँची जातियों के लोग तो किसी तरह अपना काम धका ले जाते हैं लेकिन देश के लगभग 100 करोड़ लोग आज भी समुचित शिक्षा, चिकित्सा और न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं। आज एक अंग्रेजी अखबार ने देश के पांच प्रांतों के ऐसे पांच डॉक्टरों के बारे में विस्तृत खबर छापी है, जो अपने मरीज़ों से फीस के नाम पर कुछ नहीं लेते या इतनी फीस लेते हैं, जो एक प्याला चाय की कीमत से भी कम होती है। ऐसे डाक्टर, वैद्य, हकीम और होमियोपेथ सारे भारत में पहले सैकड़ों की संख्या में पाए जाते थे। दिल्ली के निजामुद्दीन में वैद्यराज बृहस्पतिदेव त्रिगुणाजी का नाम किसने नहीं सुना है ?
उनकी वैद्यशाला में कोई करोड़पति आए या कौड़ीपति, कोई प्रधानमंत्री आए या चपरासी— वे किसी से कोई फीस नहीं लेते थे। इंदौर में डा. मुखर्जी को लोग ईश्वरतुल्य मानते थे। 60-70 साल पहले हमारे मोहल्ले में किसी मरीज़ को देखने वे उसके घर जाते थे तो वे मुझसे पूछते थे कि उससे फीस लेना है कि नहीं ? यही हाल गुरुकुलों का भी था। हमारी संस्कृत पाठशाला के किसी भी ब्रह्मचारी को हमने फीस देते हुए नहीं देखा। डाक्टरों और अध्यापकों को अपने अस्पतालों और स्कूलों से जो वेतन मिलता था, उसमें वे अपना गुजारा करते थे लेकिन अपने ऐशो-आराम या अहंकार-तृप्ति के लिए उन्होंने अपने सेवा-कार्य को कभी धंधे में तब्दील नहीं होने दिया। हाँ, पारमार्थिक शिक्षा और चिकित्सा संस्थाओं के दरवाजे पर दान-पात्र रखे होते थे। जिसका जितना मन हो, उतने पैसे वह उसमें डाल देता था। यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार द्वारा कोरोना का टीका करोड़ों लोगों को मुफ्त में लगवाया जा रहा है लेकिन यही पद्धति देश की संपूर्ण चिकित्सा-व्यवस्था पर लागू क्यों नहीं की जाती ? निजी अस्पतालों की लूट-पाट पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता ? यदि देश की शिक्षा-व्यवस्था उच्चतम स्तर तक मुफ्त हो और स्वभाषा में हो तो भारत को यूरोप से भी आगे निकलने में बहुत कम समय लगेगा। तन के लिए चिकित्सा और मन के लिए शिक्षा सुलभ हो तो भारत को सबल और संपन्न बनने से कौन रोक सकता है? यदि हमारी सरकारें इन दोनों मामलों में मुस्तैदी न दिखाएँ तो भी उन पाँच देवतुल्य डाक्टरों से देश के लाखों डॉक्टर कुछ न कुछ प्रेरणा जरुर ले सकते हैं और इस धंधे को दुबारा सेवा में परिणत कर सकते हैं।
(डॉ. वेद प्रताव वैदिक जाने माने पत्रकार हैं व राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखते हैं)