Sunday, November 24, 2024
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बाघ की खाल देखकर इंदिरा गाँधी ने क्या लिखा था….

आज पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 101वीं जयंती है. इस मौके पर पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की किताब ‘इंदिरा गांधी: प्रकृति में एक जीवन’ का लोकार्पण यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया.

किताब के बारे में बात करते हुए रमेश ने कहा कि दुनिया इंदिरा गांधी को आयरन लेडी की तरह जानती है, जो सच भी है. लेकिन यह किताब पर्यावरण के प्रति संवेदनशील इंदिरा गांधी का वर्णन करती है. किताब में इंदिरा प्रियदर्शिनी के बचपन में उन्हें उनके पिता जवाहरलाल नेहरू की तरफ से लिखे गए प्रकृति पत्रों का उपयोग है. इसके अलावा इंदिरा गांधी द्वारा अपने पुत्र राजीव गांधी को सिखाए गए पर्यावरण के सबक का भी जिक्र है. रमेश ने कहा कि इन तीन पीढ़ियों के बीच का पत्राचार या भारत के तीन प्रधानमंत्रियों के बीच चले पत्राचार से पर्यावरण के प्रति पनपी संवेनशीलता की संस्कृति का पता लगता है.

इस पर्यावरण प्रेम को देखना हो तो इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को 7 सितंबर 1956 को जो पत्र लिखा उसे देखिए:

‘‘हमें तोहफे में एक बड़े बाघ की खाल मिली है. रीवा के महाराजा ने केवल दो महीने पहले इस बाघ का शिकार किया था. खाल, बॉलरूम में पड़ी है. जितनी बार मैं वहां से गुजरती हूं, मुझे गहरी उदासी महसूस होती है. मुझे लगता है कि यहां पड़े होने की जगह यह जंगल में घूम और दहाड़ रहा होता. हमारे बाघ बहुत सुंदर प्राणी हैं. और इतने राजसी हैं. उनकी चमड़ी के नीचे उनकी मांसपेशियों की हरकत, बाहर से भी देखी जा सकती है. कितने कम समय पहले ही यह जंगल के जानवरों को डराता, जंगल का राजा रहा होगा. मुझे खुशी है कि आजकल ज्यादा से ज्यादा लोग जंगल में जाते हुए बंदूकों की जगह कैमरा लेकर जाते हैं. यह कितने शर्म की बात है कि अपनी खुशी के लिए हम किसी से जीने की खुशी छीन लें.’’

जब यही इंदिरा प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठीं, तो उनका पर्यावरण प्रेम बना रहा. किताब के पेज 243 पर रमेश लिखते हैं:

‘‘इंदिरा गांधी के आईयूसीएन में बहुत अच्छे संबंध थे. 1972 में प्रोजेक्ट लॉयन और अप्रैल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर की अंतरराष्ट्रीय फंडिंग में आईयूसीएन ने काफी मदद की थी. इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि आईयूसीएन ने दिल्ली को वर्ल्ड कंजर्वेशन स्ट्रेटजी के लिए चुना.’’

इसके बाद 6 मार्च के भाषण में इंदिरा गांधी ने लोगों को हैरत में डाल दिया:

‘‘मैं औद्योगिक देशों के विकास के तरीकों की हमेशा आलोचना करती रही हूं. ऐसा इसलिए नहीं कि हम लोग ज्यादा समझदार हैं बल्कि इसलिए कि हम खुद को विकासशील कहते हैं और उन देशों की नकल करने की कोशिश करते हैं. हमने अब तक विकास की कोई शोषणरहित नीति विकसित नहीं की है. गरीबों की रोजगार की जरूरत, दलालों की फायदे की भूख, कारखानों की मांगें और प्रशासकों के दूर तक न देख पाने के कारण पर्यावरण की नई समस्याएं पैदा हो गई हैं. यह देखना उदास करता है कि सैंपल जमा करने के चक्कर में कई वैज्ञानिकों ने भी हिमालय के तराई क्षेत्र के ऑर्किड और अन्य पौधों के लुप्त होने में भूमिका निभाई है. जिस तरह हम अपने जंगलों और पहाड़ों का शोषण कर रहे हैं, यह बहुत खतरनाक है, इसकी वजह से भूस्खलन, बाढ़ और नदियों के तलों के उथले हो जाने जैसी परेशानियां हो रही हैं. कई जमीन के टुकड़े खारे हो गए हैं और उनमें नमक की मात्रा बढ़ गई है.’’

इस किताब में इस तरह के उद्धरणों की पूरी श्रंखला है जो न सिर्फ इंदिरा गांधी और प्रकृति के रिश्तों को दिखाती है, बल्कि इस रिश्ते के बहाने से भारत के नवनिर्माण और इंदिरा गांधी के जीवन की कहानी सुनाती है. यह किताब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित की है.

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