Thursday, November 28, 2024
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ब्रिटिश इण्डिया का एक स्मारक जहाँ मौजूद है पुस्तकों का खजाना- विलोबी मेमोरियल लाइब्रेरी

एक किताबघर जहाँ शब्दों के समन्दर से हमने भावनाओं के मोती चुने थे…
यह है मेरी अध्ययन स्थली, विलोबी मेमोरियल हॉल, 1934 के आस पास स्थानीय मुअज्जिज लोगों ने यह भवन डिप्टी कलेक्टर विलियम डगलस विलोबी की हत्या के तकरीबन एक दशक बाद उसकी स्मृति में बनवाया, मौजूदा समय में इसका नाम बदल दिया गया है, जबकि किसी भी मेमोरियल ट्रस्ट व् उसके द्वारा निर्मित भवन आदि के नाम को बदलना कानूनी व् नैतिक तौर पर कहाँ तक उचित है यह विमर्श का मुद्दा है!?

ब्रिटिश लाइब्रेरी के इण्डिया ऑफिस में मेरी मित्र कार्ला पॉर्टर ने जो दस्तावेज हमें भेजे उनके अनुसार विलियम डगलस विलोबी सन 1901 में इंग्लैंड से इण्डिया के लिए जहाज से रवाना हुए, और फिर संयुक्त प्रांत में कई जगह ज्वाइंट कमिश्नर के पदों पर कार्य किया, सन 1919 में वह खीरी जनपद के डिप्टी कमिश्नर बनकर आये, और सन 1920 में उनकी हत्या हुई। उस वक्त एक अंग्रेज अफसर की हत्या पर पूरी ब्रिटिश इण्डिया सरकार आग बबूला हो गयी, और खीरी मिलेट्री बटालियनों से भर गया, कहते हैं दंगा और विद्रोह की स्थितियां भी बनी और बापू को भी हस्तक्षेप करना पड़ा, उसी दौर में बापू लखीमपुर भी आये। विलोबी की कब्र लखीमपुर शहर की क्रिश्चियन सिमेट्री में आज भी मौजूद है, कभी लाइब्रेरी में विलोबी का एक तैल चित्र भी हुआ करता था किन्तु अब वह नदारद है। विलयम डगलस विलोबी पुस्तकों के शौक़ीन थे जब यह लाइब्रेरी बनी तब उनकी व्यक्तिगत पुस्तकें भी यहाँ रखी गयी, और बाद के भी डिप्टी कमिश्नरों ने अपना योगदान दिया उसी का नतीजा है की ब्रिटेन से प्रकाशित तमाम प्राचीन पुस्तकों का खज़ाना है यह पुस्तकालय।

एक महत्वपूर्ण दौर फिर आया श्रीमती इंदिरा गांधी का और उस समय उन्होंने पुस्तकालयों की समृद्धि पर अत्यधिक ध्यान दिया, राजा राममोहन राय लाइब्रेरी कलकत्ता से अनुदानित पुस्तकें यहाँ आती रही, जो बाद के वर्षों में बन्द हो गयी, अब न तो मूल्यवान लेखक बचे और न कद्रदान पाठक, बदलते समाज की नियति ने अब इस पुस्तकालय की भी नियति बदल दी।

अभी हालिया गुजरा विश्व पुस्तक दिवस भी सिर्फ औपचारिकता भर था, एक पीढी जो बदल चुकी है किताबें कैद हैं स्मार्टफोन्स की सत्ता में, और मानव दिमाग भी प्राकृतिक सोच के बजाए तकनीकी सरोकारों की गिरफ्त में, ऐसे में अतीत से आती हमारे उस मानव इतिहास की खुशबू से कैसे रूबरू होगी यह नई पीढी जो मुसलसल इंसान से मशीन में तब्दील हो रही है।

एक बात और अब नवीन लेखन व् किताबें संस्कार डालने में भी विफल है, लिखा बहुत जा रहा है कवी कवियत्रियों की बाढ़ सी आ गयी है किन्तु वह् सब सोशल नेट्वर्किंग के दायरे से बाहर नही निकल पा रहें है, अब प्रकाशक भी बहुत हैं और किताबें भी खूब छपती हैं पर वे असरदार नही की समाज पर छाप डाल सके नतीजतन समाज भी अनियोजित विकास की अंधी दौड़ में दौड़ता चला जा रहा है और अब कोई दिनकर नही है और न ही उसकी रश्मिरथी जो इन भटके हुए लोगों को प्रकाश स्तभों की मानिंद राह दिखा सके।

खैर यहाँ स्थापित लाइब्रेरी जो लगभग एक शताब्दी पुरे करने को है, इसमें मौजूद पुस्तके 1850 से लेकर 1940 ईस्वी तक के समय काल में मौजूद हैं साथ ही आजादी के बाद नवीन समय के प्रकाशन भी उपलब्ध है, जब मैं कक्षा 9 में धर्म सभा इंटर कालेज का विद्यार्थी था तब मैं इस जगह से परिचित हुआ, मैनहन गाँव से आने के पश्चात् इस पुरानी ब्रिटिश इण्डिया की इमारत के आकर्षण ने मुझे इस जगह से परिचित कराया, इमारत में मौजूद लाइब्रेरी के संचालक एडवोकेट श्री विनय मिश्र जी मेरे ननिहाल पक्ष के परिचित निकले, इनके नाना इस लाइब्रेरी के संस्थापक लाइब्रेरियन थे, और उस परम्परा को विनय दादा अभी भी निर्वहन कर रहे हैं बड़ी शिद्दत के साथ, यह ट्रस्ट लखीमपुर की प्रतिष्ठित हस्ती से जुड़ा है, उस जमाने मशहूर बैरिस्टर श्री लक्ष्मी नारायण आगा इस ट्रस्ट व् इमारत के संस्थापकों में रहे और मौजूदा वक्त में उनके पौत्र हमारे बड़े भाई जन्तु विज्ञान प्रवक्ता श्री अजय आगा इस ट्रस्ट के सेक्रेटरी है। तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों व् धरना प्रदर्शनों का यह मुख्य स्थल है।

कक्षा 9 में साइकिल से अपने घर से यहाँ तक मैं हर रोज शाम को आता, जाड़ों में 5 से 7 और गर्मियों में 5 से 8:30 तक खुलने का समय था, पर बड़े बुजुर्गों की मौजूदगी में मुबाहिसों के दौर रात के 10 कब बजा देते पता ही नही चलता, यहीं मैं उस किशोरावस्था में परिचित हुआ मोहनदास से, नेहरू से, चर्चिल, व्लादीमिर लेनिन, जोसेफ स्टालिन, बेनिटो मुसोलिनी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, शरत और बंकिम बाबू से भी बावस्ता हुआ, न जाने कितने नवोदित रचनाकारों को पढ़ने का मौका मिला, और हाँ माडर्न! महिलाओं की लोकप्रिय लेखिका अमृता प्रीतम से भी मुखातिब हुआ यहीं, तमाम अनुभवी ब्रिटिश इण्डिया के दौर के बुजुर्गों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और राजनीतिज्ञों के दर्शन भी हुए इस स्थल पर, कुलमिलाकर तमाम बेहतरीन सरंक्षक व् मार्गदर्शक मिले मुझे इस ऐतिहासिक इमारत से, शब्दों का ताना बाना बुनना भी यहीं से सीखा हमने, और बहुत बाद में कई अखबारों और पत्रिकाओं में इस जगह की खासियतों को लिखकर मैंने आभार प्रगट करने की भी मामूली कोशिशे की, इस पवित्र किताब घर से जहाँ शब्दों के समन्दर में भावनाओं के मोती लगते है उन्हें चुनने में जो सर्वाधिक श्रेय जाता है वह है मेरी माँ और उनके द्वारा दिए हुए वो लाइब्रेरी सदस्यता शुल्क के लिए 100 रूपये जो उस जमाने में किसी बच्चे की जेब में एक बड़ी रकम मानी जाती थी।

(लेखक वन्य जीव विशेषज्ञ, स्वतंत्र पत्रकार एवं दुधवालाइव डॉट कॉम के संस्थापक संपादक है।)

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