आज आप से बातें करने का बड़ा मन हो रहा है, वो भी खूब सारी बातें, ढेर सारी बातें। लेकिन कहां से शुरू करूँ, कैसे करूँ …अरे यह भी कोई बात हुई…बातें तो कहीं से, किसी भी बात से प्रारम्भ की जा सकती हैं । हाँ ,एक बार शुरू हो जाये तो फिर बाते हैं कि रूकने का नाम तक नहीं लेती। जनाब. यह तो बातें हैं, और बातों का क्या। लेकिन ऐसा भी नहीं है, अरे, मैं कहाँ अटक गई, चलिये बातें शुरू कर ही देते हैं। इससे पहले कि आपको ये गीत याद आ जाए… “कसमें, वादे, प्यार, वफा…सब बातें हें बातों का क्या”।
हाँ, तो कितनी ही बार, बात केवल और केवल बात की ही होती है। भले यूँ कोई बात नहीं होती। प्रतिष्ठा का सवाल हो या कोई और। जहाँ बात आन- बान -शान की हो तो, वहाँ फिर “प्राण जाए पर वचन न जाए……।”बात की आबरू बचाने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता. मेरा ही एक शैर :
“बात की आबरू बचाई है
हमने तोड़ी नहीं, बनाई है”
कभी – कभी बातों ही बातों में बात बन जाती है तो कभी बात बिगड भी जाती है।क्योंकि एक बार धनुष से निकला तीर वापस आ भी सकता है, लेकिन बात निकल जाने पर वापस कदापि नहीं लौटती। इसीलिए बी.एम. सुमन को कहना पड़ा………
“कोई भी बात ऐ हमदम, हमसफर सोचकर करना
ज़रा सी बात पर बरसों का रिश्ता टूट जाता है”।
यूँ बातें केवल बातें ही नहीं होती, ये भी कर्ई – कई प्रकार की होती हैं, जैसेः प्यारी बातें, मीठी- मीठी बातें, कड़वी बातें, टेडी बातें, खरी बातें, झूठी बातें, सीधी – साधी बातें, तिरछी बातें, छोटी बातें,बड़ी बातें आदि आदि।लेकिन बड़ी बात तो ये है कि………
“यह तो कोई बड़ी बात नहीं” या “अरे इस में कौन सी बडीं बात है”। वास्तव में कोई बड़ी बात होती ही नहीं है. छोटी – छोटी बातों का समग्र रूप है तथा कथित बड़ी बात”।
(डेस्क़ फ्रेण्डस हेल्पलाईन, कोटा)
और इसी बात पर किसी ने क्या खूब कहा है ……
“बात चाँदी है, बात सोना है
बात हीरा है बात मोती है
बात हर बात को नहीं कहते
बात मुश्किल से बात होती है”।
बात को लेकर सबसे स्मरण रखने वाली बात यह है कि हर बात कहने का एक वक्त होता है, वक्त की नज़ाकत को देखते हुये बात रख देना चाहिये। वर्ना कहीं ऐसा न हो कि “वक्त निकल जाए और बात रह जाए”। अतः इस बात का बहुत बहुत ध्यान रखना चाहिये। सबसे बड़ी बात यही है, ताकि बाद में पछताना नहीं पडे.।
बातों को लेकर कर्ई – कई बातें भी प्रचलित हैं, मुहावरे भी। कहते हैं बात निकलेगी तों दूर तक जायेगी। इसलिये कुछ लोग तो बातों से ही चाँद, तारे तोड़ लाते हैं, हकीकत में भले ही कुछ करते – धरते नहीं बने…… भला यह भी कोई बात है। इसी प्रकार कुछ लोग बात के धनी होते हैं, तो कुछ बातों के शहंशाह, कुछ केवल बातें ही करते हैं…|
“काम – वाम करते नहीं, है बातों के शाह.
नाव देश की क्या तिरे , ले डूबे मल्लाह”…. कृष्णा कुमारी
तो कुछ बात पर अड़ ही जाते हैं, कुछ इस प्रकार “बात पर अपनी अडे हैं, तोड़ने को दिल खड़े है”। क्योंकि कहीं भी अड़ जाने पर कुछ हानि होती ही हैं।
बातों की बात पर याद आया है कि हर व्यक्ति का अन्दाज़े – बया जुदा – जुदा होता है। किसी के बात करने पर शहद की तरह रस टपकता है तो किसी के बतियाने पर फूल झड़ते हैं तो किसी के बोलते ही चाँद खिल उठता है। अपना अपना सलीका है भाई ……क्या कीजै। हाँ, ऐसे व्यक्तियों से बात करने का लोभ भला कौन सँवरण कर सकता है।
देखिऐ इसी संदर्भ में किसी ने क्या खूब कहा है….
“सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं.” (अहमद फराज)
हाँ, बातों का सिलसिला कुछ इस प्रकार होता है……
“ज्यों केले के पात, पात में पात, पात में पात,
ज्यों गधे की लात, लात में लात, लात में लात,
ज्यों चतुरून की बात, बात में बात, बात में बात”
और बात द्रोपदी के चीर की तरह लम्बी होती जाती हैं. होती जाती हैं, होती जाती हैं। हाँ, तो मेरी बात भी द्रोपदी के चीर की तरह लंबी हो जाए इस के पहले छोटा सा ब्रेक ले लेते हैं ताकि आप इस बीच अपनों से कुछ बात कर सकें।
आफ्टर द ब्रेक़ ब्रेक तो समाप्त हो जाता है, लेकिन कभी – कभी बातों के बीच ऐसा ब्रेक सा लग जाता है कि लाख चाहते हुए, कोशिश करते हुए भी बात मुँह से निकलने का नाम ही नहीं लेती। होठों पर आकर रूक जाती है । कुछ कह नहीं पाते और जीवन भर पछताते रहते हैं। यही सोचकर कि काश. उस समय वो बात कह दी होती। लेकिन मन की बात कह देना इतना आसान भी तो नही होता…… कैसे कहूँ, कैसे कहूँ,…कह दिया तो सामने वाला क्या सोचेगा,….इसी कशमकश में समय की गाड़ी निकल जाती है, हद तो तब हो जाती है जब कहना कुछ और होता है, कह कुछ और देते हैं –
कहना कुछ था, कह गए कुछ और ही,
यूँ जुबां का लड़खड़ाना इश्क़ है।
कितनी ही बार सामूहिक रूप से खूब बातें चलती रहती हैं लेकिन अचानक सब चुप हो जाते हैं। कुछ देर के लिए. महफिल में सन्नाटा छा जाता है, सब एक दूसरे का मुँह देखने लग जाते हैं। किसी से कुछ कहते नहीं बनता, ब्रेक हो जाता है तक कोई एक़ कैसे न कैसे, कोई भी छेडकर खामोशी को चुप करता है और बात सम्भाल लेता है, तो कभी- कभी हर कोई अपनी अपनी बोलता जाता है,सुनता कोई नही, अमूमन ऐसा भी होता है। यानी कि जितना आसान बातें करना है उतना ही मुश्किल भी। कभी -कभी तो बात करने के लिए कोई विषय ही नहीं मिलता तो ऐसे में मौसम से बात प्रारम्भ कर ली जाती हैं, क्योंकि यह सबसे अहम और प्रचलित विषय जो है। यहाँ पर रचनाकार बृजभूषण चतुर्वेदी जी के कुछ शेर याद आ रहे र्है :
“भूखे से भगवान की बातें
रहने दे ये ज्ञान की बातें
हाथो में पहले रोटी रख
फिर करना ईमान की बातें।
पूछो जाकर किसी दीये से
आँधी औ’ तूफान की बातें”।
वाकई भूखे भजन न होय गुपाला। जरूरी नहीं कि बातें परिचितों से ही होती हों, अपरिचितों में भी खूब जमकर बातें हो जाया करती हैं,बस एक बार सिलसिला शुरू होने की देर होती है बस। ट्रेन आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ट्रेन में एकदम अजनबियों के बीच या तो पूरे रास्ते बात हाती ही नहीं,क्यों कि पहल कैसे हो, यह बड़ी बाधा होती है और यदि कोई एक दुस्साहस कर ले तो बातों ही बातों में बातों का कारवाँ ऐसा चलता है कि रूकने का नाम तक नहीं लेता चाहे मंजिल पर आकर रेल खुद ठहर जाये। हाँ,विषयगत वैविध्य यहाँ कमाल का होता है। एक और बात कि बातें करने के लिए महिलाओं को खूब बदनाम किया हुआ है। उन्हें बातूनी होने के खिताब से नवाज़ा जा चुका है। जब कि पुरूष वर्ग इस प्रतिस्पर्धा में उन से सात कदम आगे हैं। चलिए, छोड़िये, कोई बात नहीं. यह कोई बडी. राष्ट्रीय समस्या नहीं है। न ही विवाद का मुददा ही। लेकिन पुरूषों में एक वर्ग ऐसा भी है जो बोलतें नहीं हैं, परन्तु भीतर ही भीतर ट्रेन की सीटी की तरह चीखते रहते हैं, कुछ इस प्रकार :
“जो लोग बोलते नहीं/ भीतर ही भीतर /
ट्रेन की सीटी की तरह /दहाडते हैं…” कृष्णा कुमारी
ऐसे लोग मन ही मन में घुटते रहते हैं और यही घुटन कभी आक्रोश बनकर फूट पड़ती है और महाविस्फोट का रूप ले लेती है। यह स्थिति बड़ी भयानक होती है ।और महिलाएँ हैं,कि कोई सुने न सुने,बस अपने मन की तमाम बातों को उडेलती जाती हैं, बोलती जाती हैं, बड़बड़ाती रहती हैं, खुद से ही बातें करती रहती हैं, इसीलिए हमेशा बरस चुके मेघों की भाँति फुल्की-फुल्की रहती हैं। इस में बुरा भी क्या है भला। कहा भी गया है कि महिलाओं के पेट में बात नहीं टिकती। इन्ही संदर्भों से मेल खाती कुछ पंक्तियॉं अर्ज हैं ………
“होती है महिलायें / बहुत बातूनी /बिलकुल नदी की तरह / बातों ही बातों में …….
एक ही बात से गढ़ लेना/ महाकाव्य /इनके बायें हाथ का खेल है……” (कृष्णा कुमारी)
कुल मिलाकर, हर जगह सन्तुलन जरूरी होता है। हाँ, मिलकर बैठकर बात करने से समस्या का हल जरूर निकल जाता है और हाँ, बातो में संतुलन नहीं रहने पर या तो बातें बहुत होती हैं या फिर मौन पसर जाता है। अधिक बातें होने पर वक्त जाया होता है जो बहुत ग़लत है। आजकल तो फोन पर ही लोग धण्टो बतियाते रहते हैं क्योंकि फोन कंपनियो में सस्ती सुविधायें मुहैया करवा रखी है। इस से दो कदम आगे, चेटिंग का तो भगवान ही मालिक है……… मुझे कुछ नहीं कहना। हाँ. मैं आपको बातें करने से मना नहीं कर रहीं हूँ क्योंकि कब, किससे, कितनी बातें करनी है, आप खुद समझते हैं। सौ बात की एक बात ये है हुजूर, जैसा कि श्री कृष्ण एक प्रसंग में बलराम से कहते हैं – “मैं सौ बार सोच कर बोलता हूँ और तुम बोल कर सौ बार सोचते हो।” आप समझ ही गए मेरा आशय….। अत:, कुछ भी बोलने से पहले समय, परिस्थिति, प्रसंग, सामने वाले की मन: स्थिति को ध्यान में रख कर नपे तुले शब्दों में, विनम्रता के साथ, मीठी वाणी में,अपनी बात रखिये,फिर देखिये, आपकी बात का जादू की तरह प्रभाव होगा, और फिर सौ बार सोचना भी नहीं पड़ेगा।
वक़्त बेवक़्त कुछ कह देने से, बात हवा में उड़ सकती है, उसका ग़लत असर भी सम्भव है, इसलिए, लाख टके की बात – ‘पहले तोलिये, फिर बोलिये ‘। चलिये, अपनी बात को यहीं विराम देती हूँ, वर्ना निबन्ध की जगह पूरा एक ग्रंथ तैयार हो जायेगा। आप ने इतनी देर तक पूर्ण मनोयोग से मेरी बात को सुना, तहे दिल से शुक्रिया और चलते चलते मुलाहिजा फरमाएँ :
“छोड़ो ये किरदार की बातें।
और है कुछ संसार की बातें।
कश्ती है न खिवैया कोई
फिर भी हैं. मझधार की बातें।
‘कृष्णा’ कब मंजूर जहाँ को
क्यूँ करती हो प्यार की बातें।”