‘भारत-रत्न’ सम्मान को देश का सबसे ऊंचा सम्मान कहा जाता है, लेकिन इस बार जिन तीन लोगों को यह सम्मान दिया गया है, उन्हें देकर ऐसा लगता है कि मोदी सरकार अपना अपमान करवा रही है। कई अखबारों और टीवी चैनलों ने इन सम्मानों के पीछे कई दुराशय खोज निकाले हैं।
प्रणव मुखर्जी को इसलिए भारत-रत्न बनाया गया है कि प. बंगाल में ममता लहर को रोकना है। यह लहर अब बंगाल के बाहर भी फैलती नजर आ रही है। भूपेन हजारिका को इसलिए भारत-रत्न दिया गया है कि नागरिकता कानून के विरोध में असम में चल रही बगावत पर काबू पाना है और नानाजी देशमुख को मोदी सरकार ने इस आखिरी वक्त पर इसलिए याद किया है कि अनुसूचित अत्याचार कानून और राम मंदिर पर नाराज चल रहे हिंदू संगठनों का गुस्सा उसे ठंडा करना है।
मोदी सरकार के भारत-रत्नों की यह चीर-फाड़ इतनी तर्कसंगत लग रही है कि हम चाहते हुए भी उसे रद्द नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे शब्दों में भारत-रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान को भी यह सरकार अपना चुनावी हथकंडा बनाने से नहीं चूक रही है। लेकिन, इसके लिए सरकार की निंदा क्यों की जाए? सरकार बनाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद-जिसका भी प्रयोग करना पड़े, करना ही होता है। सरकार कोई सम्मान और पुरस्कार दे और उसमें भेद-भाव न करे, अपने-पराए का भाव न रखे, अपने हित-अहित का ध्यान न रखे, यह कैसे हो सकता है? इसीलिए, उन सम्मानों और पुरस्कारों की हैसियत सिर्फ कागजी रह जाती है, जो सरकारों द्वारा दिए जाते हैं।
यदि सरकारें शुद्ध योग्यता, गुण और श्रेष्ठता के आधार पर सम्मान देने लगें तो उनका सरकारपना ही खत्म हो जाएगा। इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार सभी सम्मान मनमाने देती है। कुछ तो योग्य लोगों को भी देने ही पड़ते हैं, लेकिन आश्चर्य होता है जब प्रणव मुखर्जी जैसे नौकरशाह किस्म के अ-नेता को आप भारत-रत्न बनाते हैं और डॉ. राममनोहर लोहिया, चंद्रशेखर और नंबूदिरिपाद जैसे विचारशील, जीवनदानी और तपस्वी नेता आपकी नजर से ओझल हो जाते हैं। नानाजी देशमुख विलक्षण व्यक्ति थे। उनसे मेरा घनिष्ट परिचय भी था, लेकिन क्या उनके पहले गुरु गोलवलकरजी को भारत-रत्न दिया जाना ठीक नहीं होता? स्वयं नानाजी होते तो वे भी यही कहते। दूसरे शब्दों में यह सरकार कोई भी निर्णय करते समय अपने दिमाग को इस्तेमाल करने से परहेज़ करती है।