1956 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त नियोगी कमीशन की ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों का पर्दाफाश करती “रिपोर्ट आफ क्रिस्चियन मिशनरी एक्टीविटीज़ इन्क्वायरी कमेटी मध्यप्रदेश 1956” (1950-54) जो कि मध्यप्रदेश सरकार ने छपवायी थी, बाजार में आने के कुछ दिनों बाद ही बाजार से ईसाईयों ने खरीद कर गायब कर दी। यहां तक कि पुस्तकालयों से भी इशू करवा कर कभी वापिस नहीं कीं। नागपुर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश डाॅ एम भवानी शंकर नियोगी जो कि इस कमेटी के अध्यक्ष थे उन्होंने मिशनरियों को नंगा करके रख दिया था अपनी इस रिपोर्ट में।
13 जनवरी 1989 को इंडियन ऐक्सप्रेस ने खुफिया विभाग की एक गोपनीय रिपोर्ट प्रकाशित की कि कुछ संगठनों को अलग झारखंड राज्य बनाने के लिए विदेशों से भरपूर पैसा मिल रहा है।
तेलंगाना, जो अलग राज्य बना उसके मुख्यमंत्री का अल्पसंख्यक प्रेम आपको इस प्रकरण में ज्यादा सोचने का कष्ट नहीं देगा। न ही बोडोलैंड और गोरालैंड नाम के अलग राज्यों की मांग और नकसलियों को फंडिंग कहां से हो रही है इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत है।
आजादी के समय नार्थ ईस्ट राज्यों में ईसाईयों की जनसंख्या 1.23%थी जो 2001 में 39.8% हो गई।नार्थ ईस्ट के कुछ राज्यों में इनकी जनसंख्या में 1951 से 1971 के बीच 250 से 300% बढोतरी दर्ज की गई है।
1955 में पहली बार फिर 1960 में दूसरी बार लोकसभा में धर्मांतरण विरोधी बिल पेश किया गया था जिसे नेहरू ने पास नहीं होने दिया था।
चिकित्सा के क्षेत्र में इनके बढ़ते वर्चस्व और शिक्षा के क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित करने के दिशा में बढ़ते इनके कदमों पर आंकड़े आने वाले दिनों में पेश करूंगा लेकिन उस संदर्भ में आज यह जान लीजिये कि 21 नवम्बर 1995 में “नेशनल कोआरडिनेशन कमेटी फार शेड्यूल कास्ट क्रिस्चियन” तथा कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस आफ इंडिया (CBCI) ने दलितों को दिये जाने वाले फायदे ईसाई दलितों को भी दिए जाने की मांग को लेकर भारत भर में 10000 स्कूल और 240 कालेज बंद रखे।
क़त्ल तो रोज़ ही होते हैं फिर अख़लाक़, पहलु , जुनैद, अफ़ज़ारूल की हत्या राष्ट्रीय मुद्दा बनकर सिर्फ चुनावों तक ही क्यों ज़िंदा रहता है ?
कश्मीर के समय इंटरनेट और सोशल मीडिया नहीं था, मगर 2011 में हुए आसाम के दंगे, उसके बाद पश्चिम बंगाल में ऐन त्यौहार के दिनों में दंगे, केरल के हिन्दुओं की हत्याएं , कैराना से हिन्दुओं का पलायन ये सब राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनते, बोडो ईसाईयों ने पिछले दस सालों में बीस हज़ार से ज्यादा हिन्दुओं को मार दिया , कहीं किसी ने मोमबत्ती जलाई ???
सुकमा में 70 CRPF के जवानों के मरने पर जश्न और अफ़ज़ल / याकूब मेमन के मरने पर मातम कौन मनाता है ??? देशद्रोहियों को नायक कौन बनता है ???
आँखों पर धर्मनिरपेक्षता का चश्मा चढ़ा हुआ है इस लिए इन्हे न तो तमिलनाडु में पिछले 20 वर्षों में बने हुए 17500 चर्चों , 9700 मस्जिदों और 370 मंदिरों के बनने की संख्या में कोई असमानता नज़र आती है न इन्हे धर्म आधार पर तमाम राज्यों की जनसँख्या में होते बदलाव नज़र आ हैं न इन्हे तमाम मीडिया चैनलों , पोर्टलों और अखबारों के हिन्दू विरोधी प्रचार और मानसिकता का पता चलता है। आंकड़े बता रहे हैं कि 70 के दशक में अरुणाचल प्रदेश में 1710 ईसाई थे आज 12 लाख से ऊपर हैं। 780 चर्च हैं। त्रिपुरा में आज़ादी के समय ईसाई थे ही नहीं आज सवा लाख से ऊपर हैं और ये सवा लाख भी 1990 के बाद हुई 100% बढ़ौतरी के बाद हुए हैं।
2014 की नेपाल की भूकंप त्रासदी में दुनिया जहान खाने पीने का सामन और कपडे भेज रही थी , मगर ईसाईयों ने पूरा का पूरा हवाईजहाज भर के बाइबल भेजी थी। दैविक आपदाओं से घिरे हुए लोगों की खरीदना कोई इनसे सीखे। केरल के आंकड़ों में ईसाईयों की जनसँख्या तो 14% से 18.8% ही पहुंची है लेकिन जमीन और कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में इनकी हिस्सेदारी 40% और अन्य व्यवसायों में 31.5% के ऊपर है। हिन्दुओं की निष्क्रियता और निक्कमेपन की वजह मान सकते हैं कृषि और रोज़गारों में हिस्सेदारी घटने का लेकिन केरल में ईसाईयों के गॉड और भगवान् की कार्यशैली का फर्क समझिये।
केरल में तटीय किनारों पर चर्चों में मिरेकल_बॉक्सेस (चमत्कार डिब्बे) लगे हुए हैं। इन डिब्बों में गरीब तबका अपनी जरूरत या इच्छाएं जैसे नाव खरीदने/ मकान खरीदने /लड़की की शादी के लिए पैसे चाहिए तो इसके अंदर लिख कर डाल देते हैं। और लीजिये कुछ दिनों में उनकी इच्छा पूरी हो जाती है। मगर हिन्दुओं के भगवान् ये सब नहीं कर पाते इसीलिए गॉड से मदद के अभिभूत व्यक्ति पूरे परिवार के साथ ईसाई बन जाता है और अपने आस पड़ोस के लोगों को भी ईसाई बनने के लिए प्रेरित करता है।
कभी सोचा कि कांचा इल्लैया,सुनील सरदार ,जॉन दयाल, ज़ाकिर नायक जैसे सैंकड़ों भारत में बैठे हुए आस्तीन के सांप हैं जिन्हे विदेशो से यही सब करने के लिए पैसा आता है। पैसा आने का रास्ता साफ़ करतीं हैं कांग्रेस , वामपंथी और द्रमुक जैसी पार्टियां और इनके वो गुर्गे जो ऊँचे पदों पर बैठे हैं। ये जाल कितना फैला हुआ है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब मोदी सरकार ने इन विदेशी फंडिंग पर प्रतिबन्ध लगे तो दर्द इन सिर्फ NGOs ईसाई मिशनरी और ग्रीनपीस जैसी संस्थाओं को ही नहीं हुआ यूनाइटेड नेशन्स तक के पेट में मरोड़ उठ गयी थी। क्यों…?
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