एक बार गोरखपुर यूनिवर्सिटी में वायवा लेने आए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। वाइबा में एक लड़की से उन्होंने करुण रस के बारे में पूछ लिया। लड़की छूटते ही जवाब देने के बजाय रो पड़ी। बाद में जब वायवा की मार्कशीट बनी तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उस रो पड़ने वाली लड़की को सर्वाधिक नंबर दिया। लोगों ने पूछा, ‘यह क्या? इस लड़की ने तो कुछ बताया भी नहीं था। तब भी आप उसे सब से अधिक नंबर दे रहे हैं?’ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा, ‘अरे सब कुछ तो उस ने बता दिया था। करुण रस के बारे में मैं ने पूछा था और उस ने सहज ही करुणा उपस्थित कर दिया। और अब क्या चाहिए था?’ लोग चुप हो गए थे।
सच यही है कि करुणा न हो तो साहित्य न हो। आह से उपजा होगा गान! सुमित्रा नंदन पंत ने ठीक ही लिखा है। करुणा और स्त्री की संवेदनात्मक बुनावट अदभुत है। बाल्मीकि कवि बने ही थे करुणा से। लेकिन करुणा का जैसा दृश्य और वर्णन कालिदास के यहां हैं, कहीं और नहीं है। मेघदूत, अभिज्ञान शाकुंतलम हर कहीं। सीता वनवास का वर्णन बहुत सारे लोगों ने लिखा है पर जैसा और जिस तरह कालिदास ने लिखा है किसी और ने नहीं। सीता को लक्ष्मण वन में छोड़ कर जा रहे हैं। जब तक लक्ष्मण दिख रहे हैं तब तक सीता निश्चिंत हैं।
लक्ष्मण ओझल होते हैं सीता की आंख से तो रथ जब तक दीखता है तब तक भी वह ठीक हैं। रथ ओझल होता है तो रथ का ध्वज दिखने लगता है। सीता का धैर्य तब भी बना रहता है। लेकिन ज्यों ही रथ का ध्वज भी ओझल होता है, सीता का विलाप शुरू हो जाता है। सीता के विलाप में करुणा और रुदन इस कदर है दूब चबा रहे हिरणों के मुंह से दूब गिर जाता है। जानवर जहां हैं, वहीं ठिठक जाते हैं। वृक्ष की शाखाएं एक दूसरे से रगड़ खा कर गिरने लगती हैं। पत्ते टूटने लगते हैं। सीता के विलाप में पूरा वन शोकमग्न हो विलाप करने लग जाता है। सारे जीव-जंतु रुदन करने लगते हैं। संस्कृत सहित दुनिया की सभी भाषाओं के पद्य इसी लिए लोकप्रिय हैं कि उन सब के केंद्र में स्त्री ही है।
स्त्री और प्रकृति के बिना प्रेम उपस्थित ही नहीं हो सकता। संस्कृत के सब से पहले गल्प और गद्य की धुरी भी स्त्री ही है। वाणभट्ट की कादंबरी। अन्ना केरनिना हो या गोर्की की मां। बिना स्त्री के कोई कथा कहां पूरी होती है। गोदान में धनिया न होती तो होरी का संघर्ष धार कहां से पाता भला? प्रेमचंद की निर्मला की यातना आज भी बदली है क्या? बेमेल शादियों की लड़ी कहां टूटी है? नेट और ऐटम के युग में भी स्त्री आइटम बन कर ही तो जी रही है। साहित्य में यह सब छलक रहा है। बेहिसाब। अनवरत। दुनिया भर के साहित्य में।
हिंदी में आज भी प्रेमचंद सब से ज़्यादा पढ़े जाने और बिकने वाले लेखक माने जाते हैं। लेकिन हिंदी में छप कर प्रेमचंद से भी ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले एक लेखक हैं बंगला के शरत चंद। तो इस लिए कि शरत चंद के यहां स्त्री संवेदना और उस का मनोविज्ञान ज़्यादा खदबदाता है। सच यह है कि परिवार, समाज और साहित्य स्त्री के बिना सुंदर नहीं हो सकता। स्त्री के बिना इस की कल्पना नहीं की जा सकती।
ख़ास कर साहित्य की। जो समाज, जो साहित्य बिना स्त्री के सांस लेता है तो वह मृत होता है। संविधान और क़ानून में बराबरी का दर्जा पाने के बावजूद इस पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्री भले बराबरी का दर्जा पूरी तरह भले न पा पाई हो पर साहित्य में वह कंधा से कंधा मिला कर चलती मिलती है। पूरी बराबरी, पूरी ताक़त और पूरी समानता से। प्रेम यह संभव कर देता है। कम से कम साहित्य में तो ज़रुर ही।
स्त्री न होती कथा में तो क्या उसने कहा था जैसी कालजयी कथा लिखी गई होती? गुलेरी ने बुद्धू का कांटा भी कैसे लिखी होती? हिंदी की पहली कहानी के रूप में इंशा अल्ला खाँ की कहानी ‘रानी केतकी की कहानी’, किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ तथा ‘बंग महिला’ की ‘दुलाई वाली’ का नाम लिया जाता है, किंतु ‘उसने कहा था’ कहानी को ही हिंदी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है।
हिंदी के प्रखर आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी के संबंध में लिखा है, इस के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इस की ऐसी ही है, जैसी अकसर हुआ करती है, पर उस के भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है, केवल झांक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी में कहीं प्रेम की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुंचता, इस की घटनाएं ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं है।
शिवानी की एक मशहूर कहानी है करिए छिमा। प्रेम कहानी के तौर पर मैं इस कहानी को उस ने कहा था से भी बेहतर और आगे की कहानी मानता हूं। लेकिन हिंदी आलोचकों ने जाने क्यों इस कहानी को नज़र अंदाज़ कर दिया है। बताईए कि एक स्त्री अपने प्रेमी को बदनामी से बचाने ख़ातिर अपने जन्मे बच्चे को बर्फीली नदी में डुबो कर मार डालती है। क्या तो उस का रंग-रुप, नाक नक्श सब कुछ उस के प्रेमी से मिलता है। वह जेल चली जाती है। पर प्रेमी का नाम नहीं लेती। वर्षों की क़ैद काट कर जेल से छूटने बाद में वह प्रेमी को ही यह बात बताती है। प्रेमी एक बड़ा राजनीतिज्ञ है।
कामतानाथ का उपन्यास तुम्हारे नाम और हिमांशु जोशी का उपन्यास तुम्हारे लिए एक ही समय आया था। इन दोनों उपन्यासों की नायिकाएं प्रेम की नायिकाएं हैं। जैनेंद्र कुमार और अज्ञेय का सारा साहित्य स्त्री के केंद्र में है। जैनेंद्र कुमार का उपन्यास सुनीता तो अद्भुत है। एक क्रांतिकारी एक स्त्री के आकर्षण में भटक कर क्रांति से विमुख होने लगता है तो वह एक दिन अचानक उस के सामने निर्वस्त्र हो कर खड़ी हो जाती है। कहती है कि इसी के लिए तो तुम अपनी लड़ाई, अपना लक्ष्य भूल गए हो? वह हतप्रभ हो जाता है, संभल जाता है।
अज्ञेय की कविताओं में स्त्रियों की पदचाप अनायास सुनाई देती रहती है। उन के उपन्यास शेखर एक जीवनी हो, नदी के द्वीप हर कहीं स्त्री केंद्र में है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यासों और कहानियों की ताक़तवर स्त्री चरित्रों को लोग कहां भूल पाए हैं। मोहन राकेश के नाटक, उपन्यास और कहानियां बिना स्त्री पात्रों के एक क़दम नहीं चलते। निर्मल वर्मा के यहां तो स्त्रियां हैं, एकांत है और उन का निरा अकेलापन। जैसे सब कुछ चुपचाप। वृक्ष से गिरती पत्तियों की तरह।
ऐसे जैसे रवींद्र नाथ ठाकुर का संगीत किसी नदी की तरह बह रहा हो। पिकासो की कोई पेंटिंग बनती जा रही हो। रवींद्र नाथ ठाकुर के साहित्य में भी क्या कहानी, क्या कविता जैसे हर जगह स्त्रियां परछाई की तरह उपस्थित मिलती हैं। इन फिरोज़ी होठों पर बरबाद मेरी ज़िंदगी जैसी कविताएं लिखने वाले धर्मवीर भारती जब कनुप्रिया लिखते हैं तब उन की भावप्रवणता देखने लायक है। और फिर उन के अंधा युग में भी क्या स्त्री तत्व उभर कर नहीं आता? गांधारी का दुःख और द्रौपदी की यातना को वह एक विलाप में निबद्ध करते मिलते हैं। गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा में भी वह स्त्री पात्रों को ही निखारते-निहारते मिलते हैं।
कमलेश्वर की काली आंधी की नायिका अगर इतनी महत्वाकांक्षी और डिप्लोमेट न होती तो रची कैसे जाती? मनोहर श्याम जोशी के कुरु कुरु स्वाहा में स्त्री पात्रों की वैविध्यता और बहुलता भी उसे ताक़तवर बनाती हैं। जोशी जी के कसप की बेबी जैसी नायिका भी क्या उन की कथा को सशक्त नहीं बनाती? मैथिली शरण गुप्त की यशोधरा और उर्मिला आज भी गुहारती मिल जाती हैं अपनी यातना कथा बांचती हुई। रामधारी सिंह दिनकर वीर रस के कवि हैं। ओज के कवि हैं। पर उर्वशी और पुररुवा के गीतों में वह औचक सौंदर्य रच जाते हैं। और बारंबार।
पंत प्रकृति के कवि हैं पर नौका विहार में जो चांदनी रचते हैं वह क्या प्रेम की चांदनी भी नहीं रचते? हरिवंश राय बच्चन ने कहते ही हैं कि मैं इस लिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो! और कि इस चांदनी में सब क्षमा है! चेतना पारिख कैसी हो/ पहले जैसी हो! जैसी कविताएं लिखने वाले ज्ञानेंद्रपति के सवाल और उन की कविताएं स्त्री के इर्द-गिर्द ही तो हैं। नागार्जुन, शमशेर, केदार, नीलाभ से लगायत नए कवियों की कविताओं में भी स्त्री और स्त्री का प्रेम, स्त्री की यातना, उस का दर्द, उस की छटपटाहट निरंतर दर्ज हो रही है। मां और प्रेमिका तमाम-तमाम कवियों की कविताओं में न्यस्त हैं।
कथा साहित्य सशक्त ही तभी होता है जब स्त्री की संवेदना शिद्दत से उपस्थित मिलती है। अब आप ही बताएं कि सीता न होतीं तो क्या रामायण की कथा ऐसी ही होती? या कि द्रौपदी नहीं होतीं तो क्या महाभारत का प्रस्थान बिंदु और उस का आख्यान यही और ऐसे ही होता भला? सुमित्रा नंदन पंत लिख ही गए हैं; ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अंजान..।