राजस्थान में बंद हो चुका एक रेलवे स्टेशन सिर्फ़ ग्रामीणों की इच्छा शक्ति और मेहनत के बूते चल रहा है. गांव वाले न सिर्फ़ रेलवे के दिए टार्गेट से ज़्यादा के टिकट ख़रीदते हैं बल्कि स्टेशन की देखरेख, यात्रियों के लिए पानी और अन्य चीज़ों की व्यवस्था भी करते हैं. और तो और टिकट काटने का काम और बेटिकट यात्रियों को रोकने का काम भी इन्हीं का है. उत्तरी-पश्चिमी रेलवे ने जयपुर डिविज़न के स्टेशन रशीदपुरा खोरी को 2005 में घाटे के चलते बंद कर दिया था.
आस-पास के गांव पलथाना, रशीदपुरा खोरी एवं प्रतापगढ़ की लगभग बीस हज़ार की आबादी यात्रा के लिए इस पर निर्भर है. पलथाना के निवासी रामू राम कहते हैं, “गांव वालों ने रेलवे को चिट्ठियाँ लिखीं, अधिकारियों के चक्कर लगाए, फिर सबने मिलकर आंदोलन किया.’’ साल 2009 में स्टेशन को दोबारा शुरू करने पर रेलवे राज़ी तो हुई लेकिन तीन लाख रुपए के टिकट ख़रीदे जाने की शर्त पर. मेहलचंद बताते हैं, ‘‘हमने चंदा कर पैसे कुछ माह में जुटा लिए और ट्रेनें चलने लगीं.” रेलवे की शर्त को पूरा करने के लिए एक-एक आदमी दस-दस टिकट लेकर सफ़र करता था.
पिछले छह साल से स्टेशन गांव वालों के भरोसे चल रहा है. समय-समय पर स्टेशन की सफ़ाई आस-पास के गांववाले करते हैं, स्टेशन पर मुसाफ़िरों के लिए पीने के पानी की सप्लाई भी गांववाले ख़ुद करते हैं. स्थानीय निवासी महेश सिंह के अनुसार गांव के कुछ लोग निगरानी करते हैं कि कोई भी बिना टिकट सफ़र न करें. शुरुआती कुछ समय तक टिकट काटने का काम ट्रेनों के गार्ड करते रहे पर बाद में टिकट काटने का ज़िम्मा खोरी गांव के विजय कुमार ने उठाया. वह पिछले पांच साल से स्टेशन पर टिकट काटने का काम कर रहे हैं. ट्रेनों के आने के समय वह स्टेशन पर टिकट काटने पहुंच जाते हैं. राजस्थान में बंद हो चुका एक रेलवे स्टेशन सिर्फ़ ग्रामीणों की इच्छा शक्ति और मेहनत के बूते चल रहा है.
गांव वाले न सिर्फ़ रेलवे के दिए टार्गेट से ज़्यादा के टिकट ख़रीदते हैं बल्कि स्टेशन की देखरेख, यात्रियों के लिए पानी और अन्य चीज़ों की व्यवस्था भी करते हैं.
और तो और टिकट काटने का काम और बेटिकट यात्रियों को रोकने का काम भी इन्हीं का है.
रेलवे की शर्त
उत्तरी-पश्चिमी रेलवे ने जयपुर डिविज़न के स्टेशन रशीदपुरा खोरी को 2005 में घाटे के चलते बंद कर दिया था.
आस-पास के गांव पलथाना, रशीदपुरा खोरी एवं प्रतापगढ़ की लगभग बीस हज़ार की आबादी यात्रा के लिए इस पर निर्भर है. पलथाना के निवासी रामू राम कहते हैं, “गांव वालों ने रेलवे को चिट्ठियाँ लिखीं, अधिकारियों के चक्कर लगाए, फिर सबने मिलकर आंदोलन किया.’’साल 2009 में स्टेशन को दोबारा शुरू करने पर रेलवे राज़ी तो हुई लेकिन तीन लाख रुपए के टिकट ख़रीदे जाने की शर्त पर. मेहलचंद बताते हैं, ‘‘हमने चंदा कर पैसे कुछ माह में जुटा लिए और ट्रेनें चलने लगीं.” रेलवे की शर्त को पूरा करने के लिए एक-एक आदमी दस-दस टिकट लेकर सफ़र करता था. पिछले छह साल से स्टेशन गांव वालों के भरोसे चल रहा है.
समय-समय पर स्टेशन की सफ़ाई आस-पास के गांववाले करते हैं, स्टेशन पर मुसाफ़िरों के लिए पीने के पानी की सप्लाई भी गांववाले ख़ुद करते हैं.
25 लाख की टिकट कटीं
स्थानीय निवासी महेश सिंह के अनुसार गांव के कुछ लोग निगरानी करते हैं कि कोई भी बिना टिकट सफ़र न करें. शुरुआती कुछ समय तक टिकट काटने का काम ट्रेनों के गार्ड करते रहे पर बाद में टिकट काटने का ज़िम्मा खोरी गांव के विजय कुमार ने उठाया. वह पिछले पांच साल से स्टेशन पर टिकट काटने का काम कर रहे हैं. ट्रेनों के आने के समय वह स्टेशन पर टिकट काटने पहुंच जाते हैं. विजय बताते हैं, “मैं पहले से ही लक्ष्मणगढ़ से एडवांस टिकट ख़रीद कर रख लेता हूं और बेचते वक़्त उस पर तारीख़ की मुहर मार देता हूं. जितने पैसे की टिकट बिकती है उसका 15 प्रतिशत कमीशन मुझे मिलता है.”
दोबारा शुरू होने के बाद इस रेलवे स्टेशन पर रोज़ 250 से ज़्यादा टिकट कटती हैं और अब तक लगभग 25 लाख रुपए की क़रीब साढ़े पांच लाख टिकटें काटी जा चुकी हैं.
विजय बताते हैं, “मैं पहले से ही लक्ष्मणगढ़ से एडवांस टिकट ख़रीद कर रख लेता हूं और बेचते वक़्त उस पर तारीख़ की मुहर मार देता हूं. जितने पैसे की टिकट बिकती है उसका 15 प्रतिशत कमीशन मुझे मिलता है.” दोबारा शुरू होने के बाद इस रेलवे स्टेशन पर रोज़ 250 से ज़्यादा टिकट कटती हैं और अब तक लगभग 25 लाख रुपए की क़रीब साढ़े पांच लाख टिकटें काटी जा चुकी हैं.
साभार- http://www.bbc.com/ से