प्रलेक प्रकाशन की यह पुस्तक सूची देखिए। इस के मालिक जितेंद्र पात्रो से पूछिए कि इतनी सारी किताबों को रखने के लिए दुनिया में उन के पास कहीं कोई गोदाम भी है क्या ? अगर नहीं है तो इतनी सारी किताबों को वह रखते कहां हैं ? हालां कि फ़ेसबुक पर वह अकसर लंतरानी झोंकते रहते हैं। यहां आफिस , वहां आफिस। हर किसी प्रकाशक का एक केंद्रीय दफ़्तर होता है। प्रलेक का पता भी मुंबई का लिखा मिलता है। दिल्ली में भी एक पता बदरपुर का लिखा मिलता है। इतनी बड़ी संख्या में किताब छापने वाले प्रकाशक का टर्न ओवर क्या है ? इनकम टैक्स क्या देता है ? जी एस टी क्या दिया है ? लेखकों को अब तक कितनी रायल्टी दिया है ? और इन लेखकों ने मिली रायल्टी का इनकम टैक्स भी दिया है क्या ? प्रकाशक ने टी डी एस भी काटा क्या ? इस सब को सार्वजनिक कर सकता है क्या यह प्रलेक प्रकाशक ? बिहार के एक लेखक को दस हज़ार रुपए का चेक एडवांस रायल्टी का दिया। लेखक इतना खुश हुआ कि फेसबुक पर चेक पोस्ट कर दिया। बाद में प्रकाशक ने कहा कि जब कहेंगे तभी बैंक में चेक लगाइएगा। वह दिन अभी तक नहीं आया। अब कोई पूछ सकता है कि यहां फेसबुक पर इन सब बातों को प्रलेक प्रकाशन से पूछने का क्या औचित्य है ?
औचित्य है। इस लिए कि यह प्रकाशक , प्रकाशन के नाम पर हिंदी लेखकों के साथ छल-कपट कर रहा है। झांसा दे रहा है। धोखा दे रहा है। ठगी कर रहा है। प्रकाशन के नाम पर नंबर दो का धंधा कर रहा है। धंधा कुछ और है , नाम प्रकाशन का है। सर्वदा झूठ बोलता है और लेखकों को धोखा देता है। छल करता है। पैसे ले कर किताब छापता है। एक दिन फ़ेसबुक पर ऐलान किया कि आज दिन भर में चालीस नई किताबों का ऐलान। क्या किसी प्रकाशक के लिए यह मुमकिन है ? चार किताबों का भी ऐलान भी नहीं कर पाया। आप इस प्रलेक प्रकाशन की किताबों की सूची को देखिए। ज़्यादातर दूसरे प्रकाशक के यहां पहले छप चुकी हैं। पांच-दस प्रतिशत किताबें ही नई हैं। वह भी लेखकों से पैसा ले कर। छपी हुई किताबों को छापना कौन सी बहादुरी है भला ? अच्छा इन किताबों की सूची में भी कितने अफसरों की किताबें हैं ? कितनी किताबें अफ़सरों की बीवीयों की हैं ? शिनाख़्त शब्द का जितना पतन इस प्रकाशक ने किया है शिनाख्त सीरीज चला कर , शायद ही कोई कर सके। सूची यही जानने के लिए नत्थी कर रहा हूं।
अच्छा क्या कोई टाइपिस्ट छ सौ पृष्ठ टाइप करने के लिए लाखो रुपए ले सकता है ? यह प्रकाशक यही बताते घूम रहा है। हम से बताया था कि छ सौ पृष्ठ टाइप करने के लिए टाइपिस्ट को अस्सी हज़ार रुपए दिए हैं। क्या यह मुमकिन है ? क्या मंगल ग्रह पर भेजा था , टाइप करवाने के लिए ? जब कि सच यह है कि टाइपिंग करवाने के बाद कई टाइपिस्टों को प्रलेक प्रकाशन ने पैसे ही नहीं दिए। 99 प्रतिशत लेखक टाइप करवा कर ही किताब देते हैं। फिर छापने के लिए भी पैसे देते हैं। पैसे दे कर किताब छपवाने वाले लेखकों को भी अब क्या कहें। न रीढ़ है , न स्वाभिमान।
एक से एक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को घिघियाते देख रहा हूं , प्रलेक प्रकाशन के आगे। एक से एक संपादकों को रिरियाते देख रहा हूं। अजब घालमेल है। फ़ेसबुक की एक पोस्ट पर भी कीड़ों की तरह रेंगते हुए पहुंचते , कोर्निश बजाते देख रहा हूं , कुछ लेखकों को। जितेंद्र पात्रो लिख दे कि आज मैं ने उठते ही पानी पिया , चाय बाद में पी। तो तमाम लेखक गज़ब , लाजवाब , बहुत सुंदर की टिप्पणियों सहित साष्टांग हुए दिखते हैं। मैं कोलकोता में हूं , जमशेदपुर में हूं , बनारस , इलाहाबाद और लखनऊ में हूं। लिखने पर भी बाकमाल कमेंट। लेखकों का यह रेंगना पहले वितृष्णा जगाता था , अब आनंद।
और यह जमशेदपुर वाला लेखक तो ग़ज़ब ही आनंद देता है। हर पोस्ट पर हाजिर। जमशेदपुर वाला यह लेखक कोर्निश बजाते हुए काश कि कभी दर्पण में भी खुद को देख लेता। क्या कभी इस ने इस के पहले कभी कोई प्रकाशक नहीं देखा। या ऐसा मगरमच्छ प्रकाशक नहीं देखा। फ़ोटो देख कर तो लगता है , लेखक ने गंगा नहा लिया है। चरम सुख पा गया है। जाने जमशेदपुर में डिनर और ड्रिंक का भुगतान लेखक नाम की मुर्गी ने किया या मुर्गी मार कर अंडे खाने वाले ने किया। यह किसी शोधार्थी को पता करना चाहिए। क्यों कि ज़्यादातर जगहों पर अभी तक यह व्यवस्था मुर्गियों के नाम सुनने को मिली है।
लेखक कमज़ोर होता है , रीढ़ हीन होता है , दिखावे का मारा होता है , तभी प्रकाशक मनबढ़ और चोर बनता है। लेखकों का मालिक बन कर उन्हें अपना बंधुआ बना लेता है। लेखक जब अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ सकता , प्रकाशक की कोर्निश बजाता फिरेगा तो व्यवस्था और सरकार से क्या घंटा लड़ेगा ? सिर्फ़ जुगाली और लफ्फाजी ही करेगा। बहरहाल प्रलेक प्रकाशन ने बीते साल मेरी भी दो किताबें प्रकाशित की हैं। बिना किसी अनुबंध के। अभी तक एक पैसे रायल्टी नहीं दी है। मैं ने दोनों किताबों की सौ-सौ प्रतियां मांगी थी। जितेंद्र पात्रो ने कहा कि अभी पचास ले लीजिए। बहुत कहने पर अभी तक सिर्फ़ बीस किताब ही दिया है। इस लिए कि इतनी ही प्रतियां छापी थीं। उस में भी प्रूफ़ की बेशुमार गलतियां। लाख कहने पर कोई अशुद्धि ठीक नहीं हुई। अमेजन का एक लिंक दिया कि इस लिंक पर किताब उपलब्ध है। एक बार फेसबुक पर वह लिंक लगाया। तो कई मित्रों ने बताया कि अमेज़न पर तो किताब है ही नहीं। जितेंद्र पात्रो का नंबर देते हुए लोगों से कहा कि इन से किताब के लिए पूछें। लोगों ने बात भी की। पर अभी तक अमेज़न पर किताबों का कोई अता-पता नहीं है।
यही हाल बाक़ी लेखकों और उन की किताबों का भी है। ज़्यादातर किताबों की दस-बीस प्रतियों का संस्करण ही प्रलेक प्रकाशन छापता है। जितेंद्र पात्रो किताबों के बाज़ार में नहीं , लेखकों के बीच ही अपना बाज़ार तलाश लेते हैं। लेखक को फ़ोन कर सौ-दो सौ किताब ख़रीदने के लिए कहते हैं। लेखक ने पैसा भेज दिया तो बल्ले-बल्ले ! नहीं दिया तो किताब नहीं छपती। या फिर लेखक अफ़सर हो या लेखिका का पति अफ़सर हो। उस अफ़सर से हज़ार कामों की दलाली शुरु हो जाती है। तब किताब छप जाती है। प्रकाशक तो अभी दो साल से बने हैं , जितेंद्र पात्रो। इस के पहले क्या करते थे ? बताते हैं कि प्रकाशक बनने के पहले भी जितेंद्र पात्रो आर्थिक घपलों के लिए परिचित रहे हैं।
प्रलेक प्रकाशन का अधिकार जिन अशोक चक्रधर के मार्फ़त उन्हें मिला है , सुनते हैं उन अशोक चक्रधर से भी जितेंद्र पात्रो के संबंध इन्हीं हरकतों के कारण अब छत्तीस वाले हो चले हैं। जितेंद्र पात्रो असल में मुर्गी मार कर अंडे खाने के अभ्यस्त हैं। अब लेखक समुदाय इन की नई मुर्गी है। और तमाम यश:प्रार्थी लेखक जितेंद्र पात्रो के जाल में लिपटे जा रहे हैं। छपास रोग के मारे यह लेखक ग्रास बनते जा रहे हैं। इसी लिए यहां सार्वजनिक रुप से प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो से खुला प्रश्न है कि इतनी बड़ी संख्या में किताब छापने वाले प्रकाशक का टर्न ओवर क्या है ? जी एस टी क्या है ? इनकम टैक्स क्या देता है ? लेखकों को अब तक कितनी रायल्टी दिया है ? इस सब को सार्वजनिक कर सकता है क्या यह प्रकाशक ? इस का सार्वजनिक जवाब मिलना चाहिए। मैं अपनी दोनों शेष किताबों की बकाया प्रति और साल भर की रायल्टी की मांग करता हूं , प्रलेक प्रकाशन से। नैतिकता हो तो दे दे। अनैतिक और झूठा तो वह है ही। जितेंद्र पात्रो सुन रहे हैं ?
अरे कथा-लखनऊ , कथा-गोरखपुर की याद है आप मित्रों को ? बड़े ताव में आ कर कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के नए संपादकों का ऐलान किया था जितेंद्र पात्रो ने एक लाइव कार्यक्रम में। तमाम कीड़े रेंगते हुए पहुंचे थे वाह-वाह करने। पर कुछ स्वाभिमानी लेखकों ने कहानी और लेखकों की सूची मांगी। जो आज तक नहीं मयस्सर हुई। और तो और गोरखपुर के लिए नामित संपादक ने तो मुझे फ़ोन कर साफ़ बता दिया कि मैं तो यह नहीं कर रहा। मुझ से बिना पूछे मेरे नाम का ऐलान कर दिया गया। दस दिन पहले बनारस में एक स्त्री अध्यापिका को संपादक बनाया है , कथा-गोरखपुर के लिए। जिन का साहित्य से पढ़ाने के अलावा कोई सरोकार नहीं। वह इन को , उन को फ़ोन कर रही हैं कहानी के लिए। पर उन को कितनी कहानियां मिल पाई हैं , वही जानें। यही हाल कथा-लखनऊ का भी है। सोचिए कि प्रलेक प्रकाशन की साख इतनी ज़्यादा है कि लखनऊ और गोरखपुर में उन्हें एक संपादक नहीं मिल पाया है। थोड़ा कहना , बहुत समझने वाली बात है। पर कथा लंबी है। हो सकता है , अगली कथा इसी प्रसंग पर बांचूं। फिर सोचता हूं बिचारे इन बच्चों का क्या कुसूर। उन्हें तो बस झाड़ पर चढ़ा दिया गया है एक फरेबी और फ्राड प्रकाशक द्वारा। संपादक बना दिया गया है , कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर का।
मुख़्तसर यह कि आप को मालूम ही है कि बीते 20 अप्रैल , 2022 को हम ने कथा-लखनऊ के 15 खंड और कथा-गोरखपुर के 8 खंड अपने सरोकारनामा पर प्रकाशित कर दिए हैं। कथा-लखनऊ में 176 कहानियां और कथा-गोरखपुर में 76 कहानियां हैं। अभी कुछ और कहानियां जुड़ेंगी। जल्दी ही प्रिंट भी सामने होगा। काम जारी है। अब इस के बाद कोई करेगा भी तो क्या करेगा ? सिवाय बरजोरी के। संपादकाचार्य आदरणीय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी आ जाएंगे तो मेरी पीठ थपथपा कर इतिश्री कर लेंगे। क्यों कि इस में अब कुछ शेष नहीं रह गया है। हां , अगर कोई नया या पुराना संपादक या प्रकाशक इन कहानियों को बिना लेखकों या उन के परिजनों की अनुमति के बिना एक भी कहानी छुएगा तो उस की ख़ैर नहीं। यह बात संबंधित लोग बड़े प्रेम से नोट कर लें तो ख़ुशी होगी।
हां , सवाल , प्रसंग और क़िस्से अभी और भी कई शेष हैं। मुसलसल जारी रहेंगे।
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