Monday, November 25, 2024
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कौन थे राजा महेंद्र प्रताप सिंह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का मंगलवार को शिलान्यास किया. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने सितंबर, 2019 में अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम एक राज्य स्तरीय यूनिवर्सिटी खोलने की घोषणा की थी.

यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “हमारी आज़ादी के आंदोलन में कई महान व्यक्तित्वों ने अपना सबकुछ खपा दिया. लेकिन यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि आज़ादी के बाद ऐसे राष्ट्र नायक और नायिकाओं को अगली पीढियों को परिचित ही नहीं कराया गया.”

महेन्द्र प्रताप का जन्म १ दिसम्बर १८८६ को एक जाट परिवार में हुआ था जो मुरसान रियासत के शासक थे। यह रियासत वर्तमान उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में थी। वे राजा घनश्याम सिंह के तृतीय पुत्र थे। जब वे ३ वर्ष के थे तब हाथरस के राजा हरनारायण सिंह ने उन्हें पुत्र के रूप में गोद ले लिया। १९०२ में उनका विवाह बलवीर कौर से हुआ था जो जिन्द रियासत के सिद्धू जाट परिवार की थीं। विवाह के समय वे कॉलेज की शिक्षा ले रहे थे।

हाथरस के जाट राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया। मुरसान के जाट राजा ने भी युद्ध में जमकर साथ दिया। अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया। उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे। 1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्दसिंह का राज्य लौटाया नहीं – कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया।

राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु हुई। संतान न होने पर अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे गये। अत: रानी साहबकुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी। राजा हरनारायन को कोई पुत्र नहीं था। अत: उन्होंने मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने। हाथरस राज्य का वृन्दावन में विशाल महल है उसमें ही महेन्द्र प्रताप का शैशव काल बीता। बड़ी सुख सुविधाएँ मिली। महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को हुआ। अलीगढ़ में सैयद खाँ द्वारा स्थापित स्कूल में बी. ए. तक शिक्षा ली लेकिन बी. ए. की परीक्षा में पारिवारिक संकटों के कारण बैठ न सके।

जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह हुआ। दो स्पेशल ट्रेन बारात लेकर गई। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। विवाह के बाद जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती। स्टेशन पर सभी अफसर स्वागत करते। रात को दरबार गता और नृत्य-गान चलता जिसमें कभी-कभी रानी भी भाग लेती। उनके 1909 में पुत्री हुई-भक्ति, 1913 में पुत्र हुआ-प्रेम। देश-विदेश की खूब यात्राएँ कीं। 1906 में जिंद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे।

राजा महेंद्र प्रताप की आत्मकथा ‘माय लाइफ स्टोरी’ को संपादित करने वाले डॉ. वीर सिंह के मुताबिक, राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने हिंदुस्तान छोड़ने से पहले देहरादून के डीएम कार्यालय के जरिए पासपोर्ट बनवाने का प्रयास किया था, लेकिन एक अखबार में जर्मनी के समर्थन में एक लेख लिखने के कारण पासपोर्ट बनाने में बाधा पैदा हुई थी। इसके बाद राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने समुद्र मार्ग से ब्रिटेन पहुंचने की योजना बनाई। बाद में उन्होंने स्विट्जरलैंड, जर्मनी, सोवियत संघ, जापान, चीन, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की जैसे देशों की यात्रा की। 1946 में वे शर्तों के तहत हिंदुस्तान वापस आ सके।

1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया।

वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है।

प्रथम विश्वयुद्ध से लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से वे विदेश गये। इसके पहले ‘निर्बल सेवक’ समाचार-पत्र देहरादून से राजा साहेब निकालते थे। उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई। विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला।

मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा इंगलैण्ड राजा महेन्द्र प्रताप और स्वामी श्रद्धानंद के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को ले गया। उसके बाद जर्मनी के शसक कैसर से भेंट की। उन्हें आजादी में हर संभव सहाय देने का वचन दिया। वहाँ से वह अफगानिस्तान गये। बुडापेस्ट, बल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे। अफगान के बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने। स्वर्ण-पट्टी पर लिखा सूचनापत्र रूस भेजा गया। अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया तभी वे रूस गये और लेनिन से मिले। परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की। 1920 से 1946 विदेशों में भ्रमण करते रहे। विश्व मैत्री संघ की स्थापना की। 1946 में भारत लौटे। सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे गईं। वे संसद-सदस्य भी रहे।

1957 के आम चुनाव में तो राजा महेंद्र प्रताप ने अटल बिहारी वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी। इस चुनाव में मथुरा लोकसभा सीट से राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में लगभग 4 लाख 23 हजार 432 वोटर थे। इनमें 55 फीसदी यानी लगभग 2 लाख 34 हजार 190 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। उस वक्त 55 फीसदी वोट पड़ना बड़ी बात होती थी। इस चुनाव में जीते निर्दलीय प्रत्याशी राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भारतीय जन संघ पार्टी के उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी की जमानत तक जब्त करा दी थी। नियमानुसार कुल वोटों का 1/6 वोट नहीं मिलने पर जमानत राशि जब्त हो जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी को इस चुनाव में 1/6 से भी कम वोट मिले थे, जबकि राजा महेंद्र प्रताप को सर्वाधिक वोट मिले और वह विजयी हुए थे। इसके बाद राजा ने अलीगढ़ संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें जनता का जबरदस्त विरोध सहना पड़ा था।

राजा महेंद्र प्रताप के क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर उन्हें मिलने के लिए लेनिन ने भी रूस बुलाया था.

26 अप्रैल 1979 में उनका देहान्त हो गया। मार्च २०२१ में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके नाम पर अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की है।

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