मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर मन्दिर भारत के तमिलनाडु राज्य के मदुरई नगर, में स्थित एक ऐतिहासिक मन्दिर है। यह मंदिर वैगई नदी के दक्षिणी किनारे पर बना है। वैगइ नदी तेनी ज़िले में पश्चिमी घाट की वरुसुनाडु पहाड़ियों में उत्पन्न होती है और इसका अंत रामनाथपुरम जिले में पंबन ब्रिज के करीब अलगनकुलम के पास पाक जलसंधि में विलय होने से होता है। इस नदी के तट पर निर्मित इस मन्दिर को अरुलमिगु मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर या अरुलमिगु मीनाक्षी अम्मन थिरुकोविल भी कहा जाता है। यह हिन्दू देवता शिव (सुन्दरेश्वरर) एवं उनकी भार्या देवी पार्वती (मीनाक्षी या मछली के आकार की आंख वाली देवी के रूप में) दोनो को समर्पित है। यह मछली पांड्य राजाओं का राजचिह्न था यह मंदिर पांड्य राजाओं द्वारा संरक्षित है । यह मन्दिर तमिल भाषा के गृहस्थान 2500 वर्ष पुराने मदुरई नगर की जीवनरेखा है।
हिन्दू पौराणिक कथानुसार भगवान शिव सुन्दरेश्वरर रूप में अपने गणों के साथ पांड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरई नगर में आये थे। मीनाक्षी को देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। इस मन्दिर को देवी पार्वती के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है।
देवी मीनाक्षी का विवाह भगवान सुंदरेश्वर से सोमवार, 20 फरवरी 3138 ईसा पूर्व को मदुरै में हुआ था, जब चंद्र कन्या राशि में था और सूर्य मेष राशि में था। तमिल नववर्ष सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है और हर साल, नए साल की शुरुआत के 10 दिन बाद, मंदिर में मीनाक्षी त्रिल कल्याणम (विवाह) होता है। पांड्य तमिल शब्द पांडी (बैल) से भी जाना जाता है , क्योंकि प्राचीन तमिल लोग बैल को पुरुषत्व और वीरता का प्रतीक मानते थे। सुंदरेश्वर लिंग कृतयुग से प्रकट होता है। देवताओं के राजा इंद्र अपने गुरु की हत्या के दोषी थे और उन्हें एक भिखारिन के रूप में दुनिया में भटकने का श्राप मिला था। वे काशी (वाराणसी), कांची और तिरुकदावूर गए ।
राजा कुलशेखर पांड्यन की राजधानी में रहने वाले एक व्यवसायी धनंजय ने जंगल के बीच में इस मंदिर को देखा और राजा को बताया था । तमिल साहित्य में विष्णु को जिसमें मीनाक्षी का भाई माना जाता है, इस विवाह में कन्यादान करने के लिए सहमत हुए, क्योंकि उस समय मीनाक्षी के पिता नहीं थे। ये विष्णु स्वयं कृष्ण हो सकते हैं, जो उस समय द्वारका में थे ।
इस मन्दिर का स्थापत्य एवं वास्तु आश्चर्यचकित कर देने वाला है, जिस कारण यह आधुनिक विश्व के सात आश्चर्यों की सूची में प्रथम स्थान पर स्थित है, एवं इसका कारण इसका विस्मय कारक स्थापत्य ही है। इस इमारत समूह में 12 भव्य गोपुरम हैं, जो अतीव विस्तृत रूप से शिल्पित हैं। इन पर बडी़ महीनता एवं कुशलतापूर्वक रंग एवं चित्रकारी की गई है, जो देखते हृदय में स्थान बना लेती है। यह मन्दिर तमिल लोगों का एक अति महत्वपूर्ण प्रतीक है, एवं इसका वर्णन तमिल साहित्य में पुरातन काल से ही होता रहा है। हालांकि वर्तमान निर्माण आरम्भिक सत्रहवीं शताब्दी का बताया जाता है।
देवी पार्वती का हाथ भगवान शिव के हाथों में देते हुए (पाणिग्रहण संस्कार करते हुए) दिखाया गया है। देवी के भ्राता भगवान विष्णु (हिन्दू आलेखों के अनुसार) भगवान शिव पृथ्वी पर सुन्दरेश्वरर रूप में स्वयं देवी पार्वती पृथ्वी पर मिनाक्षी से विवाह रचाने के लिए अवतरित हुए। देवी पार्वती ने पूर्व में पाँड्य राजा मलयध्वज, मदुरई के राजा की घोर तपस्या के फलस्वरूप उनके घर में एक पुत्री के रूप में अवतार लिया था।वयस्क होने पर उसने नगर का शासन संभाला था । तब भगवान आये और उनसे विवाह प्रस्ताव रखा, जो उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस विवाह को विश्व की सबसे बडी़ घटना माना गया, जिसमें लगभग पूरी पृथ्वी के लोग मदुरई में एकत्र हुए थे। भगवान विष्णु स्वयं, अपने निवास बैकुण्ठ से इस विवाह का संचालन करने आये।
ईश्वरीय लीला अनुसार इन्द्र के कारण उनको रास्ते में विलम्ब हो गया। इस बीच विवाह कार्य स्थानीय देवता कूडल अझघ्अर द्वारा संचालित किया गया। बाद में क्रोधित भगवान विष्णु आये और उन्होंने मदुरई शहर में कदापि ना आने की प्रतिज्ञा की। और वे नगर की सीमा से लगे एक सुन्दर पर्वत अलगार कोइल में बस गये। बाद में उन्हें अन्य देवताओं द्वारा मनाया गया एवं उन्होंने मीनाक्षी-सुन्दरेश्वरर का पाणिग्रहण कराया। यह विवाह एवं भगवान विष्णु को शांत कर मनाना, दोनों को ही मदुरई के सबसे बडे़ त्यौहार के रूप में मनाया जाता है, जिसे चितिरई तिरुविझा या अझकर तिरुविझा, यानि सुन्दर ईश्वर का त्यौहार कहते हैं। इस दिव्य युगल द्वारा नगर पर बहुत समय तक शासन किया गया। यह भी मना जाता है, कि इन्द्र को भगवान शिव की मूर्ति शिवलिंग रूप में मिली और उन्होंने मूल मन्दिर बनवाया। इस प्रथा को आज भी मन्दिर में पालन किया जाता है ― त्यौहार की शोभायात्रा में इन्द्र के वाहन को भी स्थान मिलता है।
वर्तमान मंदिर
आधुनिक ढांचे को तिरुज्ञानसंबन्दर, प्रसिद्ध हिन्दू शैव मतावलम्बी संत ने इस मन्दिर को आरम्भिक सातवीं शती का बताया है औरिन भगवान को आलवइ इरैवान कहा है।इस मन्दिर में मुस्लिम शासक मलिक कफूर ने 1310 में खूब लूटपाट की थी। और इसके प्राचीन घटकों को नष्ट कर दिया। फिर इसके पुनर्निर्माण का उत्तरदायित्व आर्य नाथ मुदलियार (1559-1600 A.D.), मदुरई के प्रथम नायक के प्रधानमन्त्री, ने उठाया। वे ही ‘पोलिगर प्रणाली’ के संस्थापक थे। फिर तिरुमलय नायक, लगभग 1623 से 1659 का सर्वाधिक मूल्यवान योगदान हुआ। उन्होंने मन्दिर के वसंत मण्डप का निर्माण कराया था।
इस मन्दिर का गर्भगृह 3500 वर्ष पुराना है, इसकी बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण लगभग 1500-2000 वर्ष पुराने हैं। इस पूरे मन्दिर का भवन समूह लगभग 45 एकड़ भूमि में बना है, जिसमें मुख्य मन्दिर भारी भरकम निर्माण है और उसकी लम्बाई 254मी एवं चौडा़ई 237 मी है। मन्दिर बारह विशाल गोपुरमों से घिरा है, जो कि उसकी दो परिसीमा प्राकार (चार दीवारी) में बने हैं। इनमें दक्षिण द्वार का गोपुरम सर्वोच्च है।
मीनाक्षी मंदिर की सबसे खास बात यह है कि इसके परिसर में दो मंदिर है। एक मंदिर है मीनाक्षी मंदिर और दूसरे को कहा जाता है प्रधान मंदिर। यहां मीनाक्षी देवी के एक हाथ में तोता है और दूसरे हाथ में एक छोटी-सी तलवार है। इनके मंदिर की दीवार पर एक कल्याण उत्सव का एक चित्र अंकित किया गया है। जबकि दूसरे मंदिर में सुंदरेश्वर देव का मंदिर है, जिन्हें शिव का अवतार माना जाता है। यहां पाणिग्रहण समारोह में सुंदरेश्वर देव का हाथ मीनाक्षी देवी के हाथों में सौंपा जाता है। एक ओर जहां हिन्दू धर्म में कन्यादान किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ मीनाक्षी देवी मंदिर में एक अनुपम परम्परा देखी जाती है। मान्यता है कि हर रात्रि सुंदरेश्वर मीनाक्षी के देवी के गर्भगृह में यात्रा करते हैं। इस दौरान दोनों दम्पति साथ रहते हैं, जिन्हें इस समय पर कोई परेशान नहीं करता।
पौराणिक कहानी के अनुसार मदुरै के राजा मलयध्वज पांड्या और उनकी पत्नी ने पुत्र पाने के लिए यज्ञ किया था। इस यज्ञ से उन्हें जो पुत्री प्राप्त हुई, उसकी आयु तीन वर्ष थी। एक सामान्य बच्चे से आयु में बड़ी जन्मीं पुत्री की एक विशेष बात यह थी कि उसकी आंखें मछली की तरह बड़ी-बड़ी और सुडौल थी। इस कारण से राजा मलयध्वज और उनकी पत्नी ने अपनी पुत्री का नाम मीनाक्षी रखा।
मीन के समान आंखे होने के अलावा राजा मलयध्वज की पुत्री के तीन स्तन भी थे। अपनी पुत्री के तीन स्तन देखकर राजा-रानी बहुत दुखी हुए। यह देखकर भगवान शिव ने राजा को दर्शन देखकर कहा कि जब उनकी पुत्री के लिए योग्य वर मिल जाएगा, तो यह तीसरा स्तन अपने आप गायब हो जाएगा। शिव ने यह भी कहा कि उनकी पुत्री बहुत ही साहसी भी होगी, इसी कारण राजा की तरह उनकी पुत्री भी उनके राज्य पर राज करेगी।
मीनाक्षी देवी बहुत ही साहसी थी। इस कारण से पूरे संसार पर राज करना चाहती थी। अपने उद्देश्य को पूर करने के लिए रानी मीनाक्षी ने कई राजाओं को हराया। राजा ही नहीं, मीनाक्षी देवी ने कई देवताओं को भी पराजित किया। अपने विजय रथ पर सवार होकर मीनाक्षी देवी एक दिन एक वन में पहुंची, जहां पर उन्हें एक युवा सन्यासी मिला। जब मीनाक्षी देवी इस सन्यासी से मिली, तो उनका तीसरा स्तन खुद ही गायब हो गया। स्तन गायब होते ही उन्हें समझ आया कि शिव की कही बात के अनुसार यह सन्यासी ही उनका योग्य वर है। यह सन्यासी कोई और नहीं बल्कि भगवान शिव ही थे। इस सन्यासी नाम था सुंदरेश्वर देव। सुंदरेश्वर को देखकर रानी मीनाक्षी को स्मरण हुआ कि वे पहले भी इस युवक से मिल चुकी हैं और उन्हें याद आ गया कि वे पार्वती का अवतार हैं और यह सन्यासी भगवान शिव है। सन्यासी के साथ मीनाक्षी देवी वापस मदुरै पहुंची, जहां पर उनका विवाह सुंदरेश्वर देव से हुआ।
शिव मन्दिर समूह के मध्य में स्थित है, जो देवी के कर्म काण्ड बाद में अधिक बढने की ओर संकेत करता है। इस मन्दिर में शिव की नटराज मुद्रा भी स्थापित है। शिव की यह मुद्रा सामान्यतः नृत्य करते हुए अपना बांया पैर उठाए हुए होती है, परन्तु यहां उनका दांया पैर उठा है। एक कथा अनुसार राजा राजशेखर पांड्य की प्रार्थना पर भगवान ने अपनी मुद्रा यहां बदल ली थी। यह इसलिये था, कि सदा एक ही पैर को उठाए रखने से, उस पर अत्यधिक भार पडे़गा। यह निवेदन उनके व्यक्तिगत नृत्य अनुभव पर आधारित था। यह भारी नटराज की मूर्ति, एक बडी़ चांदी की वेदी में बंद है, इसलिये इसे वेल्ली अम्बलम् (रजत आवासी) कहते हैं। इस गृह के बाहर बडे़ शिल्प आकृतियां हैं, जो कि एक ही पत्थर से बनी हैं। इसके साथ ही यहां एक वृहत गणेश मन्दिर भी है, जिसे मुकुरुनय विनायगर् कहते हैं। इस मूर्ति को मन्दिर के सरोवर की खुदाई के समय निकाला गया था। मीनाक्षी देवी का गर्भ गृह शिव के बांये में स्थित है। और इसका शिल्प स्तर शिव मन्दिर से निम्न है।
प्रातः वेला में सहस्र स्तंभ मण्डप का यह एक भाग होता है आयिराम काल मण्डप या सहस्र स्तंभ मण्डप या हजा़र खम्भों वाला मण्डप, अत्योच्च शिल्प महत्त्व का है। इसमें 985 (ना कि 1000) भव्य तराशे हुए स्तम्भ हैं। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुरक्षण में है। ऐसी धारणा है, कि इसका निर्माण आर्य नाथ मुदलियार ने कराया था। मुदलियार की अश्वारोही मूर्ति मण्डप को जाती सीड़ियों के बगल में स्थित है। प्रत्येक स्तंभ पर शिल्पकारी की हुई है, जो द्रविड़ शिल्पकारी का बेहतरीन नमूना है। इस मण्डप में मन्दिर का कला संग्रहालय भी स्थित है। इसमें मूर्तियाँ, चित्र, छायाचित्र एवं चित्रकारी, इत्यादि के द्वारा इसका 1200 वर्ष का इतिहास देख सकते हैं। इस मण्डप के बाहर ही पश्चिम की ओर संगीतमय स्तंभ स्थित हैं। इनमें प्रत्येक स्तंभ थाप देने पर भिन्न स्वर निकालता है। स्तंभ मण्डप के दक्षिण में कल्याण मण्डप स्थित है, जहां प्रतिवर्ष मध्य अप्रैल में चैत्र मास में चितिरइ उत्सव मनाया जाता है। इसमें शिव – पार्वती विवाह का आयोजन होता है।
पवित्र मंदिर तालाब पोर्थमारई कुलम (“स्वर्ण कमल वाला तालाब”) जिसे आदि तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है , आकार में (50 मीटर) गुणा (37 मीटर) है। किंवदंती के अनुसार, शिव ने एक सारस से वादा किया था कि यहाँ कोई मछली या अन्य समुद्री जीवन नहीं पनपेगा और इस प्रकार तालाब में कोई समुद्री जानवर नहीं पाया जाता है। कहा जाता है कि तालाब में विशाल स्वर्ण कमल शिव की इच्छा से इंद्र के लिए खिल गया था। यह मन्दिर के भीतर भक्तों हेतु अति पवित्र स्थल है। भक्तगण मन्दिर में प्रवेश से पूर्व इसकी परिक्रमा करते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है “स्वर्ण कमल वाला सरोवर”।एक पौराणिक कथानानुसार, भगवान शिव ने एक सारस पक्षी को यह वरदान दिया था, कि इस सरोवर में कभी भी कोई मछली या अन्य जलचर पैदा होंगे और ऐसा ही है भी।तमिल धारणा अनुसार, यह नए साहित्य को परखने का उत्तम स्थल है। अतएव लेखक यहां अपने साहित्य कार्य रखते हैं, एवं निम्न कोटि के कार्य इसमें डूब जाते हैं, एवं उच्च श्रेणी का साहित्य इसमें तैरता है, डूबता नहीं।
इस मन्दिर से जुड़ा़ सबसे महत्वपूर्ण उत्सव है मीनाक्षी तिरुकल्याणम, जिसका आयोजन चैत्र मास (अप्रैल के मध्य) में होता है। इस उत्सव के साथ ही तमिल नाडु के अधिकांश मन्दिरों में वार्षिक उत्सवों का आयोजन भी होता है। इसमें अनेक अंक होते हैं, जैसे कि रथ-यात्रा (तेर तिरुविझाह) एवं नौका उत्सव (तेप्पा तिरुविझाह)। इसके अलावा अन्य हिन्दू उत्सव जैसे नवरात्रि एवं शिवरात्रि भी यहाँ धूम धाम से मनाये जाते हैं। तमिलनाडु के सभी शक्ति मन्दिरों की भांति ही, तमिल माहीने आदि (जुलाई 15-अगस्त 17 ) और (जनवरी 15 से फ़रवरी 15 ) में आने वाले सभी शुक्रवार बडे़ हर्षोल्लस के साथ मनाए जाते हैं। मन्दिरों में खूब भीड़ होती है। मंदिर में दूर से दर्शकों को दर्शन कराया जाता है। प्रकाश की व्यवस्था संतोष जनक नहीं है। स्थानीय भाषा में लिखे साइनेज से उत्तर भारतीय दर्शकों को बहुत असुविधा होती है।
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)