भारत क्यों 800 वर्षों तक गुलाम रहा?- इसका उत्तर, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला के हालिया वक्तव्य में मिल जाता है। एक टीवी चैनल द्वारा पूछे चीन संबंधी सवाल पर अब्दुल्ला कहते हैं, ‘अल्लाह करे कि उनके जोर से हमारे लोगों को मदद मिले और अनुच्छेद 370-35ए बहाल हो।’ फारूक का यह वक्तव्य ऐसे समय पर आया है, जब सीमा पर भारत-चीन युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं।
विज्ञापन
यह न तो कोई पहली घटना है और न ही फारूक ऐसा विचार रखने वाले पहले व्यक्ति। वास्तव में, फारूक उन भारतीयों में से एक हैं, जो ‘बौद्धिक दासता’ रूपी रोग से ग्रस्त हैं। यह पहली बार नहीं है, जब ‘व्यक्तिगत हिसाब’, ‘महत्वाकांक्षा’ और ‘मजहबी जुनून’ पूरा करने और सत्ता पाने की उत्कंठा में कोई जन्म से ‘भारतीय’देश के प्रति अपनी संदिग्ध निष्ठा के साथ या विदेशी
शक्तियों के हिमायती के रूप में सामने आया हो।
क्या मीर जाफर ने बंगाल का नवाब बनने की लालसा में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की मदद नहीं की? क्या यह सत्य नहीं कि जयचंद, पृथ्वीराज चौहान से निजी रंजिश के कारण विदेशी इस्लामी आक्रांता मोहम्मद गौरी से जा मिला? क्या मैसूर के आततायी शासक टीपू सुल्तान ने भी मराठाओं और अंग्रेजों से लड़ने के लिए इस्लाम के नाम पर अफगानिस्तान के शासक जमन शाह दुर्रानी से मदद नहीं मांगी थी? यह अलग बात है कि उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई।
अफगान शासक अहमद शाह दुर्रानी भी ‘काफिर’ मराठाओं से लड़ने तत्कालीन मुगलों, नवाबों और शाह वलीउल्लाह देहलवी जैसे मौलवियों के कहने पर भारत आया था। 1920 में खिलाफत आंदोलन (1918-24) के समय हजारों भारतीय मुस्लिम ‘दारुल हरब’ भारत से ‘दारुल इस्लाम’ अफगानिस्तान की ओर हिजरत पर निकल गए थे। तब कांग्रेस के नेता और स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद- इस इस्लामी अभियान के मुख्य संचालकों में से एक थे।
फारूक अब्दुल्ला की मानसिकता का आकलन उनके पारिवारिक इतिहास में निहित है। उनके पिता शेख अब्दुल्ला घोर सांप्रदायिक कश्मीरी नेता थे। दशकों से हम कश्मीर को जिस ‘संकट’ में घिरा देख रहे हैं, उसके मुख्य रचनाकार शेख अब्दुल्ला ही थे, जिन्हें-‘काफिर’ महाराजा हरिसिंह जैसे देशभक्त के खिलाफ मजहबी आंदोलन चलाने, 1947-48 में बढ़ती भारतीय सेना को बिना पूरे कश्मीर को मुक्त कराए युद्धविराम की घोषणा करवाने और अनुच्छेद 370-35ए लागू करवाने में पंडित जवाहरलाल नेहरू का संरक्षण प्राप्त था।
वास्तव में, शेख अब्दुल्ला कश्मीर में सैयद अहमद खान के विषाक्त विचारों का ही दोहन कर रहे थे- जिन्होंने 1857 की पहली स्वतंत्रता क्रांति के बाद ब्रितानी हितों के प्रति वफादार रहते हुए मुस्लिम अलगाववाद (‘दो राष्ट्र सिद्धांत’) का बीजारोपण किया था। ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन को अब्दुल्ला परिवार ने कालांतर में तत्कालीन केंद्र सरकारों की अनुकंपा से ऐसे पोषित किया कि 1980-90 आते-आते घाटी में कई ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़ दिया गया, दर्जनों हिंदू मौत के घाट उतार दिए गए और उनकी महिलाओं से सरेआम बलात्कार किया गया।
परिणामस्वरूप, पांच लाख हिंदू कश्मीर से पलायन कर गए। उस समय देश के गृहमंत्री पद पर मुफ्ती मोहम्मद सईद (महबूबा मुफ्ती के पिता) आसीन थे। अनुच्छेद 370-35ए की बहाली हेतु फारूक अब्दुल्ला जिस साम्यवादी चीन से सहयोग मांग रहे हैं, उसका अपना इस्लाम के प्रति ट्रैक रिकॉर्ड क्या है? शेख अब्दुल्ला से लेकर उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की राजनीति मस्जिदों से शुरू होकर ‘इस्लाम खतरे में है’ पर खत्म होती है। वहीं चीन अपने शिनजियांग प्रांत में चीनी समाजवाद को बढ़ावा देने के नाम पर सैकड़ों मस्जिदों को जमींदोज कर चुका है।
चीन में मुसलमानों की संख्या दो करोड़ है। अपने मुस्लिम विरोधी राजकीय अभियान के अंतर्गत, चीनी सरकार ने इस्लाम के ‘चीनीकरण’ हेतु पंचवर्षीय योजना तैयार की है, जिसमें मुसलमानों के इस्लामी नाम रखने, दाढ़ी बढ़ाने और कुरान पढ़ने पर प्रतिबंध है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, शिनजियांग में चीनी सरकार ने 10 लाख से अधिक उइगर मुस्लिमों को कट्टरवाद विरोधी गुप्त शिविरों में कैद करके रखा है, जहां उन्हें अपने मजहब की निंदा करने और सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति निष्ठा रखने के लिए बाध्य किया जा रहा हैं। यही नहीं, पांच लाख उइगर बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर दिया गया है।
तिब्बत, जो 1950 से साम्राज्यवादी चीन के कब्जे में है- वहां दशकों से चीनी सरकार द्वारा प्रायोजित बौद्ध संस्कृति और पूजा-पद्धति को नष्ट करने का दुष्चक्र चल रहा है। विगत माह ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बत को एक ‘नया आधुनिक समाजवादी’ क्षेत्र बनाने, वहां अलगाववाद के खिलाफ एक ‘अभेद्य दीवार’ का निर्माण और तिब्बती बौद्ध अनुयायियों के ‘सिनीकरण’ का आह्वान किया है। अर्थात्- शी ने तिब्बती धरती पर तिब्बती पहचान को नष्ट करने का खुला एलान किया है। क्या फारूक अब्दुल्ला को लगता है कि चीनी सरकार, कश्मीर में शिनजियांग और तिब्बत से भिन्न नीति अपनाएगी? उन्हें स्मरण रहना चाहिए कि गद्दार कभी पुरस्कृत नहीं होते- चाहे वह मीर जाफर हो या फिर जयचंद।
दासत्व मानसिकता का अन्य उदाहरण बीते दिनों ही देखने को मिला था। कांग्रेस नीत संप्रगकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे शिवशंकर मेनन ने अमेरिकी पत्रिका के लिए आलेख में लिखा, ‘…अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मोदी सरकार को अपने घरेलू एजेंडे लागू करने का फ्री-पास (स्वतंत्रता) दे दिया है।…’ फारूक अब्दुल्ला और शिवशंकर मेनन जैसे ‘विद्वान’ उस विकृत बौद्धिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री को देश में मिले जनादेश पर काम न करके केवल विदेशी शक्तियों के इशारे पर काम करने का दर्शन है। यदि देश में बहुलतावाद, लोकतंत्र और सांविधानिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखना है, तो इस ‘बौद्धिक दासता’ को लगातार बेनकाब करना होगा।
(-लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)