पिछली पांच सदियों से भारतीय लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का सतत योगदान अविस्मरणीय है. लोक भाषा की इस सशक्त रचना द्वारा सांस्कृतिक जागरण का जैसा कार्य संभव हुआ वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है. ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सब कर हित होई’ की प्रतिज्ञा के साथ कविता को जन-कल्याणकारिणी घोषित करते हुए गोस्वामी जी ने काव्य के प्रयोजन को पहले की शास्त्रीय परम्परा से अलग हट कर एक नया आधार दिया. एक विशाल मानवीय चेतना की परिधि में भक्ति के विचार को जन-जन के हृदय तक पहुंचाते हुए गोस्वामी जी हमारे सामने एक लोकदर्शी दृष्टि वाले कवि के रूप में उपस्थित होते हैं. वे जनसाधारण की ‘भाखा’ अवधी और भोजपुरी का उपयोग करते हुए जीवंत भंगिमा और ग्राम्य परिवेश के बीच जीवन के सत्य की एक असाधारण और अलौकिक, पर हृदयग्राही छवि उकेर सके थे.
उनके शब्द-चयन में एक ऐसी दुर्निवार किस्म की संगीतात्मकता और ऐसी लय है कि पढिए तो ( बिना अर्थ समझे भी !) उसे गाने और झूमने का मन करने लगता है. पारिवारिक जीवन, मित्रता, सत्संगति, सामाजिक जीवन और राजनय जैसे विषयों को समेटते हुए लोक में रमते हुए तुलसीदास जी ने लोकोत्तर का जो संधान किया उसमें एक ओर यदि दर्शन की ऊंचाई दिखती है तो दूसरी ओर रस की गहरी और स्निग्ध तरलता भी प्रवाहित होती मिलती है. विष्णु के अवतार श्रीराम के लीला-काव्य में सशक्त भाषा और शब्द-प्रयोग का यह अद्भुत जादू ही है कि उनके दोहे और चौपाइयां शिक्षित और गंवार सभी तरह के लोगों की जुबान पर आज भी छाए हुए हैं और प्रमाण और व्याख्या के रूप में उद्धृत होते रहते हैं और उनकी कथा के नाना संस्करण प्रचलित हैं. उनकी रचनाओं का विश्लेषण अनेक दृष्टियों से किया गया है. विशेष रूप से धर्म (हिंदू !) के उन्नायक!, लोक मंगल के प्रतिष्ठाता, राजनैतिक माडल के प्रस्तोता (राम राज्य!) और काव्य-शास्त्र की उपलब्धि आदि के कोणों से अध्येताओं ने विचार किया है और दोष-गुण का काफी पर्यालोचन किया है. पर एक पाठक को उनकी सीधे-सीधे सम्बोधित करती है. मानस को पढ कर या उसकी कथा को सुन कर चित्त उद्वेलित बिना नहीं रह सकता और रचना चेतना का संस्कार करती चलती है.
यह गोस्वामी जी की रचनात्मक प्रतिभा ही थी कि अनेक वृत्तों में अनेक वक्ताओं द्वारा कही गई जन्म जन्मांतरों को समेटती हुई राम-कथा ऐसे मनोरम ढंग से प्रस्तुत हुई कि वह जन मन के रंजन के साथ ही भक्ति कि धारा में स्नान कराने वाली पावन सरिता भी बन गई . मानस में पहले से चली आ रही राम-कथा में कई प्रयोग भी किए गए हैं और ब्योरे में जाएं तो उसकी प्रस्तुति पर देश-काल की अमिट छाप भी पग-पग पर मिलती है . कई-कई तह के संवादों के बीच गुजरती हुई राम-कथा काव्य शास्त्रियों के लिए इस अर्थ में चुनौती भी देती है कि वह प्रबंधकाव्य के स्वीकृत रचना विधान का अतिक्रमण करती है. राम मय होने के लिए तुलसीदास जी ने राम लीला का आरम्भ किया और तदनुरूप जरूरी दृश्य विधान को अपनाते हुए ‘ रामचरितमानस’ की प्रेषणीयता को सहज साध्य बना दिया है. वस्तुत: दृश्य और पाठ्य अंशों का विनियोग तुलसीदास जी ने जिस खूबी से किया है वह इसे पाठक के लिए अनुभव-निकट बनाने और रसास्वादन में बड़ी सहायक हुई है. पूरी रचना में कवि सूत्रधार की तरह आता रहता है और पाठक को सम्बोधित भी करता रहता है और यह सब विना किसी व्यवधान के स्वाभाविक प्रवाह में होता है . ऐसा इसलिए भी हो पाता है क्योंकि तुलसीदास जी सिर्फ पुराण की कथा को पुन: प्रस्तुत ही नहीं करते बल्कि उसमें कुछ और भी शामिल कर नई रचना के रूप में उसे अधिक संवेदनीय बना कर पहुंचाते हैं.
यह भी गौर तलब है कि भक्त कवि तुलसीदास का मन लोक में भी अवस्थित है. वह अपने समय की चिंता से भी आकुल हैं और समकालीन समाज में व्याप्त हो रहे अंधकार से लड़ने का साहस जुटाने का यत्न भी किया है . वे यह मान कर चलते हैं कि उद्धार सम्भव है क्योंकि मनुष्य के रूप में जन्म लेना पुण्य का प्रताप होता है और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है. पर यह मानव जन्म साधन धाम है जिसका सदुपयोग करना चाहिए :
बड़े भाग मानुष तन पावा सुरदुर्लभ सद्ग्रन्थहि गावा , साधनधाम मोच्छ कर द्वारा पाइ न जेहि परलोक संवारा .
मनुष्य का शरीर अतुलनीय है जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता इसलिए कल्याण के पथ पर अग्रसर होना चाहिए : नर तन सम नहिं कवनौ देही , जीव चराचर जांचत तेही. नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी , ग्यान विराग भगति सुख देनी. एक मनुष्य के रूप में आचरण के लिए सबसे बड़ा धर्म दूसरों का कल्याण करना है: परहित सरिस धर्म नहीं भाई , पर पीड़ा सम नहिं अधमाई . गोस्वामी जी का दृढ विश्वास है कि अग्यान और भ्रम के कारण सांसारिक सुख प्रीतिकर हो जाता है और यह भूल जाता है कि मनुष्य ईश्वर का अंश, सदा रहने वाला, चेतन ज्ञान-स्वरूप है और सुख-राशि है : ईश्वर अंस जीव अविनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी . परमात्मा से विमुखता ही मनुष्य जीवन की मूल समस्या है , उनकी ओर दृष्टि होने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं: सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहि तबहीं.
अत: लोक में अवस्थित रह्ते हुए राम-कथा की प्रस्तुति का उपक्रम ईश्वर और मनुष्य के बीच की खाई को पाटने, उन्हें एक दूसरे के करीब लाने और अनुभव का हिस्सा बनाने के लिए किया गया. उनके श्रीराम जीवन भर संघर्षों के बीच और हर तरह की मानवीय जीवन की व्यथा को सहते हुए निखरते हैं. राम सबके हैं और सब जगह उपस्थित हैं- सिया राम मय सब जग जानी . सर्वव्यापी राम सर्वजनसुलभ भी हैं. यह जरूर है कि राममय होने के लिए एक खास तरह के विवेक की जरूरत पड़ती है जो मानस में अपने को डुबोने से या कहें राममय होने से ही आ सकती है. रामचरितमानस के विशाल कलेवर में मनुष्य जीवन के विस्तृत परिसर में पारस्परिक सम्बंधों के उतार-चढाव और अंतर्द्वंद का जैसा सजीव चित्रण हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है. श्रीराम इन सबके केंद्र में हैं. वे गांव, नगर, वन,पर्वत जहां कहीं जाते हैं, वहां उपस्थित सबसे उनका रिश्ता बन जाता है . वह सभी रिश्तों को निभाते हैं. वे निर्मल सहजता के प्रतीक हैं और और सबसे आत्मीयता रखना ही उनके जीवन का मूल सूत्र है.
सम्प्रदायों और मतों के दायरे से ऊपर उठते हुए तुलसी आम मनुष्य की पीड़ा से उद्वेलित हैं और उनकी भक्ति उसी के समाधान का उपाय प्रस्तुत करती है. उनका राम-राज्य राजनैतिक कम आध्यात्मिक स्तर पर जीवन्तता की सृष्टि करता है. व्यष्टि और समष्टि दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं और एक दूसरे पर अवलम्बित हैं. राम का स्नेह ऐसा होता है कि स्नेहपात्र इतना परिव्यापनशील हो उठता है कि राम को ही बांध लेता है . तभी तो ऐसे राम जिनको सकल जगत जपता है वे स्वयं भरत का जप करते दिखते हैं: भरत सरिस को राम सनेही , जगु जप राम रामु जपु जेही . राम चरित मानस के अयोध्या कांड मे भरत वचन की आशंसा कते हुए कहा गया है :
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे , अरथु अमित अति आखर थोरे , ज्यों मुखु मुकुर मुकुर निज पानी , गति न जाइ अस अद्भुत बानी .
भरत की बात मृदु मंजु अर्थात कोमल और प्रसाद गुण युक्त भी है और कठोर है . यह पूरे मानस का अभिप्राय भी है. भरत में ही राम के स्नेह की पूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है. भरत सिर्फ आज्ञाकारी नहीं हैं वे निर्वासित राम का पूरा दुख स्वयं अपने लिए वरण कर लेते हैं. राम की श्रेष्ठता या बड़प्पन इस तथ्य में है कि वे सबके हैं. उनके लिए कोई दूसरा नहीं है. भक्त से अधिक भगवान को भक्त की ओर उन्मुख कराया गया है. भक्त की सत्ता में ही भगवान की सत्ता है. श्रीराम ने वाल्मीकि से पूछा कि मैं कहां रहूं तो वाल्मीकि जी ने किंचित परिहासपूर्वक कहा कि ऐसी कोई जगह बताएं जहां आप हो नहीं. फिर भी आप हम से ही कहलाना चाहते हैं तो सुनें :
जिनके श्रवण समुद्र समाना कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना भरहिं निरंतर होंहि न पूरे तिनके हिय तुम्हार गृह रूरे.
जिनके कान के समुद्र में तुम्हारी कथा की अनेक सरिताएं(नदियां) आएं और भरती रहें पर समुद्र पूरा न हो. राम की कथा की निरन्तर चाह बनी रहे, तड़प बनी हो, तृप्ति न हो वहीं आपका घर है. राम चरित मानस की यही सर्थकता है. राम भाव का रस सतत प्रवाहित होता रहे . आज भी तुलसी एक ऐसे सशक्त कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं और उनकी कविता , मनुष्यता और नैतिकता के शिखर को स्पर्श करती है. यह जरूर है कि मानस के अर्थ ग्रहण करने के लिए एक मानस-भावित दृष्टि और संवेदना चाहिए : ‘अस मानस मानस चख चाहीं ‘
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:
गिरीश्वर मिश्र
Girishwar Misra, Ph.D. FNA Psy,
Special Issue Editor Psychological Studies (Springer), Former National Fellow (ICSSR),
Ex Vice Chancellor,Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya,Wardha (Mahaaraashtra)
Ex Head & Professor, Dept of Psychology, University of Delhi
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