Sunday, November 24, 2024
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कश्मीर की त्रासदी, कश्मीर फाईल्स और आशा पारेख

न्यूज़ 18 इंडिया के एक कार्यक्रम में फ़िल्म अभिनेत्री आशा पारेख ने अपनी उसी मानसिकता का परिचय दिया जिससे फ़िल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री वर्तमान समय मे लड़ते दिखाई पड़ते हैं।

पत्रकार के पूछे जाने पर कि क्या कश्मीर फाइल्स या द केरला स्टोरी जैसी फिल्में बननी चाहिए? के जवाब में आशा पारेख का उत्तर था कि फ़िल्म निर्माता ने 400 करोड़ रुपये कमाएं। इन पैसों में से निर्माता ने कश्मीर में रहने वाले हिंदुओं के लिए कितने रुपए खर्च किए? उनकी निजी कमाई 200 करोड़ की भी ही होगी तो उनमें से ही कितने खर्च किए?

यह प्रश्न सुन यदि आप भी यह सोचने लगते हैं कि जिनके नाम पर फ़िल्म बनी उस फ़िल्म की कमाई पर कश्मीरी हिंदुओं का भी हिस्सा होता है तो आप उस षड्यंत्र व वैचारिक बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं जहां पैसों की खनक जिहादी प्रताड़ना की शिकार महिला की चीख को दबा देती है। और यदि आप पलट कर आशा पारेख से ये प्रश्न करते हैं कि उनकी फिल्म कटी पतंग की कमाई का कितना हिस्सा उन्होंने विधवाओं के कल्याण के लिए दान दी या नहीं तब भी आप उसी षड्यंत्र में फंस जाते हैं जहाँ गिरजा टिक्कू समेत असंख्य महिलाओं के बलात्कार, हत्याएं व हिंदुओं के पलायन के दर्द पर बात न कर विमर्श का केंद्र पैसे, कमाई व हिस्सा को बना देते हैं।

नेरेटिव के इस दौर पर आम भारतीयों का दर्द ये है कि 80 व 90 के दशक में हिन्दू बहुल देश भारत के एक कोने में लाखों लोग अपना घर छोड़ जान बचा भागे भागे फिर रहे थे, हजारों की लाशों को अंतिम संस्कार का अशिकार भी नहीं मिला, सैकड़ों महिलाओं का बलात्कार कर उसके अंग को छिन्न भिन्न कर दिया गया और हमारा समाज व हमारा देश जो मानवता की दुहाई देता नहीं थकता वो इस त्रासदी पर मौन रह जाता है?उसके जेहन में ये बात नहीं आती कि प्रताड़ित वर्ग उनके बीच का है और उसका कसूर केवल इतना है कि वो भी हमारे संस्कारों, धर्म व आस्था का पुजारी है।
द कश्मीर फाइल्स को केवल कॉमर्शियल चश्में से देखना उसी विकृत सोच की निशानी है जो आपको पैसे की खनक पर नाचने व अपनी बात रखने तक पर पाबंदी लगा देती है।

आशा पारेख जिस दौर में फिल्मों में काम करती थी उस दौर की अधिकांश फिल्मों की शूंटिंग कश्मीर की वादियों में होती थी। किंतु 80 के दशक आते आते इस्लामिक जिहाद की ऐसी हवा चली कि कश्मीर की हसीन वादियों में बारूद की गंध घुल गई और कश्मीर में फिल्मों की शूंटिंग बंद हो गई। कश्मीर में इस्लामिक उन्माद का पहला शिकार तो बॉलीवुड ही हुआ। जहाँ न सिर्फ फिल्मों की शूंटिंग ही बंद हुई अपितु सिनेमा हॉल भी बंद करवा दिए गए। पर क्या कभी बॉलीवुड ने स्वयं पर हुए इस जिहादी हमले पर अपनी कोई प्रतिक्रिया दी? नहीं। पर क्यों?

जब बात निकली ही तो बात बहुत दूर तक जाएगी। बॉलीवुड फिल्मों में स्त्री व दलित विमर्श जैसे विषयों की प्रधानता रही है। आशा पारेख के फिल्मी दौर में सर्वाधिक फिल्में इन्हीं दोनों बिषयों को केंद्र में रख कर बनाई गई जिसमें खलनायक के रूप में कथित अगड़ी जातियों व पुरुष को प्रदर्शित किया गया। किंतु क्या बॉलीवुड ने कभो कश्मीर में दलितों के आरक्षण की बात की? दलितों को आरक्षण बाबा साहेब व गांधी जी का सपना बता इस पर खूब बातें कही जाती है। किंतु दलित अस्मिता की बात करने वाले इस विषय पर मौन रह जाते हैं कि कश्मीर में दलितों को आरक्षण क्यों नहीं मिलना चाहिए था? किस जिहादी सोच ने दलितों का अधिकार छीना?

कश्मीर में सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं हुई। जहाँ हिंदू महिलाओं से उनके जीने का हक छीना गया वहीं मुस्लिम महिलाओं की आजादी पर भी प्रतिबन्ध लगा दिए गए। पुनः प्रश्न उठता है कि स्त्री विमर्श व स्त्री अस्मिता के झंडाबरदार बॉलीवुड कभो इस विषय पर कोई फ़िल्म बना पाया। नहीं। फिर प्रश्न उठता है आखिर क्यों?

कश्मीर की सच्चाई कभी बाहर न आ पाए, उस पर चर्चा न हो, कोई भारतीय विशेषकर हिंदू इस त्रासदी से खुद को जोड़ कर न देखे इसके लिए दो षड्यंत्र रचे गए। एक कि मरने वाले पीड़ित वर्ग को पंडित कह कर संबोधित किए गए। दूसरी तरफ दलित विमर्श के नाम पर ब्राह्मणों को समाज का दुश्मन घोषित करने के लिए ब्राह्मणवाद जैसे शब्दों को विमर्श में लाया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि पंडितों की हत्या, बलात्कार व पलायन जैसी त्रासदी से भारतीय समाज कभी जुड़ नहीं पाया।

दूसरा षड्यंत्र बना कश्मीरी शब्द। कश्मीरी यानी कश्मीर के। यदि पीड़ित वर्ग कश्मीर का है तो क्षेत्रवाद का शिकार भारतीय जनमानस यथा बंगाली, पंजाबी, द्रविड़ उन कश्मीर के लोगों के साथ क्यों खड़ा होता?

अपने देश भारत के कश्मीर में हिंदुओं पर हुए अत्याचार से आम भारतीय इस हेतु भी जुड़ पाया क्योंकि अत्याचार तो उनसे अलग कश्मीर के ब्राह्मणों के साथ हो रहा था।

यानी पहले सच ही न बाहर आने दो और यदि बाहर आए भी तो कश्मीरी पंडित के रूप में बाहर आए।

अब जब राष्ट्रवाद व संगठित हिंदू समाज इन दो शब्दों वाले शाब्दिक षड्यंत्र से बाहर आकर कश्मीर में हिंदुओं के साथ हुई बर्बरता पर प्रश्न कर रहा है तो एक नया षड्यंत्र रचा जा रहा है कि किसने कितने कमाएं और कितना हिस्सा उन पर खर्च किया?

द कश्मीर फाइल्स के निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने यह फ़िल्म केवल पैसे के लिए बनाई होती तो क्या वो उस दर्द को सामने ला पाते जो वो लाने में सफल रहे? जिस वीभत्स त्रासदी को अब तक छिपाने का प्रयास हुआ, जिसकी सच्चाई छिपाने के लिए कई षड्यंत्र रचे गए हो यदि विवेक अग्निहोत्री उस सच को सामने ला रहे हैं तो चर्चा इस पर होनी चाहिए कि इस घटना को अब तक छिपाया क्यों गया? कौन सी शक्ति थी जो इसे छिपाने का प्रयत्न कर रही थी? किस सोच ने इस बर्बरता को अंजाम दिया?

जहाँ बॉलीवुड को सामने आकर विवेक अग्निहोत्री के इस काम को सरआंखों पर लिया जाना चाहिए था वहीं आशा पारेख एक नई षड्यंत्र को स्थापित करने का प्रयास कर रही है कि इस फ़िल्म की कमाई कितनी हुई? हालांकि विवेक जी को देख कर अब ये लगता ही नहीं कि उन्हें कथित बॉलीवुड की कोई परवाह ही है।

मुझे आशा जी से आशा ही थी कि वो भी उन जिहादियों पर बात न कर आरोप के कटघरे में विवेक अग्निहोत्री को ही लाएगी। आज प्रश्म उन जिहादियों से पूछा जाना चाहिए था कि तुमने किस संस्कातों के अधीन इस कुकृत्य को अंजाम दिया? उन शक्तियों से पूछा जाना चाहिए था कि इस त्रासदो को छिपाए रखने के लिए तुमने कितनी कमाई की या तुम्हारी मंशा क्या थी? किंतु इनसे उलट प्रश्न उन विवेक अग्निहोत्री से किया जा रहा है जिन्होंने इस त्रासदी को विमर्श का हिस्सा बनाया। जिन्होंने सच को दबने नहीं दिया।

दरअसल आशा पारेख तो महज एक पुतली है जिसकी डोर किसी और की अंगुलियों में फंसी हैं। आशा पारेख एक कटी पतंग ही हैं जिसे शक्तिशाली हवा अपनी मर्जी से अपने साथ उड़ा रही है।
अमित श्रीवास्तव।
9555018954

एक निवेदन

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