एक बार फिर कावेरी जल बंटवारे के मसला चर्चा में है। अदालत ने जल बंटवारे के बारे में फैसला फरवरी में ही सुना दिया था। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा कि ड्राफ्ट कैबिनेट के सामने पेश किया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री के कर्नाटक चुनाव में व्यस्त होने के कारण वह अभी तक इसे देख नहीं पाए हैं। केंद्र सरकार के इस जवाब पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा, ‘कर्नाटक चुनाव से हमारा कोई लेना-देना नहीं है और न ही यह हमारी चिंता है। कर्नाटक सरकार को तत्काल तमिलनाडु के लिए पानी छोड़ना होगा। कानूनी जानकार मानते हैं कि इस समस्या के समाधान के कानूनी आधार तो मौजूद हैं लेकिन जब तक इन चारों संबद्ध राज्यों के बीच जल को लेकर चल रही राजनीति खत्म नहीं होती, इस मसले को सुलझाना असंभव होगा। यह दो प्रमुख राज्यों के बीच राजनीतिक वर्चस्व को लेकर भी जोर-आजमाइश का विषय बना हुआ है।
आखिर केन्द्र सरकार को बार-बार इस ज्वलंत मसले पर सर्वोच्च अदालत की फटकार क्यों सुननी पड़ रही है? जब अदालत ने जल बंटवारे के बारे में फैसला फरवरी में सुना दिया था और फिर केंद्र की जिम्मेदारी तय करते हुए उसे एक निगरानी तंत्र यानी कावेरी प्रबंधन बोर्ड गठित करने निर्देश दिया था तो दो बार इसकी समय-सीमा बीत जाने के बाद भी बोर्ड का गठन क्यों नहीं हो पाया है? इससे तमिलनाडु में खासी नाराजगी है। वहां केंद्र की तरफ से होती आ रही कोताही के खिलाफ पिछले दिनों काफी विरोध प्रदर्शन हुए हैं, हिंसा हुई है। गरमी के मौसम में, जब पानी की जरूरत बढ़ जाती है, तमिलनाडु के लोगों का रोष स्वाभाविक है। तमिलनाडु सरकार ने केंद्र के रवैए को सर्वोच्च अदालत की अवमानना करार देते हुए याचिका दायर की थी।
अदालत ने कर्नाटक को भी खरी-खोटी सुनाई है जिसने न्यायाधिकरण के बताए फार्मूले पर तमिलनाडु को पानी मुहैया नहीं कराया है। केंद्र की ही तरह कर्नाटक के भी इस रवैए की वजह चुनावी है। क्या नदी जल बंटवारे के झगड़ों का समाधान चुनावी नफा-नुकसान देख कर होगा? हालांकि सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में तमिलनाडु के हिस्से में आने वाले पानी में थोड़ी कमी कर दी थी, बंेगलुरू और मैसूर में पेयजल संकट के मद्देनजर। लेकिन निगरानी तंत्र बन जाए तो तमिलनाडु को फायदा ही होगा। फिर प्रस्तावित बोर्ड की जिम्मेदारी होगी कि वह पंद्रह साल के लिए दिए गए अदालत के फैसले के अनुरूप तमिलनाडु को कावेरी का पानी मिलना सुनिश्चित करता रहे।
अदालत में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र से पूछा कि बोर्ड का गठन अब तक क्यों नहीं हो पाया है। इसके जवाब में केंद्र के महाधिवक्ता ने जो कुछ कहा उससे इस अनुमान की पुष्टि ही होती है कि अब तक बोर्ड का गठन न हो पाने की वजह चुनावी है। महाधिवक्ता ने कहा कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव की वजह से प्रधानमंत्री और केंद्र के बहुत-से मंत्री लगातार चुनावी दौरों में व्यस्त हैं, इसलिए बोर्ड का गठन नहीं हो सका। लेकिन सच तो यह है कि व्यस्तता से ज्यादा बड़ा कारण यह डर होगा कि अगर बोर्ड का गठन हो गया तो कर्नाटक चुनाव में कंेद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। आखिर जनता के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण चुनाव और उसके परिणाम का होना क्या दर्शाता है?
दक्षिण की गंगा, अन्नपूर्णा, पावन ”कावेरी“ में आखिर कब तक उबाल आता रहेगा? कब तक राजनीतिक दल जन-जन की जीवनरेखा-जल के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकते रहेंगे? कब तक जीवन देने वाली पवित्र नदियों को जहर बनते देखते रहेंगे?
धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर की घाटी, जहां ”झेलम“ बहती है, अलगाववाद का नारा बुलन्द हो रहा है। शस्य श्यामला, सोना उगलने वाली धरती, देश की ”ग्रेनरी“ पंजाब में बहने वाली ”सतलज“ के तटों पर नशा बह रहा हैं। कीमती उत्पाद देने वाली और तरल शक्ति को अपने में समाये हुए असम राज्य में जहां ”ब्रह्मपुत्र“ बहती है वहां चीनी आतंक फैला हुआ है। भारत की यज्ञोपवित, करोड़ों की पूज्या ”गंगा“ के तराई क्षेत्र व उत्तर प्रदेश, बिहार में साम्प्रदायिकता और हिंसा ने सिर उठा लिया है। ये नदियां शताब्दियों से भारतीय जीवन का एक प्रमुख अंग बनी हुई हैं। इन्हीं के तटों से ऋषियों-मुनियों की वाणी मुखरित हुई थी। जहां से सदैव शांति एवं प्रेम का संदेश मिलता था। इसमें तो पूजा के फूल, अघ्र्य और तर्पण गिरता था वहां निर्दोषों का खून गिरता है। वहां से अलगाव एवं बिखराव के स्वर को प्रस्फुटित हो रहे हैं? हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं विविधता की एकता का संदेश इन्हीं धाराओं की कलकल से मिलता रहा है। जिस जल से सभी जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र के लोगों के खेत सिंचित होते हैं। जिनमें बिना भेदभाव के करोड़ों लोग अपना तन-मन धोते हैं। जो जल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी की भी प्यास बुझाता है, उसमें अलगाव, भेदभाव, साम्प्रदायिकता का जहर कौन घोल रहा है?
”कावेरी“ विवाद ने कर्नाटक और तमिलनाडु को परस्पर ”बैरी“ बना दिया। यह विवाद राष्ट्रीय विघटन की तरफ एक खतरनाक मोड़ ले रहा है। दोनों राज्यों के सांसदों और विधायकों से होता हुआ यह विवाद राज्यों की जनता के दिलों मंे कड़वाहट घोलता रहा है। कावेरी ने दोनों प्रांतों को जोड़ा था पर राजनीतिज्ञ इसे तोड़ रहे हैं। लाखों लोग इधर से उधर अपने-अपने घर छोड़कर चले गये हैं। भारत सोवियत संघ की तरह राज्यों का संघ नहीं है। बल्कि कर्नाटक और तमिलनाडु एक अखण्ड राष्ट्र के उसी प्रकार हिस्से हैं जिस प्रकार मनुष्य शरीर के अंग हुआ करते हैं।
”नदी जल“ के लिए कानून बना हुआ है। आवश्यक हो गया है कि उस पर पुनर्विचार कर देश के व्यापक हित में विवेक से निर्णय लिया जाना चाहिए। हम देख चुके हैं कि पंजाब और हरियाणा के बीच पानी विवाद, हम देख चुके हैं हरियाणा एवं दिल्ली के बीच पानी का विवाद।
हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ वोट की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु का यह विवाद आज हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दे उससे पूर्व आवश्यकता है तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक राष्ट्रीय हित के परिपे्रक्ष्य मंे देखा जाये। जीवन में श्रेष्ठ वस्तुएं प्रभु ने मुफ्त दे रखी हैं- पानी, हवा और प्यार। और आज वे ही विवादग्रस्त, दूषित और झूठी हो गईं। बहुत हो चुका है।
राजनीति लाभ के लिये तमिलनाडु के हितों और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना किस दृष्टि से जायज कहीं जाये? यह कैसी राष्ट्रीयता है? यह कैसा अखण्ड भारत है? दो या अधिक राज्यों के बीच प्राकृतिक संसाधन के बंटवारे का झगड़ा हो, तो केंद्र से उम्मीद की जा सकती है कि उसकी मध्यस्थता से समाधान निकल जाएगा। लेकिन यह उम्मीद न सतलुज के मामले में पूरी हो पायी है न कावेरी के मामले में। केंद्र की इस नाकामी के कारण ही कावेरी का मामला बहुत लंबे समय से अदालत में चलता रहा है। अदालत ने तथ्यों की विस्तृत छानबीन के बाद कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी के बीच कावेरी के पानी का बंटवारा किस प्रकार होगा इसका फैसला फरवरी में ही सुना दिया था।
अदालत ने कर्नाटक को भी खरी-खोटी सुनाई है जिसने न्यायाधिकरण के बताए फार्मूले पर तमिलनाडु को पानी मुहैया नहीं कराया है। केंद्र की तरह कर्नाटक के भी इस रवैए की वजह चुनावी है। क्या नदी जल बंटवारे के झगड़ों का समाधान चुनावी नफा-नुकसान देख कर होगा? हालांकि सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में तमिलनाडु के हिस्से में आने वाले पानी में थोड़ी कमी कर दी थी, बंेगलुरू और मैसूर में पेयजल संकट के मद्देनजर। लेकिन निगरानी तंत्र बन जाए तो तमिलनाडु को फायदा ही होगा। फिर प्रस्तावित बोर्ड की जिम्मेदारी होगी कि वह पंद्रह साल के लिए दिए गए अदालत के फैसले के अनुरूप तमिलनाडु को कावेरी का पानी मिलना सुनिश्चित करता रहे। कर्नाटक के किसानों के दबाव के चलते राज्य सरकार उतना पानी नहीं जारी करती जितना सुप्रीम कोर्ट कहता है। इसी कारण हर साल तमिलनाडु अदालत की अवमानना का मामला दायर करता है। ऐसा ही विवाद उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा के बीच है। इस समस्या का कारण क्षेत्रीयतावाद है, जो कि क्षेत्र के नेताओं के हवा देने से सुलगता है और राजनीतिक दल इससे तात्कालिक लाभ उठाने के लिए तैयार रहते हैं। उनके लिए तो देशहित जैसी कोई भावना होती ही नहीं है। आखिर राजनेता कब तक जल में जहर घोलते रहेंगे?
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(ललित गर्ग)
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