16 अप्रैल को पालघर में हुई बर्बर एवं नृशंस हत्या को आज एक माह से भी अधिक समय होने को आए| संत समाज को न्याय मिलने की बात तो दूर, इस हत्याकांड के सभी अपराधियों को अभी तक गिरफ्तार तक नहीं किया जा सका है| जो गिरफ्तारी हुई भी है, वह एक प्रकार की खानापूर्ति है| मीडिया ने भी कुछ दिनों तक इस मुद्दे को उठाने के पश्चात अंततः चुप्पी साध ली| जो समाज और तंत्र निर्दोषों-निरीहों की हत्या पर भी मौन साध ले, उसकी संवेदनहीनता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है?
यह केवल हनुमान मंदिर के दो संन्यासियों की हत्या मात्र नहीं थी, यह प्रकारांतर से संपूर्ण मानवता की हत्या थी| यह एक सभ्य समाज के रूप में हमारे पतन की सार्वजनिक घोषणा थी| यदि हम हृदय से अनुभव करें तो उन संन्यासियों पर पड़ने वाला एक-एक प्रहार मनुष्यता में आस्था रखने वाले लोगों के मन-प्राण-आत्मा पर पड़ने वाला प्रहार था| इससे यदि हम-आप लहूलुहान और आहत नहीं हुए तो समझिए कि हमारी संवेदनाएँ बिलकुल कुंद और भोथरी हो गई हैं| यह एक प्रकार से पुलिस-प्रशासन की हत्या थी, क़ानून-व्यवस्था की हत्या थी|
यह संस्थागत अपराध का जीता-जागता उदाहरण था| इस हत्याकांड में संलिप्त दोषियों पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई न होना उदाहरण है कि महाराष्ट्र में कानून-व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है| इसे उस भीड़तंत्र की अराजकता की पराकाष्ठा ही कहनी चाहिए कि उन्हें पुलिस की उपस्थिति की भी कोई चिंता नहीं थी, उन्हें पुलिस का कोई भय नहीं था! हत्यारे सरेआम तांडव करते रहे और पुलिस उन्हें ऐसा करते चुपचाप देखती रही, वह उनको बचाने के लिए पहल तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई| इन दो निरीह, निहत्थे, बुजुर्ग संन्यासियों द्वारा बारंबार गुहार लगाने के बावजूद उन्हें भीड़तंत्र के हवाले कर पुलिस-प्रशासन कैसे अपना साख़ बचा पाएगी, वह अपनी अंतरात्मा के दर्पण में कैसे अपना चेहरा देख पाती होगी, कैसे उनके मुँह में निवाला जा सका होगा, कैसे उनकी आत्मा उन्हें माफ कर सकी होगी? धिक्कार है ऐसी कायरता पर! इन्होंने सचमुच रक्षक की नहीं, भक्षक की भूमिका निभाई| क्या इसी दिन के लिए हमने स्वराज और सुराज की कामना की थी?
सवाल धर्मनिरपेक्षता के कथित ठेकेदारों से भी है| क्या इस देश के अवसरवादी और क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादी ऐसी जघन्य एवं अमानुषिक हत्या को भी दोहरे दृष्टिकोण से देखने की धृष्टता करेंगें ? कोई आश्चर्य नहीं कि कल कोई कथित सेकुलर धड़ा किसी नई कहानी को लेकर प्रकट हो और इस नृशंस एवं क्रूर हत्या को भी न्यायसंगत ठहराने की निर्लज्ज चेष्टा करे! इस हत्याकांड से हताश एवं निराश संत-समाज का महाराष्ट्र सरकार से भरोसा उठता जा रहा है| क्या महाराष्ट्र की सत्ता इतनी आसुरी हो गई कि निरीह व निहत्थे संतों-संन्यासियों के प्राणों की बलि लेकर भी मूक-मौन-निष्क्रिय-निस्तेज-निश्चेष्ट पड़ी रहेगी?
सवाल बहुसंख्यक समाज से भी है कि कोई उत्तेजक, अराजक, उद्दंड, कट्टर भीड़ हर बार सड़कों पर उतरकर निर्दोषों का नरसंहार करती है, दंगे-फ़साद करती है, तपोनिष्ठ-त्यागी समाजसेवियों, धर्मनिष्ठ संन्यासियों को मौत के घाट उतारती है और समाज बेबस-मौन खड़ा, उन्हें ऐसा करते देखता रहता है! उसके भीतर असंतोष और आक्रोश की कोई लहर तक पैदा नहीं होती? वह चुनी हुई सरकारों पर दोषियों को सज़ा दिलवाने के लिए लोकतांत्रिक तरीके से दबाव तक नहीं बनाता! ऐसी ही घटनाओं के कारण भारत में धर्मांतरण का धंधा बड़े जोरों से बेरोक-टोक चलता आ रहा है| धर्मांतरण का विरोध करने वाले व वनवासियों के मध्य सेवा-कार्य करने वाले तमाम सनातनी संतों व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को उस विरोध व सेवा की क़ीमत अपने प्राणों की आहुति देकर ऐसे ही चुकानी पड़ी है| क्या आस्था या मज़हब बदलने से पुरखे, संस्कृति और जड़ें बदल जाया करती हैं? क्या धर्मांतरण राष्ट्रांतरण भी कर देता है? सवाल यह भी है कि इन धर्मांतरित समुदायों के रक्त में कितना कुछ विष उतार दिया जाता है कि अपने ही पुरखे, अपने ही समाज, अपने ही बंधु-बांधवों की निर्मम हत्या तक में उन्हें कोई संकोच नहीं होता? अपनी ही परंपराओं, अपने ही जीवन-मूल्यों, अपने ही जीवन-आदर्शों के प्रति इतनी संदिग्धता, असहिष्णुता, अनुदारता, आक्रामकता, हिंसा आदि उनमें कहाँ से और कैसे आती है?
सत्य तो यह है कि ऐसी जघन्य और बर्बर हत्याओं पर समाज और सिस्टम का भयावह मौन हमारी दुर्बलता, विफलता व पतन का द्योतक है| जो समाज अपने लिए संघर्ष करने वाले नायकों के साथ आज खड़ा नहीं होता, कल उन्हें निश्चित आँसू बहाना पड़ता है, सामूहिक रोदन करना पड़ता है| धिक्कार है, ऐसे समाज और सत्ताधीशों पर…, धिक्कार है! कदाचित बाल ठाकरे की आत्मा स्वर्ग में भी दुःखी हो रही होगी कि जिन मूल्यों-आदर्शों की स्थापना के लिए उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया उनके उत्तराधिकारियों ने सत्ता-सुख के लिए उन आदर्शों-मूल्यों का गला ही घोंट दिया|
प्रणय कुमार
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