जिस राजाभाऊ महाकाल के नाम पर उज्जैन के देवासेट पर बस स्टैंड बना है उस बस स्टैंड के आसपास के लोगों से लेकर शहर के लोगों और नई पीढ़ी तक उज्जैन के इस योध्दा के बारे में कुछ पता नहीं। 1992 के सिंहस्थ में देवासगेट बस स्टैंड की जगह नानाखेड़ा में बस स्टैंड बनाकर राजाभाऊ महाकाल की एकमात्र स्मृति को भी मिटा दिया गया।
गोआ मुक्ति आँदोलन के महान योध्दा के रूप में नारायण बलवंत राजा भाऊ महाकाल का नाम देश के स्वतंत्रता के इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। इस शहीद के परिवार को उज्जैन के समाज और सरकार ने सम्मान के नाम पर नगर निगम में किसी भी सभा के दौरान माईक लगाने की नौकरी दे दी थी। जब राष्ट्रपति भवन की ओर से गोआ मुक्ति आंदोलन के सेनानियों को सम्मानित करने को लेकर जिला प्रशासन को पत्र मिला तो प्रशासन को पता चला कि राजाभाऊ महाकाल कौन थे। हैरानी की बात ये थी कि राजाभाऊ महाकाल के परिवार के पास दिल्ली में राष्ट्रपति भवन जाने के लिए पैसे तक नहीं थे, प्रशासन की ओर से उनको सरकारी सहायता उपलब्ध कराकर दिल्ली भेजा गया।
1947 में भारत के स्वतंत्र हो जाने के बावजूद भी 450 वर्ष पहले पुर्तगाल के कब्जे में चले गए गोवा, दमन-दीव और नगर हवेली दादरा इत्यादि भारतीय क्षेत्र स्वतंत्र नहीं हो सकेI अतः इन सभी क्षेत्रों की स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1954 में गठित ‘सर्वदलीय मुक्ति आंदोलन’ को अपना सक्रिय समर्थन दियाI इससे भी आगे बढ़ते हुए संघ ने ‘आजाद गोमांतक दल’ का गठन करके गोवा की मुक्ति के लिए अपनी सारी शक्ति झोंक दीI
श्री महाकालेश्वर मंदिर के मुख्य पूजारी बालाभाऊ महाकाल ओर अन्नपूर्णा देवी के यहां 26 जनवरी 1923 को उज्जैन के पानदरीबा क्षेत्र में राजा भाऊ महाकाल का जन्म हुआ था । उज्जैन में प्रचारक रहे श्री दिगम्बर राव तिजारे के संपर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और उन्हीं की प्रेरणा से 1942 में वे संघ के प्रचारक बने। वे उज्जैन के पहले स्वयं सेवक थे। उनके बाद पद्मश्री स्व. विष्णुश्रीधर वाकणकर दूसरे स्वयंसेवक बने थे। उनके स्वयं सेवक बनने का किस्सा भी बेहद रोचक है। संघ के प्रचारक दिगंबर राव तिजारे पहले दिन ही उज्जैन पहुँचे थे और महाकाल मंदिर में दर्शन कर पास के ही मैदान में फुटबाल खेल रहे बच्चों के बीच चले गए। इसी बीच फुटबाल उनके पास आ गई और उन्होंने अपेन कब्जे में कर ली। राजाभाऊ महाकाल उनसे अपनी फुटबाल माँगने आए तो उन्होंने कहा कि तुम फुटबाल खेलने के साथ ही देश के लिए क्या कर सकते हो। देश के लिए कुछ करना है तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता बन जाओ। इस तरह राजा भाऊ महाकाल संघ के कार्यकर्ता भी बने और उज्जैन के महाकाल मंदिर के पास उनके प्रयासों से पहली शाखा भी प्रारंभ हुई।
सर्वप्रथम उन्हें सोनकच्छ तहसील में भेजा गया. वे संघर्षप्रिय तो थे ही; पर समस्याओं में से मार्ग निकालने की सूझबूझ भी रखते थे. सोनकच्छ तहसील के गांव पीपलरवां में एक बार मुसलमानों ने उपद्रव किया. वहां कुनबी जाति के हिन्दुओं की बस्ती में शाखा लगती थी. राजाभाऊ ने वहां जाना चाहा, तो पुलिस ने जाने नहीं दिया. इस पर राजाभाऊ रात के अंधेरे में महिलाओं के वस्त्र पहनकर वहां गये और रात में ही वापस लौट आये. उनके पहुंचने से हिन्दुओं का उत्साह बढ़ गया और फिर मुसलमान अधिक उपद्रव नहीं कर सके. 1948 के प्रतिबन्ध काल में अनेक प्रचारक घर वापस लौट गये; पर राजाभाऊ ने बाबासाहब के साथ सोनकच्छ में एक होटल खोल दिया. इससे भोजन की समस्या हल हो गयी. घूमने-फिरने के लिए पैसा मिलने लगा और होटल कार्यकर्ताओं के मिलने का एक ठिकाना भी बन गया. प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्होंने फिर से प्रचारक की तरह पूर्ववत कार्य प्रारम्भ कर दिया.
1955 में गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन प्रारम्भ होने पर देश भर से स्वयंसेवक इसके लिए गोवा गये. उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व राजाभाऊ ने किया. 14 अगस्त की रात में लगभग 400 सत्याग्रही सीमा पर पहुंच गये. योजनानुसार 15 अगस्त को प्रातः दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण प्रारम्भ होते ही सीमा से सत्याग्रहियों का कूच होने लगा. सभी लोग रत्नागिरी और फिर गोवा की सीमा के स्टेशन सरसोली पहुंचे। वहां पुर्तगालियों की फौज थी। सबसे पहले श्री बसंतराव ओक और उनके पीछे चार-चार की संख्या में सत्याग्रही सीमा पार करने लगे. लगभग दो कि.मी चलने पर सामने सीमा चौकी आ गयी. यह देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह दुगना हो गया. बंदूकधारी पुर्तगाली सैनिकों ने चेतावनी दी; पर सत्याग्रही नहीं रुकेे. राजाभाऊ तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे थे. यहाँ से एक नाला पार कर जैसे ही गोवा की सीमा में दाखिल हुए तो एक गांव मिला जो वीरान था। वहाँ एक बुजुर्ग महिला मिली। जब लोगों ने यहां पानी पीने की तैयारी की तो उसने इशारा किया कि यहां के पानी में जहर मिलाया गया है। सबसे पहले बसंतराव ओक के पैर में गोली लगी. तीन-चार गोलियां खाने के बाद भी उन्होंने तिरंगा नहीं छोड़ाI फिर पंजाब के हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी और वे गिर पड़े. अंत में उनके गिरने के तुरंत पश्चात सागर (मध्य प्रदेश) की एक महिला सत्याग्रही सहोदरा देवी ने तिरंगा अपने हाथों में थाम लियाI यह सत्याग्रही बहन इतनी बहादुर थी कि इसने बाएं हाथ पर गोली लगने के बाद दाएं हाथ में तिरंगे को थाम लियाI एक और गोली लगने के बाद यह वीर बेटी अचेत होकर गिर पड़ीI
इस वीरांगना के गिरने के तुरंत पश्चात उज्जैन जिला के प्रचारक राजाभाऊ महाकाल ने भारत माता के उद्घोष के साथ तिरंगे को संभाल लियाI गोवा पुलिस की ताबड़तोड़ गोली वर्षा के कारण राजाभाऊ गिर गएI एक अन्य स्वयंसेवक सत्याग्रही ने तिरंगे को पकड़ा और सत्याग्रहियों को आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित कियाI इस पर भी राजाभाऊ बढ़ते रहे. अतः सैनिकों ने उनके सिर पर गोली मारी. इससे राजाभाऊ की आंख और सिर से रक्त के फव्वारे छूटने लगे और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े. साथ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को संभाला और उन्हें वहां से हटाकर तत्काल चिकित्सालय में भर्ती कराया. उन्हें जब भी होश आता, वे पूछते कि सत्याग्रह कैसा चल रहा है; अन्य साथी कैसे हैं; गोवा स्वतन्त्र हुआ या नहीं.
चिकित्सकों के प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका. राजाभाऊ तथा अन्य बलिदानियों के शव पुणे लाये गये. वहीं उनका अंतिम संस्कार होना था. प्रशासन ने धारा 144 लगा दी; लेकिन जन सैलाब तमाम प्रतिबन्धों को तोड़कर सड़कों पर उमड़ पड़ा।. राजाभाऊ के मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने उन्हें मुखाग्नि दी. उनकी अस्थियाँ जब उज्जैन लाई गई तो नगरवासियों ने हाथी पर उनका चित्र तथा बग्घी में अस्थिकलश रखकर भव्य शोभायात्रा निकाली. बंदूकों की गड़गड़ाहट के बाद उन अस्थियों को पवित्र क्षिप्रा नदी में विसर्जित कर दिया गया. उज्जैन में निकली वो एक ऐसी ऐतिहासिक शवयात्रा थी जिसमें शामिल हजारों लोगों का कोई ओर -छोर ही नहीं नजर आ रहा था।