सिल्वें लेवी फ्रांसीसी प्राच्यविद्या विशारद और भारतीय विज्ञानविद् थे। फ्रांस में भारतीय धर्म पढ़ाते थे। वो नेपाली ओर तिब्बती भाषा के विद्वान भी थे। वर्ष 1998 में उन्होंने नेपाल की यात्रा की थी। एक लंबा समय नेपाल में सनातन बौद्ध और हिंदू धर्म के अध्ययन में बिताया। तत्पश्चात् उन्होंने फ्रेंच भाषा में तीन खंडों में एक वृहद पुस्तक लिखी:
‘Le Nepal Etude historique d un Royaume Hindu’.
यह पुस्तक इतनी महत्वपूर्ण है कि इसका नेपाली भाषा में अनुवाद आ चुका है। संक्षेप में पुस्तक में व्यक्त सिल्वें के विचार निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। सिल्वें लिखते हैं :
पश्चिमी विद्वान दुराग्रह एवं षड्यंत्र के चलते यह लिखते हैं कि भारतीय बौद्ध धर्म को हिंदुओं द्वारा नष्ट किया गया था। परंतु यह दावा किसी भी प्रलेख अभिलेख से आजतक प्रमाणित नहीं हो पाया है। स्वार्थप्रेरित पारस्परिक एवं व्यक्तिगत् शत्रुता के उपरांत भी ब्राह्मण और भिक्षु दोनों ने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया। साथ ही दोनों की अपनी-अपनी कहानियों में भी एक दूसरे को नष्ट करने की कोई एक बात भी नहीं है। संभव है कि सैद्धांतिक रूप से इस बात पर शास्त्रार्थ हुआ हो परंतु कभी भी एक-दूसरे को तंग करने या उत्पीड़न करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। ब्राह्मण तो ऐसी बात के नितांत विरोधी थे। यहां तक कि तत्कालीन राजनीति ने भी कभी ऐसा नहीं होने दिया। भारत में असहिष्णुता और कट्टरता नहीं पाई जाती है। हिंदू सभी देवताओं में विश्वास करते हैं और जो विरोधाभास पैदा हुए हैं उन्हें खुले हृदय से स्वीकार कर समरसता पूर्ण सहअस्तित्व की भावना में जीते हैं। हिंदुओं के अपने अनेक देवता भले ही हों परंतु उनमें कभी दूसरों के देवता या धर्म का विरोध करने की प्रकृति नहीं होती है।
दसवीं शताब्दी में जब भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ था, सभी ने कभी न कभी एक बार एक विशेष धार्मिक समुदाय का विरोध किया था। अपने मिथ्या गौरव के कारण हम यहां की छोटी-छोटी बातों को अपने इतिहास की घटनाओं से मिलाने की कोशिश करते हैं। जानबूझकर किए गए प्रयासों के कारण बौद्ध धर्म को क्षति नहीं पहुंची है। यह फलता-फूलता विशाल धर्म स्वत: ही समाप्त हो गया जब मुस्लिम आक्रमण काल में भारत में इसकी उपादेयता शेष नहीं रही। बौद्ध धर्म के केंद्र भी भारत के कोने-कोने में थे। बौद्ध धर्म भिक्षुओं और धर्मगुरुओं ने हर स्थान पर एकता ला दी थी। यह धर्म वैश्विक स्तर पर एक वृहद् समुदाय बना सकता था। चूंकि इस धर्म के कड़े नियम और अनुशासन भिक्षुओं तक ही सीमित थे, इसमें स्वतंत्र विचारधारा के लोग, जो प्रत्येक समाज के साथ सामंजस्य बैठा सकते थे, सम्मिलित नहीं हो पाये। देश में धर्म के विकास के लिए लचीले ब्राह्मणवादने, जो समय के साथ हिंदू जगत में फिर से उभरा, नई प्रगति के लिए समस्त हिंदू जगत को पुनः समेट लिया।
इस प्रकार इसने भारत में सामाजिक एकता बनाए रखने का कार्य किया। भारत में प्रथम विदेशी आक्रमण के समय बौद्ध धर्म भी भारत की सेवा कर सकता था क्योंकि यह दसवीं शताब्दी तक बर्बर आक्रमणकारियों को अपने व्यवहार से अपने समाज में एकीकृत करने में सक्षम था। लेकिन ये नए मुस्लिम आक्रमणकारी यूनान के रईसों या मैदानी इलाकों से आए लोगों की तरह नहीं थे। ये क्रूर और दुर्दांत मजहबी लुटेरे एवं कातिल अरबी थे जो दूसरों के देवताओं और उपासना पद्धतियों को कतई सह नहीं सकते थे। ये अरबी फारस मिस्र और तुर्की आदि देशों के प्राचीन धर्मों को नष्ट करने के पश्चात् भारत आए थे।
यहां आते ही इन इस्लामिक दरिंदों ने बौद्ध धर्म के शुरुआती गढ़ों पर कब्जा कर लिया। मठों को चुन-चुन कर आग लगाकर नष्ट कर दिया। भिक्षुओं को पलायन के लिए विवश होना पड़ा। इस इस्लामिक आक्रमण को रोकने के लिए ब्राह्मणवाद एक सशक्त दीवार के रूप में सामने आया। भले ही नेतृत्व, एकता और संगठन का अभाव रहा हो, ब्राह्मणओं ने इन हमलावरों के विरुद्ध भारतवासीओं की चेतना को झकझोर कर रख दिया। थोड़ा ही सही लोगों को प्रतिकार के लिए तैयार कर समस्त भारतवर्ष में एकता लाने का कार्य किया।
साभार-https://www.facebook.com/arya.samaj से