जब नीरद सी. चौधरी ने अपनी पहली पुस्तक ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित की, तो भारतीय बौद्धिकों और नेताओं की प्रतिक्रिया नाक-भौं चढ़ाने की रही। आज सात दशक बाद भी नीरद बाबू को ‘अंग्रेजों का पिट्ठू’ कहकर छुट्टी करने जैसी भावना ही अधिकांश बौद्धिकों में है। पुस्तक पढ़ कर अपनी राय बनाने वाले तब भी नगण्य थे। आज तो हालात गिरने की सीमा ही नहीं रही।
नीरद चौधरी ने1959 ई. में आई अपनी पुस्तक ‘द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन’ के समर्पण में लिखा था, “… हम (भारतीयों) में जो भी अच्छा, जीवन्त था उसे बनाने, आकार देने और बढ़ाने का काम उसी ब्रिटिश राज ने किया।” तब से किसी ने नीरद बाबू की बातों का, जो उन की अगली कई पुस्तकों में व्यवस्थित रूप से आती रहीं, कोई सटीक खंडन नहीं किया। अंग्रेजों को खरी-खोटी और अपनी महानता की लफ्फाजी ही पर्याप्त समझी गई। वही पुरस्कृत, प्रचारित होती रही।
तब से तीन चौथाई सदी बीत चुकी। आज सभी क्षेत्रों में तुलना करके देख सकते हैं कि ब्रिटिश काल से हम ने किस क्षेत्र में अधिक गुणवत्ता हासिल कर दिखाई है? उद्योग, व्यापार, और संचार का विकास काफी कुछ तकनीकी के विकास से जुड़ा है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानवीय उपलब्धियाँ हैं। नये-नये आविष्कारों ने उस का मार्ग प्रशस्त किया, जिस के लिए हम स्वत: श्रेय नहीं ले सकते।
वैसे भी, गत सात दशकों में तमाम नये आविष्कार पश्चिम ने ही किए हैं। चंद्रशेखर रमण, जगदीश चन्द्र बसु, मेघनाद साहा, या होमी भाभा जैसे वैज्ञानिक भी ब्रिटिश राज में ही हो सके। स्वतंत्र भारत में भाई-भतीजावाद, नित बढ़ते रिजर्वेशन, जातीय द्वेष, भ्रष्टाचार, और दलीय राजनीतिक दबावों ने प्रतिभाओं को देश से बाहर भगाने की प्रवृत्ति बनाई।
शिक्षा में भारतीय भाषाओं का अभूतपूर्व पतन स्वतंत्र भारत में हुआ। ब्रिटिश राज में भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य रचे जाते रहे। टैगोर, निराला, भारती, आदि मनीषी ब्रिटिश भारत में हुए। तब साहित्य शिक्षा में सर्वोत्तम भारतीय रचनाएं पढ़ाई जाती रहीं। स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक योग्य शिक्षक ही नियुक्त और प्रोन्नत होते थे। यह सब स्वतंत्र भारत में तेजी से गिरता गया।
प्रशासन में विश्वास भी स्वतंत्र भारत में बेतरह गिरा। राजनीतिकरण, उत्तरदायित्वहीनता, कामचोरी, भ्रष्टाचार, और अयोग्यता का बोलबाला होता गया। किसी भी पैमानों पर यह परख हो सकती है। ब्रिटिश राज के साधारण सिपाही से भी सब डरते थे। आज एस.पी. को भी अपनी चिन्ता रहती है, भौतिक और कैरियर, दोनों तरह से। आज सत्यनिष्ठ अधिकारी को कहीं भी राजनीतिक दलीय हस्तक्षेप उचित काम करने नहीं देता। यह ब्रिटिश राज में अकल्पनीय था। आज उच्च पदों पर अधिकांश नियुक्तियाँ योग्यता को दूर फेंक कर की जाती हैं। ब्रिटिश राज योग्यता को ही मूल आधार रखता था, चाहे अधिकारी अंग्रेज हो या भारतीय।
स्वतंत्र भारत में शासकों का अधिकांश समय और संसाधन एक-दूसरे को नीचा दिखाने, गिराने में जाता है। वास्तविक राजकाज की उपेक्षा करते हुए दलीय प्रतिद्वंद्विता मुख्य, स्थाई धंधा है। वह भी राजकीय संसाधनों और समय का अनुचित अपव्यय करके। ब्रिटिश राज में किसी शासक, अधिकारी, आदि द्वारा अन्य शासक, अधिकारी को गिराने के लिए खुल कर लगे रहना अकल्पनीय था। फलत: शासन एकदिश, कुशल, और पूरे देश में तालमेल से चलता था। आज विभिन्न दलों, और एक दल में भी आपसी मार-पेंच शासकों का भारी समय खाती है। नतीजन प्रशासन बाबू-भरोसे जैसे-तैसे चलता है।
स्वतंत्र भारत में राजकीय विभाग और निर्माण अबाध बढ़ते गये हैं। बिना अधिक सोच-विचार और गुणवत्ता की परवाह किए। प्रायः उन का उद्देश्य कुछ और होता है, या हो जाता है। घोषित उद्देश्य कागजी रह जाते हैं। भ्रष्टाचार और दलीय, निजी हित-साधन असल उद्देश्य होता है या जल्दी बन जाता है। फलत: घटिया, अनावश्यक निर्माण संपूर्ण राजकीय क्षेत्र का नियमित धंधा बन गया है। बनते-बनते पुल, या बिल्डिंग गिर जाने पर भी कार्रवाई नहीं होती। ऐसा ब्रिटिश राज के दो सौ साल में एक भी नहीं मिलता। उन के बनाए भवन, मामूली पुलिए , खुले आसमान के नीचे बने सीमेंट के बेंच तक डेढ़-डेढ़ सौ सालों से मजबूती से टिके हुए हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक और बाहरी दोनों में, स्वतंत्र भारत की दुर्गति आकलन से बाहर है। जहाँ अंग्रेजों ने सदियों से भारत में चल रही हिंसा, उत्पीड़न, आदि को नियंत्रित कर अंदर-बाहर सुरक्षित किया। वहीं भारतीय शासकों ने सत्ता लेते-लेते ही देश के टुकड़े कर करोड़ों भारतीयों को देश बाहर, लाखों को शरणार्थी बनाकर बेतरह अपमान का शिकार होने की हालत में पटक दिया। वह भी, बिना नोटिस दिए! १९४७ ई. के भारत विभाजन को एक इतिहासकार ने ‘मानवता के इतिहास में सब से बड़ा विश्वासघात’ कहा है, जो भारतीय नेताओं ने अपनी जनता के साथ किया। उस के बाद भी कश्मीर, बंगाल, केरल, तमिलनाडु, गुजरात, बिहार, आदि अनेक प्रांतों में अनेक जिलों और स्थानों में हिन्दू नागरिकों का जीवन और सम्मान असुरक्षित बनता गया है। उस के समाचार भी स्वैच्छिक सेंसरशिप तथा लफ्फाजी द्वारा छिपाए जाते हैं। उपाय करना तो दूर रहा। नतीजन उत्पीड़क समूहों का हौसला बढ़ता और बढ़ाया जाता है। यह सब ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर, जो ब्रिटिश राज में बिल्कुल न था।
इस प्रकार, हिन्दुओं की तुलनात्मक दुर्दशा स्वतंत्र भारत में ही शुरू हुई और बढ़ती गई। जबकि ब्रिटिश राज में हिन्दू और मुसलमान समान ब्रिटिश प्रजा थे। किसी को विशेषाधिकार या विशेष वंचना न थी। यह स्वतंत्र भारत में ही हुआ कि अल्पसंख्यकवाद की आड़ में हिन्दू तीसरे दर्जे के नागरिक बना डाले गये। चर्च मिशनरी ब्रिटिश राज में कठोरता से नियंत्रित थे, जिन्हें स्वतंत्र भारत के शासकों ने बेलगाम छूट दे दी! बाकायदा संविधान में अधिकार देकर। परिणाम आंकड़ों से देख सकते हैं। भारत में क्रिश्चियन आबादी ब्रिटिश राज में बिल्कुल नहीं बढ़ी। जबकि स्वतंत्र भारत में इलाके के इलाके चर्च के कब्जे में आ गये।
देश की बाह्य सुरक्षा भी अंग्रेजों के जाते ही जाती रही। नौसिखिए, बड़बोले भारतीय नेताओं ने अपने हाथों से तिब्बत और कश्मीर की ऐसी-तैसी कर उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं को असुरक्षित कर लिया।
ब्रिटिश राज में दो सौ वर्षों तक भारत पर कोई बाहरी हमला नहीं हुआ था। जबकि स्वतंत्र भारत में पाँच हमले हो चुके, देश की भूमि छिनी, और इन सब का उपाय करने के बदले नेताओं ने सचाई छिपाकर लज्जा बचाने के चक्कर में देश को विविध आक्रामकों के सामने आसान शिकार बनाने की मानो व्यवस्था की है। यह आशंका स्वयं सत्ताधारी दलों के कोई कोई नेता करते रहते हैं।
पर उक्त बातों पर कोई खुली चर्चा नहीं होती। यह बनाव-छिपाव स्वतंत्र भारत में फौरन शुरू हो गया। नेताओं की प्रतिष्ठा बचाने में देश-हित के मर्मभूत मुद्दों पर भी चुप्पी बरतने का तरीका बना। ऊपर से, उन्हीं नेताओं को महान बताने की झक में उन की पूजा-प्रोपेगंडा एक स्थाई राज-रस्म बनाई गई। यह भी ब्रिटिश राज में न था। वे किसी वायसराय की भी महानता बताने में एक भी पैसा या मिनट खर्च नहीं करते थे। वायसराय निवास में भी किसी वायसराय का नाम तक नहीं रखा गया, उन की मूर्ति, फोटो या नाम खुदवाना तो दूर रहा! अर्थात, वे अपने काम के प्रति समर्पित, सत्यनिष्ठ अधिकारी थे।
इसीलिए, ठोस पैमानों पर तुलना करके ही नीरद चौधरी का मूल्यांकन समझा जा सकता है। उन का आधारभूत अवलोकन यह था कि भारत मानो लोहे का एक विशाल बेलन (पिस्टन) है, जिसे अंग्रेजों ने खींच कर स्थिर किया और दृढ़ता से स्थिर रखा। जिन भारतीयों ने अंग्रेजों का स्थान लिया वे दुखती बाँह से किसी तरह उस बेलन को पकड़े हुए हैं। वह बेलन टिकाए रखने के लिए कोई खूँटी या रस्सी नहीं है। भारतीय नेताओं में उस बेलन को पकड़े रखने लायक स्नायुबल नहीं है। फलत: ‘‘यह बेलन इंच दर इंच हाथों से फिसल रहा है। एक दिन हमारी शक्ति जबाव दे जाएगी, बेलन एक झटके में भयावह आवाज के साथ पुरानी खाई में लौट जाएगा, और भारत पुनः ब्रिटिश-पूर्व काल वाली अराजकता और खून-खराबे में डूब जाएगा।’’
यह बड़ी भयावह आशंका है। किन्तु इसे खंडित करने के लिए हमारे मीडिया, अकादमिक जगत और संसद में भी लफ्फाजी या तू-तू-मैं-मैं के सिवा कुछ ठोस नहीं है। जबकि प्रशासन, सुरक्षा, न्याय व्यवस्था, शिक्षा, संस्कृति, और समाज में असंख्य तथ्यों, घटनाओं, आँकड़ों, स्थितियों से नीरद बाबू का आधारभूत मत पुष्ट ही होता लगता है। हर क्षेत्र में भारतीय शासकों के हाथ से राजकाज का पिस्टन फिसल रहा है। आंतरिक शत्रुओं, तथा अयोग्य, अदूरदर्शी, तथा निरे चापलूसों-लबारियों का जोर बढ़ रहा है। योग्य युवा विदेश प्रस्थान कर रहे हैं। किसी भी राजकीय संस्थान, विभाग या अधिकारी का वास्तविक मूल्यांकन करने की कभी बात भी नहीं होती, जबकि उन की संख्या और आकार निरंतर बढ़ रहे हैं। किसी स्तर पर राष्ट्रीय-हित दृष्टि से विचार-विमर्श की चिंता भी नहीं बच रही है। सब कुछ दलीय और वैयक्तिक आधार पर प्रपंच और प्रोपेगंडा में डुबा दिया जाता है।
तब नीरद बाबू ने क्या गलत देखा था?