विगत सोलहवीं क्रिया के अनतर्गत हमने परमपिता परमात्मा के चार गुणवाचक नामों के आधार पर अग्निहोत्र की इस क्रिया की विशद् व्याख्या की थी और यह आह्वान् भी किया था कि हम भी छोटे भगवान् बनते हुए प्राणिमात्र के कल्याण के लिए यथासंभव कुछ सेवा, कुछ सहयोग करें| अब हम सतारहवीं क्रिया पर कुछ विचार करते हैं| इस क्रिया को स्विष्टकृदाहुति: के नाम से जाना जाता है| इस विधि को प्रायश्चित विधि भी कहते हैं| जब भी हम कभी भी, कोई भी कार्य करते हैं तो इसमें जाने अनजाने कुछ न्यून्ताएं रह जाती हैं| यह न्यून्तायें क्यों रहीं, क्या करें कि भविष्य में यह न्यूताएं न आ पावें तथा जो अब न्यूनताएं रह गई हैं, उनका प्रायश्चित किस प्रकार से करें| यह सब ही इस आहुति के माध्याम से हम प्रयास करते हैं|
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इस सम्बन्ध में एक अन्य तथ्य भी प्रकाश में आता है| इसमें कहा गया है कि अग्निहोत्र इस सृष्टि के सब प्राणियों की सेवा सुश्रुषा करने के लिए किया जाता है| ऋषियों ने कहा है कि हे मनुष्य ! तु दो हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर| इस का भाव यह है कि हम दिन भर पुरुषार्थ करते हैं| उसके प्रतिफल स्वरूप हमें अपनी इस आजीविका से कुछ धन अथवा अन्न वस्त्र आदि मिलते हैं| मनुष्य ही एक इस प्रकार का जीव है, जो कर्म कर सकता है| अन्य जितने भी जीव हैं वह अपनी क्षुधा की पूर्ति के लिए मनुष्य पर ही निर्भर करता है| मनुष्यों में भी केवल गृहस्थ आश्रम ही एक मात्र ऐसा आश्रम है जो धनोपार्जन के लिए पुरुषार्थ करता है, शेष तीनों आश्रम अर्थात् ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यास, यह सब गृहस्त से ही धन अथवा भोजन, वस्त्रादि लेकर अपने जीवन को चलाता है| इसलिए ऋषियों ने कहा है कि हे मनुष्य! तु दो हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर क्योंकि मानव संख्या का तीन चोथाई भाग तथा अन्य सब पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि तेरे पर ही निर्भर हैं| इसलिए पुरुषार्थ से तुने जो कुछ पाया है, उसमें से जितना तेरी क्षुधा पूर्ति के लिए आवश्यक है, उतना रखकर शेष पूरा धन दान कर दे|
कितनी उत्तम व्यवस्था दी है, हमारे ऋषियों ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए! इस परिकल्पना को ही यहां लिया गया है| हम जो अग्निहोत्र कर रहे हैं, इसमें इस क्रिया की जो आहुति डालेंगे, उससे इस सृष्टि के वह जीव भी लोभान्वित होंगे, जिन को हम अपनी आँख से देख नहीं सकते| इतने छोटे प्राणियों की क्षुदापूर्ति रोटी के टुकड़ों से नहीं होती, इन्हें वायु में से ही कुछ इस प्रकार के तत्त्वों की आवश्यकता होती है, जो श्वास के साथ ही भोजन रूप में वह ग्रहण कर सकें| इसके लिए ही यह स्विष्टकृत आहुति दी जाती है क्योंकि यह सूक्ष्म प्राणी लवणादि का उपभोग नहीं कर सकते, केवल मीठा ही इनका भोजन होता है| इनके उदरपूर्ति के लिए हम यह आहुति देते हैं ताकि इस आहुति से जो गैस तैयार हो, उस उपयोगी गैस रूपी वायु से यह न दिखने वाले अत्यंत सूक्षम जीव भी अपनी तृप्ति कर सकें| अत: आओ हम इस विधि के एकमात्र मन्त्र पर विचार करें| मन्त्र इस प्रकार है:-
स्विष्टकृदाहुतिमंत्र:
ओं यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम|
अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु में |
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां
समर्द्धयित्रे सर्वान्न कामान्त्समर्द्धय स्वाहा||इदमग्नये स्विष्टकृते –
इदमान्न मम|| आश्व. १.१०.२२
यह मन्त्र आश्वलायन सूत्र में से लिया गया है| इस मन्त्र के साथ मीठे पदार्थ यथा भातदि की आहुति दी जावे| यहाँ यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि इस मन्त्र के साथ भात की ही आहुति दी जावे, यदि भात की व्यवस्था न हो तो यह आहुती भी घी से ही दी जावे| आजकल देखने में आया है कि कुछ लोग इस आहुति के लिए चीनी, गुड, शक्कर, चावल की मीठी खिलें प्रयोग करते हैं| स्वामी जी इसे स्वीकार नहीं करते| ऋषि ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि यदि भात की व्यवस्था न हो तो घी से ही यह आहुति दे देवें| अत: अन्य किसी मीठे पदार्थ का इस आहुति में प्रयोग न किया जावे| आज तो कुछ लोग प्रसाद रुप मे बूंदी, लड्डू आदि कोई मिठाई लाते हैं तो उसकी ही आहुति दे देते हैं किन्तु यह पूर्णतया वर्जित है|
शब्दार्थ
यत् जो अस्य इस कर्मण: कर्म के सम्बन्ध में अति-अरीरिचं विधि से अधिक कर चुका हूँ, वा या इह इसमें नयूनं कम अकरं कर बैठा हूँ| स्विष्टकृत यज्ञ को पूर्ण करने वाला अग्नि: भौतिक अग्नि और आत्मिक अग्नि मे मेरा तत् वह स्विष्टं अच्छे प्रकार यज्ञ किया हुआ सुहुतं अच्छे प्रकार होमा हुआ करोतु करे| अग्नये अग्नि के लिए जो स्विष्टकृते यज्ञ को ठीक बनाने वाला सुहुतहुते आहुति को ठीक करने वाला और सर्व-प्रायश्चित्त-आहुतिनां सारी पाप की प्रतीक स्वरुपाहुतियों का कामानां सब कामनाओं का समर्द्धयित्रे सफल करने वाला है,(यह आहुति दे रहा हूं)| हे (अग्ने) न; हमारी सर्वान् सारी कामान् कामनाओं को समर्द्धय पारिपूर्ण करो| स्वाहा यह मेरी वाणी सत्य हो| यह स्विष्टकृत् अग्नि के लिए समर्पण कर चुका हूँ, इस पर मेरा कोई स्वत्व अथवा अधिकार नहीं है||५||
व्याख्यान
जैसे ऊपर बताया गया है कि किसी भी कार्य को जब कोई भी व्यक्ति करता है तो अज्ञान या भूलवश अथवा जाने अनजाने में कुछ न कुछ भूल हो ही जाया करती है| इस भूल के कारण या तो हम कुछ अधिक कर जाते हैं और या फिर कुछ न्यून कर जाते हैं| यह मानवीय स्वभाव का ही एक भाग है| जब हम कोई भी कर्म करते हुए साथ में पूर्ण आत्म समर्पण कर देते हैं तो आगंतुक के मन में दया आ ही जाती है| इसलिए अग्निहोत्र में भी इस मन्त्र के द्वारा पूर्ण आत्म समर्पण करने का आदेश दिया गया है| परमपिता परमात्मा हमारी सब त्रुटियों को दूर कर हमें पूर्ण कर सकते हैं| वह ही हमारी त्रुटियों से हमें छुटकारा दिला सकते हैं| इसलिए जब हम परमपिता परमात्मा के सामने पूर्ण रूप से आत्म समर्पण करते हुए क्षमा याचना करते हैं तो वह दयालु भगवान् दया से भर जाते हैं और हम पर दया करते हुए वह हमें क्षमा भी अवश्य ही करेंगे, इस प्रकार का विचार हमारा बना रहना चाहिए|
देखा गया है कि अनेक विद्वान् इस विधि को अग्निहोत्र के अंत में करते हैं, जो ठीक नहीं है क्योंकि स्वामी दयानंद जी ने इसे अग्निहोत्र के सामान्य कर्म के अंत में ही जोड़ा है| ऋषि ने सामान्य कर्म के अंत में इसे स्थान दिया है संभवतया इस कारण कुछ लोगों को भूल हो गई हो और उन्होंने इस अंत शब्द को अग्निहोत्र की पूर्णता को ही इस क्रिया के लिए समझ लिया हो किन्तु नहीं इसे हमें सामान्य कर्म के अंत में ही करना चाहिए|
अष्टादशविधि: – प्रजापत्याहुती||६||
इस विधि में मात्र एक ही मन्त्र आता है और वह भी केवल मौन रहते हुए मन के अन्दर ही यह मन्त्र बोलकर आहुति दी जाती है| मन्त्र में केवल एक ही शब्द है प्रजापतये| प्रजापते कहते हैं परमात्मा को| किसी देश का शासक जिस प्रकार से अपने देश की प्रजा का पालक होता है, उस का यह गुण परमपिता परमात्मा से ही लिया गया होता है क्योंकि वास्तविक प्रजापालक तो परमपिता परमात्मा ही होता है| इस सृष्टि में जितने भी प्राणी है, चाहे वह चर हों या अचर हों, चाहे वह दो पांवों वाले हों या फिर चार पांवों वाले, चाहे वह मनुष्य हों या फिर पशु अथवा कीट पतंग हो, भूमि पर रहने वाले हों, जल में रहने वाले हों या फिर आकाश में विचरण करने वाले हों, यह सब जीव उस प्रभु की प्रजा ही होते हैं और परमपिता उस सब प्रजा का पालक होने के कारण प्रजापति होता है| यह प्रजापति शब्द ही इस मन्त्र में आता है| मन्त्र इस प्रकार है:-
ओम प्रजापतये स्वाहा| इदं प्रजापतये, इदन्न, मम||
इस मन्त्र का गायन मौन रूप में रहते हुए केवल मन में ही करते हुए घी की एक आहुति देनी होती है| मौन का मानव जीवन में बहुत लाभ होता है| जो काम हम जोर जोर से चिल्ला कर अपने आधीन किसी से नहीं करवा पाते, वह काम केवल आँख के मौन इशारे मात्र से करवा लिया जाता है| फिर अपने से बड़ों के सामने तो मौन ही उत्तम होता है, नम्रता ही चाहिए| फिर परमपिता परमात्मा तो सबसे बड़ा होने के कारण पूजनीय होता है| इसलिए उसके नाम से दी जाने वाली यह आहुति भी मौन रूप में ही दी जानी चाहिए| मन्त्र का विस्तृत अर्थ विगत प्रकरण के साधन विषय में किया जा चुका है| उस व्याख्या के अतिरिक्त यह भी जान लें कि प्राप्ति तो केवल परमपिता परमात्मा से ही हो सकती है और कोई अन्य नहीं,हमारी वाणी इतनी सिमित है कि इस वाणी के द्वारा उस प्रभु का वर्णन तो संभव ही नहीं है| इसलिए इस मौन आहुति के द्वारा इस प्रकार का भाव अपने हृदयों में उत्पन्न करके अपनी अंतरात्मा में प्रभु को साक्षात् रूप में देखने का प्रयास इस मन्त्र के माध्यम से हम करें|
डॉ.अशोक आर्य
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