सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव का सातवां और आखिरी चरण संपन्न होते विपक्षी दलों के जोड़तोड़ के नये समीकरण बनाने के प्रयास उग्र हो गये हैं। विपक्षी दल केन्द्र में सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाश रहे हैं, जबकि एक्जिट पोल में एनडीए को स्पष्ट बहुमत से अधिक सीटें मिलने के संकेत सामने आये हैं। चुनाव से लेकर केन्द्र में सरकार बनाने तक विपक्षी दलों का ध्येय देश की राजनीति को नयी दिशा देने एवं सुदृढ़ भारत निर्मित करने के बजाय निजी लाभ उठाने का ही रहा है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि चुनाव नतीजों की प्रतीक्षा की जाती और फिर परिस्थितियों के हिसाब से कदम बढ़ाए जाते? सवाल यह भी है कि यदि विपक्षी नेता मोदी सरकार की वापसी रोकने को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध थे तो फिर उन्होंने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन क्यों नहीं तैयार किया? सरकार बनाना हो या सशक्त विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना हो, ये विपक्षी दल किस हद तक अपने सहयोगियों को एकजुट कर पाते हैं, यह एक बड़ी चुनौती है, जिस पर वे चुनाव पूर्व की स्थितियों में नाकाम रहे हैं, अब कैसे वे सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते एकजुट हो पायेंगे? भले ही वे इन संभावनाओं की तलाशने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही होता दिखाई दे रहा है।
भारतीय लोकतंत्र में विपक्षी दल अपनी सार्थक भूमिका निर्वाह करने में असफल रहे हैं। क्योंकि दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं रहा है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो विपक्षी गठबंधन की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता रहा है। विपक्षी गठबंधन को सफल बनाने के लिये नारा दिया गया है कि ‘पहले मोदी को मात, फिर पीएम पर बात।’ ऐसा लग रहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों को प्रमुख मुद्दा न बनाने के कारण विपक्षी दल नकारा साबित हो रहे हैं, अपनी पात्रता को खो रहे हैं, यही कारण है कि न वे मोदी को मात दे पा रहे हैं और न ही पीएम की बात करने के काबिल बन पा रहे हैं। ध्यान रहे कि इन विपक्षी दलों ने केवल महागठबंधन बनाने के दावे ही नहीं किए गए थे, बल्कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने का भी वादा किया गया था। लेकिन इस वादे से किनारा किए जाने से आम जनता के बीच यही संदेश गया कि विपक्षी दल कोई ठोस विकल्प पेश करने को लेकर गंभीर नहीं है और उनकी एकजुटता में उनके संकीर्ण स्वार्थ बाधक बन रहे हैैं, वे अवसरवादी राजनीति की आधारशिला रखने के साथ ही जनादेश की मनमानी व्याख्या करने, मतदाता को गुमराह करने की तैयारी में ही लगे है। इन्हीं स्थितियों से विपक्ष की भूमिका पर सन्देह एवं शंकाओं के बादल मंडराने लगे।
इन चुनावों में विपक्षी दलों ने एकता के लिये अनेक नाटक रचे, भाजपा एवं मोदी को हराने की तमाम जायज-नाजायज कोशिशें भी हुई, लेकिन उनके कोई सार्थक परिणाम चुनाव के दौरान सामने नहीं आये। अब चुनाव नतीजे आने के पहले एक बार फिर विपक्षी दलों के विभिन्न नेताओं के बीच मेल-मिलाप तेज होना आश्चर्यकारी है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं से मिले हैं। उनके इस सघन संपर्क अभियान के बीच अन्य दलों के नेता भी भावी सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए प्रयास कर रहे हैं। लगता है विपक्षी पार्टियों के ये प्रयास उनके राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद के रूप में होते हुए दिख रहे हैं, आखिर विपक्षी दल इस रसातल तक कैसे पहुंचे, यह गंभीर मंथन का विषय है।
विपक्षी दलों के गठबंधन वैचारिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार पर सत्तारूढ़ दल का विकल्प प्रस्तुत करने में नाकाम रहा है। उसने सत्तारूढ़ भाजपा की आलोचना की, पर कोई प्रभावी विकल्प नहीं दिया। किसी और को दोष देने के बजाय उसे अपने अंदर झांककर देखना चाहिए। क्षेत्रीय मुद्दे उसके लिए इतने अहम रहे कि कई बार राष्ट्रीय मुद्दों पर उसने जुबान भी नहीं खोली। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है और सत्ता की कमान संभालने वाले दलों की भूमिकाएं भी बदलती रहती है। क्यों नहीं विपक्ष ने सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे को उठाया, आम आदमी महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी आदि समस्याओं से परेशान हो चुका था, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है, जो विपक्षी एकता के उद्देश्य को नया आयाम दे सकता था, क्यों नहीं विपक्ष इन स्थितियों का लाभ लेने को तत्पर हुआ।
बात केवल विपक्षी एकता की ही न होती, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न होती, बल्कि देश की भी होती तो आज विपक्ष इस दुर्दशा का शिकार नहीं होता। वह कुछ नयी संभावनाओं के द्वार खोलता, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता दिखाता, सुरसा की तरह मुंह फैलाती गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश लगाने का रोडमेप प्रस्तुत करता, नोटबंदी, जीएसटी आदि मुद्दों से आम आदमी, आम कारोबारी को हुई परेशानी को उठाता तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ती। व्यापार, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, ग्रामीण जीवन एवं किसानों की खराब स्थिति की विपक्ष को यदि चिंता थी तो इसे चुनाव में दिखना चाहिए था। पर विपक्ष केंद्र या राज्य, दोनों ही स्तरों पर केवल खुद को बचाने में लगा हुआ नजर आया। वह अपनी अस्मिता की लड़ाई तो लड़ रहा था पर सत्तारूढ़ दल को अपदस्थ करने की दृढ़ इच्छा उसने नहीं दिखाई। पूरे चुनाव में वह विभाजित और हताश दिखा। इन स्थितियों के रहते आज उसकी सरकार बनाने की संभावनाएं कैसे रंग ला सकती है?
चुनावों में ही नहीं, बल्कि पिछले पांच सालों में क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय मुद्दों की लगातार अनदेखी की। वे भूल गए कि देश में एक बेहतर केंद्र सरकार देने की जिम्मेदारी उनकी भी है। उन्होंने लोकतंत्र में अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया है। सभी राज्य सिर्फ अपने बारे में सोचने लगें तो देश में अराजकता आ जाएगी। केंद्र-राज्य समन्वय से ही भारतीय व्यवस्था चल सकती है। विपक्षी दलों ने यह बात कई बार कही कि वे भाजपा से विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि यह विचारधारा की लड़ाई थी तो इसे इस चुनाव में दिखना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। विपक्षी एकता केंद्र में सत्तारूढ़ पक्ष को कड़ी चुनौती क्यों नहीं पेश कर पाया, इस विचार होना चाहिए।
समस्या केवल यही नहीं रही कि चुनाव के पहले विपक्षी दल एकजुट नहीं हो सके। समस्या यह भी रही कि वे चुनाव के दौरान एक-दूसरे को मात देकर आगे निकलने की होड़ में भी जुटे रहे। इसी के चलते वे एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए भी दिखाई दिये। कांग्रेस जिस सपा-बसपा को अपने भावी सहयोगी के तौर पर देख रही थी उसके खिलाफ चुनाव लड़ी। सपा-बसपा ने भी चुनाव बाद कांग्रेस से सहयोग लेने-देने की संभावनाएं तो जगाए रखीं, लेकिन उसे अपने गठबंधन का हिस्सा बनाने से इन्कार कर दिया। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य राज्यों में भी दिखी। इससे यही स्पष्ट हुआ कि विपक्षी दल स्वयं के बलबूते ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना चाह रहे थे ताकि यदि नतीजों के बाद मिलीजुली सरकार बनाने की नौबत आए तो उसमें उनका दावा औरों से कहीं अधिक मजबूत हो सके और वे इसका अधिक लाभ ले सके। पता नहीं चुनाव नतीजे क्या तस्वीर पेश करेंगे, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि विपक्षी दल भाजपा अथवा उसके नेतृत्व वाले राजग से एकजुट होकर मुकाबला करने को लेकर गंभीर नहीं दिखे। कम से कम अब तो उन्हें यह समझना ही चाहिए कि गठबंधन राजनीति मौकापरस्ती का पर्याय नहीं बन सकती। पर अब तक देख रहे हैं कि अधिकार का झण्डा सब उठा लेते हैं, दायित्व का कोई नहीं। जबकि अधिकार का सदुपयोग ही दायित्व का निर्वाह है।
इन चुनावों में विपक्षी दलों को एक सूरज उगाना था ताकि सूरतें बदले। जाहिर है, यह सूरत तब बदलती, जब सोच बदलती। इस सोच को बदलने के संकल्प के साथ यदि विपक्षी दल आगे बढ़ते तो ही मोदी को टक्कर देने में सक्षम होते। यह भी हमें देखना था कि टक्कर कीमत के लिए है या मूल्यों के लिए? लोकतंत्र का मूल स्तम्भ भी मूल्यों की जगह कीमत की लड़ाई लड़ता रहा है, तब मूल्यों को संरक्षण कौन करेगा? एक खामोश किस्म का ”सत्ता युद्ध“ देश में जारी है। एक विशेष किस्म का मोड़ जो हमें गलत दिशा की ओर ले जा रहा है, यह मूल्यहीनता और कीमत की मनोवृत्ति, अपराध प्रवृत्ति को भी जन्म दे सकता है। हमने सभी विधाओं को बाजार समझ लिया। जहां कीमत कद्दावर होती है और मूल्य बौना। सिर्फ सत्ता को ही जब राजनीतिक दल एकमात्र उद्देश्य मान लेता है तब वह राष्ट्र दूसरे कोनों से नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों पर बिखरने लगता है। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में विपक्षी दल कोई रोशनी बन सकती है, अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिये तत्पर हो सकती है?
(ललित गर्ग)
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