Saturday, November 23, 2024
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ये मीडिया का कोठाकरण क्यों हो गया?

लाख टके का सवाल है कि मीडिया के कोठाकरण की वजह क्या है? पहली वजह अंग्रेजीदां, सेकुलर-लेफ्ट के तुर्रम खां मीडियाकर्मियों का बिना रीढ़ के निकलना। यह साबित हुआ कि ये भी कायरता-गुलामी के हिंदू डीएनए के पर्याय हैं। दूसरा रोल सोशल मीडिया का समझ आता है। नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल ने पिछले पांच सालों में सोशल मीडिया में अपनी लंगूर सेना से विचार, बुद्धि, संस्कार, सार्वजनिक बहस-विमर्श पर जो उस्तरा चलवाया है उसके कई नतीजे हैं। एक तो इन दो के प्रति समर्थकों में कट्टरता बनी। तू मोदी का, तू केजरीवाल का। तूने मोदी पर लिखा तो तू केजरीवाल का दलाल। तूने केजरीवाल पर लिखा तो मोदी का भड़वा। भाड़े के इन सोशल मीडिया लंगूरों ने कैंपेन कर-करके मीडियाकर्मियों को डराया, रक्षात्मक बनाया। इन दोनों के लंगूरों का सत्व-तत्व विचारहीनता है। गालियां हैं। ये विचार, बुद्धि से नहीं, बल्कि भक्ति की मूर्खता में गालियां गढ़ते हैं। गालियां दे-दे कर इन्होंने भारत को नेताओं का गिरवी बना दिया है। विचार-विमर्श, बहस, वाद-विवाद, रीति-नीति सुझाव, विवेचना, विश्लेषण सब खत्म करा दिया। भारत में सोशल मीडिया का लंगूरीकरण दुनिया के लिए वैसे ही अनहोना है, जैसे अरनब गोस्वामी या और एंकरों का भड़भड़ाते हुए भोंपू बने रहना है।

मोदी राज से पहले विचार, सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता, वाम बनाम दक्षिण, राष्ट्रवादी हिंदू बनाम उदारवादी विचारधारओं में मीडिया और पत्रकार चिंहित होते थे और विचारों का इंद्रधनुष भी बनता था। पर मोदी-केजरीवाल का उदय हुआ तो दोनों ने अपने लंगूरों से पत्रकारों-टीकाकारों-विचारकों के गले में गालियों की तख्तियां डलवाई। इससे स्वभाविक हल्ला बनता गया कि सब बिकाऊ हैं। यों बिकाऊ का सूत्र संघ परिवार में दशकों पैठा रहा है। इसलिए कि नेहरू के आइडियां ऑफ इंडिया में वामपंथियों और सेकुलरों ने हिंदू या दक्षिणपंथी विचारों के प्रति रत्ती भर उदारता नहीं बताई। उन विचारों को विचार का दर्जा तक नहीं दिया। तभी संघ, हिंदूवादी या राष्ट्रवादी विचार लिए जो पत्रकार होते थे उनका लेफ्ट-सेकुलर पत्रकार जमात ने सत्ताखोरी के अपने वक्त में ऐसा गला घोंटा कि संघ-भाजपा, राष्ट्रवादियों की निगाहों में मीडिया लेफ्ट को बिका हुआ था।

दो और वजह भी बनती है। मीडिया कंपनियां शेयर बाजार में लिस्टेड हुईं। बड़ी पूंजी, कॉरपोरेट शक्ल से मीडिया समूह को देशी-विदेशी निवेश से ले कर रेवेन्यू की चिंता में दुबले रहना जरूरी है। जैसे एक वक्त चिकित्सा और डॉक्टर सेवा के पर्याय थे। मगर कॉरपोरेट अस्पतालों की बड़ी पूंजी, बड़े निवेश आए तो सेवा गई भाड़ में और रेवेन्यू की चिंता में मरीजों को लूटने का सिलसिला चल पड़ा। वैसा ही भारत के बड़े मीडिया सूमहों का हाल हुआ। तभी अपनी हर मामले में थीसिस है कि विचार और सेवा के कर्म में बड़ी पूंजी, कॉरपोरेट वाला रूप खतरनाक है। मीडिया समूहों का भी जब अरबों-खरबों का धंधा बना तो वे अपने को कोठे में बदलने के लिए मजबूर हैं।

अन्य कारण इंटरनेट युग का है। इंटरनेट ने सबको नंगा कर दिया है। कुछ एक्सक्लूसिव नहीं रहा इसलिए विचार, मौलिकता, लेखन कला और निडरता सब का टोटा।

मगर मैं इन दो बातों को अमेरिका और यूरोप के बड़े मीडिया समूहों के आईने में देखता हूं, उनसे अपने मीडिया समूहों व पत्रकारों की तुलना करता हूं तो दो टूक निष्कर्ष निकलेगा कि अमेरिका व यूरोपीय देश याकि सभ्य लोकतांत्रिक देशों में अखबार, टीवी चैनल, मीडिया समूह बिकाऊ कोठे में कतई परिवर्तित नहीं हैं। वहां विचार, वैचारिक बहस, भंडाफोड़ी की निडरता, सभ्य-सुसंस्कृत विमर्श सब है। वहां एकंर को देख या संपादक को देख कर कोई यह नहीं कहता है कि वह फलां का भोंपू है या दलाल है। न डोनाल्ड ट्रंप की परवाह और न वहां नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल छाप नेताओं के ऐसे लंगूर है जो पत्रकारों से यह वफादारी मांगें कि या तो तुम हमारे बनो नहीं तो उनके दलाल।

सो, पश्चिमी समाज में वैसा संकट नहीं है जैसा 2016 में भारत के मीडिया का है। विचार स्वतंत्रता का है। क्यों? ठीकरा उस पर फूटेगा जो भारत में आज नंबर एक खरीददार है। अपने हिसाब से मई 2014 के ऐतिहासिक जनादेश से दिसंबर 2015 तक नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के प्रति मीडिया में सहज सम्मान, समर्थन, डर का भाव समझ सकते हैं। तब नरेंद्र मोदी ने भी अनदेखी और मीडिया के लिए प्लानिंग में वक्त गुजरा। प्लानिंग के बाद का उनका रोडमैप 2016 जनवरी से शुरू हुआ। सत्ता के ढाई साल बाद नैरेटिव को अपने माफिक बनाए रखने की चुनौती के जवाब में उनका रोडमैप बना।

जनवरी 2016 के पदम पुरस्कारों से मीडिया समूहों के प्रबंधन की शुरुआत हुई। टाइम्स समूह और टाइम्स नाऊ नंबर एक तो उसी अनुसार इंदु जैन के पदम भूषण और एंकर अरनब गोस्वामी को इंटरव्यू, उसके फंक्शन में जा उसके कंधों पर हाथ रख मैसेजिंग बनवाई कि यहीं उनका नंबर एक कोठा। इस कोठे की भोंपूगिरी से जो दैनिक नैरिटव बना तो उसके खिलाफ केजरीवाल और सोशल मीडिया के मोदी विरोधी लंगूरों ने ऐसी गालियां छोड़ीं कि दोनों तरफ से जनता में कुल मैसेज बना- सब कुछ बिकाऊ है।

मीडिया के अपने कोठों को सजवाने, उनकी धमक बनवाने के लिए नरेंद्र मोदी और उनके प्रधानमंत्री दफ्तर ने वह सब काम किया, जिससे मीडिया की कुल क्रेडिबिलिटी जीरो बने। मीडिया मालिकों को पदम भूषण, मीडिया मालिक को राज्यसभा, बड़े अखबारों को कमाई करवाने के लिए डीएवीपी की नई विज्ञापन नीति जैसे तमाम नुस्खे। मुकाबले में केजरीवाल ने भी बेशर्म कोशिश कर एक बार अखबारों को खरीदने के लिए दिल्ली सरकार का राष्ट्रव्यापी कैंपेन चलवाया। वह उनका मोदी सरकार के आगे खम ठोकना था कि हम भी खरीदने में पीछे नहीं हैं।

कोठों की इस बस्ती में आंतक भरपूर है। कोठे के एंकर भीगी बिल्ली बन, लाईन को फॉलो करते हुए 2016 के साल में जिस तरह हर दिन दिखलाई दिए हैं उसने धीरे-धीरे जनता के दिमाग को पका दिया है कि ये सब बिके हुए हैं, डरे हुए हैं। मालिक और ग्राहक के आंतक में कोठे की औरतें जैसे डरी होती हैं, मुजरा करती हैं वैसे ही जब एंकर, कोठा मालिक और संपादक अपने को घिघियाया हुआ दिखलाते हैं तो पब्लिक क्यों न सोचे कि बिकाऊ माल हैं!

एक एंकर दुखी लोगों की लाईन दिखाता है तो उसी कोठे का दूसरा एंकर लाईन में भी सुख पाए लोगों की वाह बताता है। वेश्याओं की बस्ती में बड़े मीडिया समूह के कोठों के नीचे जो फुटकर, छोटे- मझोले अखबार, छोटी चैनलें थीं उनकी भीड़ को नरेंद्र मोदी ने नई विज्ञापन नीति से छंटवा दिया है। टाइम्स समूह, जागरण आदि बड़ों को भरपूर विज्ञापन की व्यवस्था कर दी है। यों नीति बड़ों को 50 प्रतिशत विज्ञापन देने की ही है लेकिन 2016 के इस बिकाऊ साल में कहते हंै कि 67 प्रतिशत विज्ञापन बड़ों को मिला हुआ होगा।

सो, कोठे वाले क्यों न अहसान चुकाएं? सब बिछे जा रहे हैं। और यह नरेंद्र मोदी के जीवन का सबसे बड़ा आनंद है। नरेंद्र मोदी ने निश्चित ही गुजरात में गांठ बांधी होगी कि मीडिया सूमहों को कोठों में बदलवा कर जनता में पत्रकारों को प्रमाणित तौर पर बिकाऊ, कायर, मूर्ख के नाते पैठा देना है। संपादकों-पत्रकारों की दो कौड़ी की औकात बना दी है। सभी नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आगे थर्राते हैं। ये तमाम मालिक अपने-अपने कोठे के इंवेंट से मोहल्ले में हल्ला करवाते हैं कि उनके यहां उस दिन फलां राजा साहेब आए, फलां मनसबदार आया। चेहरे जुटाने की महफिलें सजती हैं और फिर गरूर से झूमा जाता है कि उनके यहां इतने हाकिम, इतने मंत्री और इतने दलाल आए थे।

मैं तस्वीर बहुत वीभत्स पेश कर रहा हूं। पर हकीकत ज्यादा अकल्पनीय है। कोलकत्ता के एक मीडिया मालिक अविक सरकार को छोड़ कर आज सचमुच पूरे भारत में एक भी ऐसा दूसरा मालिक समझ नहीं आ रहा है जो निर्भीक हो और संपादकों-पत्रकारों को वैसी ही आजादी दे जैसी अविक सरकार ने टेलीग्राफ या आनंद बाजार पत्रिका के पत्रकारों को दी हुई है। वहां न ममता की चिंता और न मोदी की और न केजरीवाल की। आज मीडिया की विश्वसनीयता पर इमरजेंसी से भी अधिक गहरे दाग हैं। यों वह काल भी भारत के मीडिया के लिए शर्मनाक था। इंदिरा गांधी की सेंसरशिप ने झुकने को कहां था और हमारे अखबार व संपादक रेंगने लगे थे। पर तब मीडिया समूह बिकाऊ कोठे नहीं बने थे।

इमरजेंसी में मीडिया रेंगने वाला था तो बाद में कुछ प्रधानमंत्रियों ने अपने मनभावक जादू व मायाजाल से मीडिया को मेमना बना कर आजमाया। अपना मानना है कि रेंगना और मेमना चरित्र फिर भी इसलिए बरदास्त लायक था कि जब इमरजेंसी का डंडा है या राजीव गांधी की सवा चार सौ सीटें जीती हुई हैं तो मजबूरी व मुग्धता की हकीकत में जनता मीडिया को बख्श दे सकती है। मगर कोठे का 2016 का यह रूप! उफ! उसे नहीं बख्शेगी।

इस पूरे मामले को मैं राष्ट्र-राज्य का विकट संकट मान रहा हूं। जब देश ही बेबाक-बेधड़ विचार-विश्लेषण से शून्य और बुद्धिहीन, हो जाएगा तो मोदी-अमित शाह या केजरीवाल भारत की क्या श्रीवृद्धि करा सकेंगें? लंगूरों के नेताओं और लंगूरों की गालियों के साथ कोठों के प्रायोजित टॉक शो से बनना क्या है? 2016 ने भारत को बौद्धिक दीनता, गुलामी के उस मुकाम पर पहुंचाया दिया है, जिसकी जकड़न से वह दशकों मुक्त नहीं हो पाएगा।

जो हो, आपको हम पत्रकारों की इस दुर्दशा पर आंसू बहाने की जरूरत नहीं है। यह तो हम हिंदुओं की नियती है। झुकने के लिए कहा तो रेंगने लगे, राजा ने हाथ रखा तो बीन बजाने लगे, नरेंद्र मोदी-केजरीवाल का आंतक, उनके लंगूरों की गालियां आईं तो बिकाऊ हो गए। सो, कोठो का यह नैरेटिव कुल मिला कर हम हिंदुओं की राजा के आगे भक्ति और सुल्तानों की गुलामी के डीएनए का एक और प्रमाण है!

यही सत्व है, यही तत्व है और यही 2016 का दुखद निचोड़ है!

साभार- http://www.nayaindia.com/ से

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