वामपंथी लेखकों-पत्रकारों की एक प्रिय लत है , दलित-दलित का पहाड़ा पढ़ने की। लेकिन उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में यह लोग दलित दुकानदारी की मुखिया मायावती और उन की बसपा का नाम लेना सिरे से भूल गए हैं। कांग्रेस को भी नहीं याद कर रहे। जब कि कांग्रेस इन लोगों को खासी फंडिंग करती रहती है। फ़िलहाल यह सभी लोग इस चुनाव में सिर्फ़ अखिलेश यादव और सपा का झंडा ले कर सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर उपस्थित हैं। इस लिए भी कि अब सिर्फ़ सोशल मीडिया पर जुगाली ही इन के खाते में शेष रह गई है।
सारी क्रांति , सारा बदलाव सोशल मीडिया पर ही यह कर लेते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था वह इन पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के कंधे पर बैठ कर ख़त्म करने की ठान बैठे हैं। क्यों कि ज़मीनी स्तर पर इन की वैचारिकी और हिप्पोक्रेसी की बैंड बज चुकी है। सो यह सोशल मीडिया अखिलेश यादव के ईगो मसाज में उन के बहुत काम आ रही है। चुनाव परिणाम आए 10 मार्च को तो आया करे। अखिलेश यादव की सरकार तो अभी ही से बनवा चुके हैं यह लोग। माहौल बनाने में इन की महारत की तो बड़े-बड़े भाजपाई और संघी भी स्वीकार करते हैं। तो बकौल वामपंथी , माहौल अखिलेश सरकार का बन चुका है। सिर्फ़ शपथ शेष रह गई है।
तो क्या अखिलेश यादव ने कांग्रेस से भी ज़्यादा फंडिंग कर दी है इन सेक्यूलर फ़ोर्स के सिपहसालारों को। जो भी हो कन्नौज छापे पर इत्र इन के पहाड़े में नहीं इतराया था। अरबों रुपए की बरामदी पर एक भी अड्डे से कोई नहीं बोला। एक चुप तो हज़ार चुप। टोटी-टाइल प्रसंग में भी यह लोग भाजपा की साज़िश सूंघते रहे। राफेल और पैगसस के नाम पर क्रांति की चिंगारी फेकने वाले लोग न कोई सूत्र तलाश पाए भाजपाई साज़िश का , न सुप्रीम कोर्ट वग़ैरह गए इस की तलाश में। फ़िलहाल यह गगन बिहारी लोग अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के गठबंधन पर जांनिसार हैं। भाजपा के अमित शाह आदि-इत्यादि का डोर टू डोर इन्हें मजाक लग रहा है। हेयर ड्रेसर हबीब का स्त्रियों के बालों पर थूकना नहीं दिखा इन्हें कभी। पर परचों पर अमित शाह का थूक लगाना दिख रहा है। गुड है !
भैया लोगों को लग रहा है कि अखिलेश यादव सैयां बन कर आ रहे हैं। क्यों कि किसान आंदोलन के चूल्हे पर पकी खिचड़ी खा कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम एकता में इन्हें ग़ज़ब का फेवीकोल दिख रहा है। मुजफ्फर नगर दंगे का घाव , कैराना का पलायन सपने में भी कभी नहीं दिखा इन शूरवीरों को। न तब , न अब। ज़मीनी सचाई देखना इन के वश में कभी रहा भी नहीं। पश्चिम बंगाल चुनाव में सूपड़ा साफ़ हो गया इन का। पर ममता बनर्जी का सरकार बनाना इन्हें सुख दे गया। नहीं देख पाए यह लोग कि भाजपा का वोट प्रतिशत कितना जंप कर गया है। कहां तक पहुंच गया है। पश्चिम बंगाल में ज़्यादातर वामपंथी कार्यकर्ता भाजपाई क्यों बन गए , इस पर कभी इन लफ्फाजों ने चिंतन नहीं किया। एक केरल छोड़ कर समूचे देश की संसदीय राजनीति से खारिज हो चुके हैं। कब के। लेकिन मजाल क्या कि कभी इस पर कोई मलाल कभी हुआ हो।
पर बिना कुछ जाने-समझे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यही लोग सोशल मीडिया पर कौआ उड़ाने बैठ गए हैं। गुड है यह भी। अभी तो कौआ उड़ा रहे हैं , जाने 10 मार्च को क्या उड़ाएंगे। क्यों कि यह लोग ज़मीनी हक़ीक़त का बखान करने की जगह प्रतिबद्धता के खूंटे से बधे हुए अपनी मनोकामना का बखान करने में सिद्धहस्त हैं। ठीक वैसे ही जैसे राहुल गांधी किसी चुनाव में किसी विदेशी अख़बार में कोई ख़बर प्लांट कर कभी राफेल उड़ाते हैं , कभी पेगासस। गोया बचपन में पतंग उड़ा रहे हों। राहुल गांधी का तो समझ में आता है। पर इन वामपंथी बुद्धिजीवियों का ? सिर्फ़ सेक्यूलर-सेक्यूलर की अंत्याक्षरी खेलने के लिए पैदा हुए हैं। या अवसर मिलते ही देश को गृह युद्ध में झोंकने की अनंत कोशिशों के लिए पैदा हुए हैं। संविधान की रक्षा के नाम पर संविधान की होली जलाना और अवमानना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है इन का। कभी कांग्रेस , कभी सपा , कभी आप , कभी कोई। आऊट-सोर्सिंग ही अब इन का जीवन है। क्रांति और सामाजिक बदलाव के लिए अब आऊट-सोर्सिंग ही इन का औजार है। पार्टी लाइन यही है। अच्छा यह लोग भेड़ प्रवृत्ति के होते हैं। एक भेड़ जिधर हांकी गई , सारी भेड़ें उसी तरफ चल पड़ती हैं। दिल्ली से लगायत पूरे देश की भेड़ एक ही दिशा , एक ही सोच में चल पड़ती हैं।
1962 में चीन-भारत युद्ध की एक घटना पढ़ने को मिलती है। कि चीन की सरहद पर चीनी फ़ौज कम पड़ गई। भारतीय सेना की तादाद ज़्यादा थी। तो चीनी सेना ने सैकड़ों भेड़ें इकट्ठा कीं। और रात में भेड़ों के गले में लालटेन जला कर बांध दी। सारी भेड़ों को भारतीय सीमा की तरफ हांक दिया। अब भारतीय सेना ने एक साथ इतनी लालटेनें देखीं तो सहम गए सेना के लोग। भेड़ें लगातार भारतीय सरहद की तरफ चली आ रही थीं। भारतीय सेना के कमांडर यह समझ ही नहीं पाया कि यह चीनी सैनिक नहीं , भेड़ें हैं। अपनी पलटन ले कर भाग खड़ा हुआ। वह भारतीय चौकी चीन की हो गई। चीन के पास सेना नहीं थी पर भेड़ों की मदद से हजारों सैनिकों का माहौल बनाने में सफल रहा। तो चीन ही नहीं , अपने वामपंथी साथी भी यही भेड़ प्रवृत्ति आजमा कर , भेड़ों के गले में लालटेन बांध कर माहौल बना देते हैं। लड़ाई जीत लेते रहे हैं , इसी तरह माहौल बना कर। पर अब इस भेड़ प्रवृत्ति पर लगाम लगने लगी है। जीत , हार में बदलने लगी है। माहौल बनाने को तो बना लेते हैं अब भी। पर जीत तक पहुंचते-पहुंचते कलई खुल जा रही है। प्रतिबद्धता के खूंटे में बंधी यह भेड़ें इस कलई खुलने का कोई तोड़ नहीं खोज पा रहीं। न इन के कमांडर। सो क्रांतियां फुस्स होती जा रही हैं।