(आज गुरु पूर्णिमा पर विशेष)
आज गुरु पूर्णिमा है। हिन्दू समाज में आज के दिन तथाकथित गुरु लोगों की लाटरी लग जाती हैं। सभी तथाकथित गुरुओं के चेले अपने अपने गुरुओं के मठों, आश्रमों, गद्दियों पर पहुँच कर उनके दर्शन करने की हौड़ में लग जाते हैं। खूब दान, मान एकत्र हो जाता हैं। ऐसा लगता हैं की यह दिन गुरुओं ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रसिद्ध किया हैं। भक्तों को यह विश्वास हैं की इस दिन गुरु के दर्शन करने से उनके जीवन का कल्याण होगा। अगर ऐसा हैं तब तो इस जगत के सबसे बड़े गुरु के दर्शन करने से सबसे अधिक लाभ होना चाहिए। मगर शायद ही किसी भक्त ने यह सोचा होगा की इस जगत का सबसे बड़ा गुरु कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें योग दर्शन में मिलता हैं।
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् || ( योगदर्शन : 1-26 )
वह परमेश्वर कालद्वारा नष्ट न होने के कारण पूर्व ऋषि-महर्षियों का भी गुरु है ।
अर्थात ईश्वर गुरुओं का भी गुरु है। अब दूसरी शंका यह आती है कि क्या सबसे बड़े गुरु को केवल गुरु पूर्णिमा के दिन स्मरण करना चाहिए? इसका स्पष्ट उत्तर है कि नहीं ईश्वर को सदैव स्मरण रखना चाहिए और स्मरण रखते हुए ही सभी कर्म करने चाहिए। अगर हर व्यक्ति सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर को मानने लगे तो कोई भी व्यक्ति पाप कर्म में लिप्त न होगा। इसलिए धर्म शास्त्रों में ईश्वर को अपने हृदय में मानने एवं उनकी उपासना करने का विधान हैं।
ईश्वर और मानवीय गुरु में सम्बन्ध को लेकर कबीर दास के दोहे को प्रसिध्द किया जा रहा है।
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
गुरुडम कि दुकान चलाने वाले कुछ अज्ञानी लोगों ने कबीर के इस दोहे का नाम लेकर यह कहना आरम्भ कर दिया हैं कि ईश्वर से बड़ा गुरु है क्यूंकि गुरु ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताता हैं। एक सरल से उदाहरण को लेकर इस शंका को समझने का प्रयास करते हैं।
मान लीजिये कि मैं भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मिलने के लिये राष्ट्रपति भवन गया। राष्ट्रपति भवन का एक कर्मचारी मुझे उनके पास मिलवाने के लिए ले गया। अब यह बताओ कि राष्ट्रपति बड़ा या उनसे मिलवाने वाला कर्मचारी बड़ा है? आप कहेंगे की निश्चित रूप से राष्ट्रपति कर्मचारी से कही बड़ा हैं, राष्ट्रपति के समक्ष तो उस कर्मचारी की कोई बिसात ही नहीं हैं। यही अंतर ईश्वर और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताने वाले गुरु में हैं। हिन्दू समाज के विभिन्न मतों में गुरुडम कि दुकान को बढ़ावा देने के लिए गुरु की महिमा को ईश्वर से अधिक बताना अज्ञानता का बोधक हैं। इससे अंध विश्वास और पाखंड को बढ़ावा मिलता हैं।
अंत में यह भजन लिखना चाहता हूँ।
पाया गुरु मन्त्र बृहस्पति से, फिर अन्य गुरु से करना क्या।
की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।
वरणीय वरुण प्रभु वरुपति हों, अर्य्यमा न्याय के अधिपति हों।
हमको परमेश ईशता दो, तुम इन्द्र हमारे धनपति हों।।
की याचना इन्द्र धनपति से, फिर दर दर हमें भटकना क्या।
की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।
अत्यन्त पराक्रम बलपति हो, तुम वेद बृहस्पति श्रुतिपति हो।
तन मानस का बल हमको दो, तुम विष्णु व्याप्त जग वसुपति हो।।
की सन्धि शौर्य के सतपति से, फिर हमें शत्रु से डरना क्या।
की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।
प्रिय सखा सुमंगल उन्नति हो, हर समय तुम्हारी संगति हो।
बन मित्र मधुरता अपनी दो, सुख वैभव बल की सम्पति दो।।
मित्रता विष्णु प्रिय जगपति से, फिर पलपल हमें तरसना क्या।
की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।
(पं. देवनारायण भारद्वाज रचित गीत स्तुति का प्रथम प्रकाश)
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