नीति आयोग ने चुनाव आयोग को वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का सुझाव देकर एक सार्थक बहस का अवसर प्रदत्त किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों चुनावों को एक साथ कराने का सुझाव दिया था। राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस सुझाव को राष्ट्रहित में मानते हुए चुनाव आयोग से इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने के लिए पहल करने को कहा था। चुनाव एक साथ कराने का विचार बहुत नया हो, ऐसा भी नहीं है। पिछली सरकारों में भी समय-समय पर इस पर चर्चाएं होती रही हैं। लेकिन इस व्यवस्था को लागू करने को लेकर अनेक संवैधानिक समस्याएं भी और कुछ बुनियादी सवाल भी है। इन सबका समाधान करते हुए यदि हम यह व्यवस्था लागू कर सके तो यह सोने में सुहागा होगा। जनता की गाढी कमाई की बर्बादी को रोकने, बार-बार चुनाव प्रक्रिया के होने जनता को होने वाली परेशानी और प्रशासनिक कार्य में होने वाली असुविधाओं को रोकने के लिए चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था निश्चित रूप से लोकतंत्र को एक नई उष्मा एवं नया परिवेश देगी। यदि इसके लिये कोई सर्वमान्य रास्ता निकलता है तो सचमुच यह देश, समाज और लोकतंत्र के हित में होगा।
भारतीय लोकतंत्र दुनिया का विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ परिपक्व भी हुआ है। बावजूद इसके लोकतंत्र अनेक विसंगतियों एवं विषमताओं का भी शिकार है। मुख्यतः चुनाव प्रक्रिया में अनेक छिद्र हंै, सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा छिद्र चुनावों की निष्पक्षता एवं पारदर्शिता को लेकर है। खरीद-फरोख्त, नशा एवं मतदाताओं को लुभाने एवं आकर्षित करने का आरोप भी लोकतंत्र पर बड़े दाग हैं। चुनाव सुधारों की तरफ हम चाह कर भी बहुत तेजी से नहीं चल पा रहे हैं। चुनाव आयोग जैसी बड़ी और मजबूत संस्था की उपस्थिति के बाद भी चुनाव में धनबल, बाहूबल एवं सत्ताबल का प्रभाव कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। ये तीनों ही हमारे प्रजातंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है।
चुनाव साथ कराने का मुद्दा कई मायनों में बहुत महत्व का है। इसके चलते देश में विकास की गति बढ़ने की संभावनाएं भी जताई जा रही है। चुनाव एक ही बार में और एक साथ होने से विकास के काम एक बार ही रूकेंगें और देश की गाड़ी तेजी से चल पड़ेगी। इसके साथ ही वर्ष भर पूरे देश में कहीं न कहीं चुनाव होने के कारण सरकारों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। राजनीतिक दल राज्यों के चुनावों के चलते तमाम फैसलों को टालते हैं या लोक-लुभावन फैसले लेते हैं। इससे सुशासन का स्वप्न धरा रह जाता है। भारतीय राजनीति के लिए यह एक गहरा संकट और चुनौती दोनों है। राष्ट्र में आज ईमानदारी एवं निष्पक्षता हर क्षेत्र मंे चाहिए, पर चूँकि अनेक गलत बातों की जड़ चुनाव है इसलिए भारत के चुनावी कुंभ में व्याप्त विरोधाभासों एवं विसंगतियों को दूर किया जाना और इसके लिये उठने वाला हर कदम स्वागतयोग्य है।
लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर हमारे सामने कुछ यक्ष प्रश्न खड़े हैं जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें। जिस दिन यह व्यवस्था लागू होगी, उस दिन एक साथ चुनाव कराने का मतलब होगा कि जिन राज्यों में सरकारों का कार्यकाल पूरा नहीं हुआ है, उसे खत्म करना और जहां पूरा हो गया है, उसे बढ़ाना। हो सकता है इससे किसी दल को नुकसान हो और वह इस व्यवस्था को मान्य न करें। एक और समस्यामूलक स्थिति अनुच्छेद 356 का लेकर होगी। खंडित जनादेश होने, सरकार अल्पमत में आने या किसी भी अन्य मुश्किल में सरकार का गठन न होने पर इसी अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है और छह महीने में चुनाव कराने के लिए कहा जाता है। इस स्थिति में एक साथ चुनाव कराये जाने या बार-बार होने वाले चुनावों को रोकने का क्या रास्ता होगा? अनेक राज्यों में सरकारें अपना कार्यकाल कई कारणों से पूरा नहीं कर पाती, तो वहां के लिए क्या व्यवस्था होगी। कई बार कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री चुनाव की छः माह पूर्व ही सिफारिश कर देते हैं। केंद्र सरकार भी पहले चुनाव में जाने का मन बना सकती है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्थाओं के हल भी हमें खोजने होेंगे। एक आदर्श विचार को जमीन पर उतारने से पहले हमें अपनी जमीन को मजबूत बनाना होगा, इस नयी व्यवस्था के सामने खड़े ऐसे अनेक प्रश्नों पर भी विचार करना होगा।
लंबे समय से अनेक संगठन भी एक साथ चुनाव कराने एवं लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए सक्रिय हैं। विश्व हिन्दू परिषद-दिल्ली के पूर्व अध्यक्ष श्री रिखबचंद जैन तो इसके लिए संगठन बनाकर जुटे हुए हैं। विधि एवं न्याय विभाग से जुड़ी संसद की स्थायी समिति द्वारा दिसंबर 2015 में अपनी एक रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने का समर्थन करने के बाद सरकार ने इस विषय पर चुनाव आयोग से राय मांगी थी। हालांकि, चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने दोनों चुनाव साथ कराने के प्रति कोई असहमति तो नहीं व्यक्त की थी, लेकिन बीती जनवरी में उन्होंने कहा था कि इसके लिए संविधान संशोधन और अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में अधिक संख्या में ईवीएम और भारी सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ेगी। अतिरिक्त आर्थिक भार भी पड़ेगा। चुनाव आयोग ने इन स्थितियों के बावजूद सैद्धान्तिक रूप अपनी सहमति व्यक्त की है, लेकिन मूल प्रश्न इस व्यवस्था को प्रयोग में लाने का है, उससेे पहले संविधान में संशोधन करना होगा, जिसके लिए सभी राजनीतिक दलों को इस पर एकमत कर पाना टेढ़ी खीर होगा।
सही मायनों में हमारा लोकतंत्र ऐसी कितनी ही कंटीली झाड़ियों में फँसा पड़ा है। प्रतिदिन आभास होता है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जाएगा। लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। राजनीतिज्ञ पारे की तरह हैं, अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। कुछ चीजों का नष्ट होना जरूरी है, अनेक चीजों को नष्ट होने से बचाने के लिए। जो नष्ट हो चुका वह कुछ कम नहीं, मगर जो नष्ट होने से बच सकता है वह उस बहुत से बहुत है। लोकतंत्र को जीवन्त करने के लिए हमें संघर्ष की फिर नई शुरूआत करनी पडे़गी।
भारत के लोगों की हजारों वर्षों से एक मान्यता रही है कि हमारी समस्याओं, संकटों व नैतिक हृास को मिटाने के लिए अवश्य कोई फरिश्ता आएगा और हम सबको उबार लेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यह विश्वास दिलाया है ”यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः।’’ जब-जब धर्म का हृास और पाप में वृद्धि होगी तब-तब मैं धरती पर जन्म लूंगा। पर अभी पूर्ण अवतार सम्भव नहीं, अर्ध-अवतार की भी सम्भावना नहीं, तब ऐसे ही कुछ लोग अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर लोगों के विश्वास को कायम रखेंगे कि अच्छे आदमी पैदा होने बन्द नहीं हुए हैं। देश, काल और स्थिति के अनुरूप कोई न कोई विरल पुरुष सामने आता है और विशेष किरदार अदा करता है और लोग उसके माध्यम से आशावान हो जाते हैं। आज जहां कहीं से भी चुनाव एक साथ कराने की मुहिम को बल मिल रहा है, निश्चित ही इससे लोकतंत्र मजबूत होगा, अधिक कारगर होगा एवं जीवंत बन कर देश को विकास की तीव्र गति देगा। मोदी जैसे कुछ कद्दावर नेता आते हैं और अच्छाई-बुराई के बीच भेदरेखा खींच लोगों को मार्ग दिखाते हैं तथा विश्वास दिलाते हैं कि वे बहुत कुछ बदल रहे हैं तो लोग उन्हें सिर माथे पर लगा लेते हैं। एक साथ चुनाव का मुद्दा यदि मोदीजी का संकल्प है तो अवश्य ही आकार लेगा।
जैसाकि हम जानते हैं कि लोग शीघ्र ही अच्छा देखने के लिए बेताब हैं, उनके सब्र का प्याला भर चुका है। लोकतंत्र को दागदार बनानेवाले अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। जो कोई सुधार की चुनौती स्वीकार कर सामने आता है, उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री स्वयं एक नया रास्ता बनाने, लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने एवं चुनाव की खामियों को दूर करने की ठानी है, इसलिये एक नया सूरज तो उदित होगा। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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