Friday, March 7, 2025
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जब तक आपके भाव समृद्ध नहीं होंगे शब्द उसके साथ यात्रा नहीं करते: विजय जोशी

( युवा कवि व उपन्यासकार किशन प्रणय द्वारा वरिष्ठ कथाकार और समीक्षक विजय जोशी से साक्षात्कार )
जब तक आपके भाव समृद्ध नहीं होंगे शब्द उसके साथ यात्रा नहीं करते हैं। कृति समीक्षा में तुलना परिवेश को मार देती है। यह विचार वरिष्ठ कथाकार-समीक्षक विजय जोशी ने एक साक्षात्कार में बोलते हुए व्यक्त किए ।  युवा कवि-उपन्यासकार किशन प्रणय ने साक्षात्कार में वरिष्ठ कथाकार-समीक्षक विजय जोशी से ” कहानी कला और समीक्षा” पर चर्चा कर रहे थे। किशन प्रणय ने चर्चा करते हुए कहा कि कोटा में नया रचनाकार उभरता है या लिखने के लिए प्रयासरत् रहता है तो वह विजय जोशी जी के सम्पर्क में आकर उत्तरोत्तर अपने रचनाकर्म में प्रगति करता जाता है।
एक प्रश्न के जवाब में जोशी ने कहा कि लेखक की कृति की समीक्षा करते वक्त कई समीक्षक भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति के लेखकों के विचारों से तुलना करने लग जाते हैं और यही तुलना अपने परिवेश के लेखक को मार देती है। मेरा मानना है कि जो किताब प्रायोजित होगी वो आपके विचारों को बाँध देगी और जो नैसर्गिक रूप से आयेगी वह आपके विचारों को खोल देगी और आपके पथ को प्रदर्शित कर देगी। मेरी समीक्षा पद्धति यही है। मेरी विचारधारा यही है कि आप रचनात्मकता को आधार देने के लिए वट वृक्ष तो बनें परन्तु उसे स्वयं ही सूर्य की किरणों की ओर जाने की प्रेरणा देते रहें। मेरी समीक्षाओं में यही कुछ है। हर पुस्तक में कोई न कोई सच्चाई होती है। नैसर्गिक रूप से लिखी पुस्तक विचारों को स्वयं उद्वेलित करती है। उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के रचना की समीक्षा करने पर बल दिया।
प्रणय ने विज्ञान के विद्यार्थी तथा वनस्पति शास्त्र में अधिस्नातक होते हुए हिन्दी और राजस्थानी में सतत् रूप से लेखन करने की बात कहते हुए जब साहित्य की ओर रुझान के बारे में जानना
चाहा तो विजय जोशी ने कहा कि मेरा जन्म राजस्थान के हाड़ौती अंचल की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नगरी झालावाड़ में हुआ और साहित्य और कला-संस्कृति पर लेखन अपने गुरु पिता श्री रमेश वारिद से विरासत में  मिला। साथ ही कला एवं संगीत के प्रति रूझान अपने सुसंस्कृत संयुक्त परिवार से प्राप्त हुआ। बचपन से किशोरावस्था तक चित्रकला और संगीत को समर्पित रहा। एम.एससी. करने के बाद वर्ष 1985 से विज्ञान-पर्यावरण सन्दर्भित लेखन प्रारम्भ किया। मेरा प्रथम आलेख ‘कटते हुए वृक्ष : गहराता हुआ प्रदूषण’ एक समाचार पत्र में 1985 में प्रकाशित हुआ। इसी प्रकार ‘कचरे के तेवर में कैद हुआ एक शहर’ तथा ‘शहर की नदी चम्बल को लील रहा प्रदूषण’ एवं ‘एक शहर ज़हरीली हवा में’ आलेख लिखे। यहीं से लेखन के प्रति आश्वस्ति और विश्वास बढ़ा और लेखन प्रारम्भ हुआ। साथ ही कला-समीक्षा और कला सन्दर्भित लेखन भी होता रहा। जहाँ तक कथा -साहित्य  की ओर प्रेरित होने की बात है तो यह भी सहज रूप में हुआ। वृक्षों से सम्बन्धित पहली कहानी ‘टीस’ लिखी। जिसका प्रसारण आकाशवाणी कोटा से हुआ। इससे मेरे कथा लेखन को प्रोत्साहन मिला ।
जोशी ने कहा  हिन्दी और  राजस्थानी में अब तक दो हिन्दी उपन्यास, पाँच हिन्दी कहानी संग्रह, चार हिन्दी समीक्षा आलेख ग्रन्थ, दो राजस्थानी कहानी संग्रह, एक राजस्थानी समीक्षा ग्रन्थ के साथ राजस्थानी अनुवाद जिसे बावजी चतर सिंह अनुवाद पुरस्कार मिला है।          राजस्थानी की भावाँ की रामझोळ और अभी अनुभूति के पथ पर : जीवन की बातें कृतियों को इंगित करते हुए प्रश्न किया कि आपकी कहानियों में आपका ही परिवेश या उसका अंश या यूँ कहें उसी की अनुभूति दिखती है, जबकि अभी की कहानियों में बनावटीपन दिखता है और वहीं भाषा के साथ थोड़ा खेलने की कोशिश करते हैं, तो आप यह बताएँ कि आपका जो भावात्मक पक्ष है क्या आपको लगता है वो कहानी को अधिक सुन्दर बनाता है या भाषा में तोड़-मरोड़ करके ? इस पर जवाब देते हुए विजय जोशी ने कहा कि जब तक आपके भाव समृद्ध नहीं होंगे शब्द उसके साथ यात्रा नहीं करते। मेरा मानना है कि शब्दों से खेलना इतना आवश्यक नहीं है जितना भावों के पथ पर चलना। साहित्य सृजन में शब्दों के साथ कभी भी खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।भावनाओं के साथ शब्द स्वयं चलते हैं ।
चर्चा की विशेषता रही कि श्रोताओं की ओर से पूछे गए प्रश्नो लेखन, नवाचार और समीक्षा प्रक्रिया के उत्तर में विजय जोशी ने कहा कि साहित्य अपने समय के समाज की अभिव्यक्ति होता है जो आने वाली पीढ़ी का मार्ग तो प्रशस्त कर सकता है पर लेखन की दृष्टि से सामयिक नहीं हो सकता। इस संदर्भ में उन्होंने कई उदाहरण से अपनी बात को पुष्ट करते हुए कहा कि आज समय आ गया है जब हमें साहित्य में नवाचार के लिए सोचना होगा और नई सोच के साथ लिखना होगा। इसके लिए उन्होंने तुरन्त ईसी भाव-परिवेश से लेकर स्व रचित एक लघुकथा  सुनाई। उन्होंने स्पष्ट किया कि कहानियाँ अपने परिवेश के प्रति सजगता और भावों के प्रति समर्पण से उभरती है वहीं समीक्षा रचना के भीतर की संवेदना को ही नहीं वरन् है उसके सकारात्मक पक्ष के साथ सामाजिक सरोकारों को उजागर करती है।
गीत विधा में दखल रखने वाले जोशी के कला-संगीत के पक्ष को उजागर करने के साथ अंत में जब विजय जोशी से उनके प्रसिद्ध तथा लोगों द्वारा उनकी पसंद का गीत सुनाने की गुज़ारिश की तो विजय जोशी ने ‘रे  बंधु तेरा कहाँ मुकाम, भोर हुई जब सूरज निकला छूटा तेरा धाम”  जिस तान से सुनाया श्रोता गदगद हो गए।
प्रस्तुति : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

‘घुमक्कड़ी’ पढ़ते हुए आप सुध-बुध खोकर लेखिका के साथ-साथ चलते हैं

‘घुमक्कड़ी’ एक किताब नहीं नशा है और नशा भी ठीक वैसा ही जैसा घुमक्कड़ी में होता है। मनीषा कुलश्रेष्ठ का यात्रा संस्मरण ‘घुमक्कड़ी- अंग्रेज़ी साहित्य के गलियारों में’ जब उठाया तो पिछले पाठकीय अनुभवों के आधार पर मानस को तैयार कर ही लिया था कि इसमें है कुछ ख़ास और यक़ीनन मनीषा जी की लेखनी ने मानस को वही असीम तृप्ति दी जिसकी आशा बँधी थी। यह किताब सिर्फ यात्रा संस्मरण नहीं है यह एक संवेदनशील मन के साथ शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, कीट्स, कॉलरिज, जेन आस्टेन जैसे कई कलमकारों को मन की गहराइयों से अभिस्पर्श करने का सुअवसर और सौभाग्य देती है।

जिस तन्मयता से इस किताब को लिखा गया है मेरे पाठक-मन ने उसी तल्लीनता से उसे पढ़ा और कहने से बच नहीं सकूँगी कि नशा अब भी तारी है… और मैं उसे दुबारा पढ़ रही हूँ उसी मनोयोग के साथ।

मनीषा कुलश्रेष्ठ की पूर्व प्रकाशित किताब ‘होना अतिथि कैलाश का’ पढ़कर मुझे कई दिनों तक कैलाश मानसरोवर के सपने आए और इस किताब के बाद मैं यक़ीन से कह सकती हूँ कि अब अंग्रेज़ी साहित्य के गलियारों में मेरा मन अटकता-भटकता रहेगा।

किताब की सबसे आकर्षक बात है मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहन की सम्मोहित कर देने वाली जीवंत शैली। यूँ लगता है जैसे जो वे अनुभूत कर रही हैं वह सब हमारे भीतर पर्त दर पर्त उतर रहा है। और हर वह मशहूर किरदार आपको उसी तरह रोमांचित करता है जैसे रचनाकार ने महसूस करते हुए और फिर शब्दों में बाँधकर हम तक पहुँचाते हुए किया होगा।

अगर आपने अंग्रेज़ी साहित्य को पढ़ा है तो निश्चित रूप से कल्पना में आपने उन रचनाकारों की जीवनशैली को उकेरा होगा, यह किताब उसी कल्पना को सुंदरता और सहजता से साकार करती है और सार्थक रंग भी देती है।

सुध-बुध खोकर आप लेखिका के साथ-साथ चलते हैं, थकते हैं, रुकते हैं, दौड़ते हैं, मुस्कुराते हैं, भीगते हैं। यही तो यात्रा संस्मरण की सफलता है कि आप आप नहीं रहते हैं आप जादू भरी अनोखी दुनिया में किताब के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। जब आप कीट्स के घर में होते हैं तो आपको उनकी पंक्तियाँ धुँधली सी याद आती हैं और चमत्कार तो तब होता है कि वही पंक्तियाँ अगले पेज (पेज 52) पर आपको छपी हुई मिलती है।

मनीषा कुलश्रेष्ठ इसमें लिखती हैं- मैं उत्साह से भरी हुई थी और मिलने विषाद से आई थी। कीट्स हाउस आकर यह तो तय था लौटना उदास होगा। एक युवा कवि जो अपना बेहतरीन लिखकर अपने वतन से दूर इटली में एक शांत सीले घर में, उस ज़माने की घातक बीमारी ट्यूबरक्यूलोसिस से जूझता हुआ महज 25 साल की उम्र में उस चहल पहल को छोड़कर चला गया जो उसके होने से थी।

मनीषा सिर्फ उन विशिष्ट जगहों पर जाकर हमें वहाँ की ख़ुशबू से सराबोर ही नहीं करती बल्कि वे संबंधित सवाल भी उठाती हैं और जवाब भी खोजती हैं। वे कोरी भावुकता से बचकर अपने स्तर पर विमर्श भी करती हैं, सोच को उद्वेलित करती हैं तो कभी अपनी पलकों की कोर से छलकी बूँद से हमारी मन धरा को सींच जाती हैं…

डिकेंस और कैथरीन के रिश्तों का गणित उन्हें बेचैन कर देता है-

”डिकेंस ने दावा किया कि कैथरीन बाद में एक अक्षम माँ और गृहणी बन गई थी और 10 बच्चे भी उनकी ज़िद का नतीजा थे…

वे अपनी डिकेंस के प्रति सम्मान की भावना को क़ायम रखते हुए भी सवाल कर उठती है.. इतने बरसों घर सहेजने वाली कैथरीन अचानक अक्षम गृहणी कैसे हो गई? क्या बच्चे एकतरफ़ा ज़िद से होते हैं? एक महान लेखक के कितने मूर्खतापूर्ण आरोप थे!”

इस किताब की महीन कारीगरी आपको उलझाती नहीं बल्कि रेशों-रेशों की कोमलता से अवगत कराती है। चाहे आर्थर कौनन डायल के गढ़े किरदार शरलॉक होम्स हों या टाइटैनिक का मार्मिक यथार्थ.. मनीषा की कलम उन्हें इस ख़ूबी से पाठक के सामने लाती है कि उनके अपने विचारों के नन्हे अंकुरण भी लहलहाते रहें और आँखों देखे जो स्निध फूल उन्होंने सँजोये हैं उनकी दृश्यावली भी घूमती रहे।

इस किताब के माध्यम से लेखिका ने यात्राओं के ज़रिए अपने प्रिय विदेशी लेखकों-शख्सियतों को क़रीब से देखने-जानने और महसूस करने का जो अनुभव सहेजा है उसे कई गुना ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त भी किया है। अनुभूतियाँ अक्सर अभिव्यक्ति की पगडंडियों में अर्थ बदल देती हैं लेकिन यह किताब इस मायने में श्रेष्ठ कही जाएगी कि यहाँ अभिव्यक्ति ने व्यक्ति, विचार और वस्तुओं के अर्थों को पूरी प्रामाणिकता, भावप्रवणता और प्रभावोत्पादकता से प्रस्तुत किया है।

किताब की कई अच्छी बातों में एक यह भी कि चित्रों को अंतिम पृष्ठों पर स्थान दिया है ताकि पढ़ने की तंद्रा न टूटे और कल्पना के शिखर अंतिम पायदान पर दमकते हुए साकार हों। चाहे फिर वह फ्रायड का म्यूज़ियम हो, बैठे हुए ऑस्कर वाइल्ड हो, शेक्सपियर का स्मारक हो या फिर स्टोन हैंज में खोया जामुनी मफ़लर ही क्यों न हो। शिवना प्रकाशन से आई इस कृति का पढ़ कर पाठक कुछ समय के लिए किसी दूसरी दुनिया में खो जाता है। या एक बिलकुल नया तरीक़ा है यात्रा संस्मरण लिखने का, जिसमें यात्रा संस्मरण के बहाने स्त्री-विमर्श जैसे सरोकार पर पूरी मज़बूती से मनीषा कुलश्रेष्ठ न केवल अपना पक्ष रखती हैं बल्कि उसके सूत्र भी उन स्थानों पर तलाशते हुए चलती हैं। इस कारण यह केवल यात्रा वृत्तांत न रह कर स्त्री विमर्श का एक दस्तावेज़ बन जाता है। शिवना प्रकाशन ने इस किताब को बहुत ख़ूबसूरती के साथ प्रकाशित किया है। एक आवश्यक किताब है यह।

समीक्षक- स्मृति आदित्य
घुमक्कड़ी – (अंग्रेज़ी साहित्य के गलियारों में)
यात्रा संस्मरण
लेखिका – मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड के सामने, सीहोर मप्र 466001

मोबाइल- 9806162184, ईमेल- shivna.prakashan@gmail.com

मूल्य- 350रुपये

प्रकाशन वर्ष- 2025

स्मृति आदित्य

ईमेल- smritiadityaa@gmail.com

मोबाइल – 9424849649


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रामेश्वरम का रामसेतु धनुषकोडी औरअरिचल मुनई का इतिहास अनोखा है

रामसेतु को आज कई नामों से जाना जाता है। जैसे नल सेतु, सेतु बांध और एडम ब्रिज। इसे नल सेतू इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह पुल बनाने का विचार वानर सेना के एक सदस्‍य नल ने ही अन्‍य सदस्‍यों को दिया था। इसलिए नल को रामसेतु का इंजीनियर भी कहते हैं।
इस पुल का नाम एडम्स ब्रिज इसलिए रखा गया है क्योंकि बाइबिल और कुरान के अनुसार, एडम ने ईडन गार्डन से निकाले जाने के बाद श्रीलंका से भारत तक पुल पार किया था। एडम्स ब्रिज का नाम कुछ प्राचीन इस्लामी ग्रंथों में भी आया है। राम सेतु भारत के पंबन द्वीप और श्रीलंका के मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक विशाल श्रृंखला है। मद्रास विश्वविद्यालय और अन्ना विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राम सेतु ब्रिज का निर्माण 18,400 साल पहले हुआ था।
रामसेतु तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी तट से दूर पंबन द्वीप, जिसे रामेश्वरम द्वीप के नाम से भी जाना जाता है, श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर की एक श्रृंखला मार्ग है। रामायण में इस बात का साफ तौर पर जिक्र है कि भगवान राम और उनकी सेना ने अपनी पत्नी सीता को बचाने लंका तक पहुंचने के लिए उस पुल का निर्माण करवाया था। भौगोलिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था। हिन्दू पुराणों की मान्यताओं के अनुसार इस सेतु का निर्माण अयोध्या के राजा श्रीराम की सेना के दो सैनिक जो की वानर थे, जिनका वर्णन प्रमुखतः नल-नील नाम से रामायण में मिलता है, द्वारा किये गया था।
अर्थात करीब 1200 किलोमीटर थी। साइंस से जुड़े लोगों के मुताबिक, रामसेतु 35 से 48 किलोमीटर लंबा था तथा  यह मन्नार की खाड़ी (दक्षिण पश्चिम) को पाक जलडमरू मध्य (उत्तर पूर्व) से अलग करता है। कुछ रेतीले तट शुष्क हैं तथा इस क्षेत्र में समुद्र बहुत उथला है, कुछ स्थानों पर केवल 3 फुट से 30 फुट (1मीटर से 10 मीटर) जो नौगमन को मुश्किल बनाता है। रामायण (5000 ईसा पूर्व) का समय और पुल का कार्बन एनालिसिस का तालमेल एकदम सटीक बैठता है। हालांकि, आज भी ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है जो यह बताता है कि पुल मानव निर्मित है।यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। इसकी लंबाई 100 योजन व चौड़ाई 10 योजन थी। इसे बनाने में रामायण काल में श्री राम नाम के साथ, उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था। रामसेतु के पत्थर करीब 7000 साल पुराने हैं।
15 वीं शताब्दी तक, पुल पर चलकर जा सकते थे।  गहराई तीन फीट से लेकर 30 फीट तक है। कई वैज्ञानिक रिपोर्टों के अनुसार, राम सेतु 1480 तक पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था, लेकिन यहाँ एक चक्रवात आने से यह क्षतिग्रस्त हो गया था। 1480 तक पुल पूरी तरह से समुद्र तल से ऊपर था। हालांकि, प्राकृतिक आपदाओं ने पुल को समुद्र में पूरी तरह से डुबो दिया। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि रामसेतु प्राकृतिक चूना पत्थर के शोल से बना एक पुल है। मन्दिर के अभिलेखों के अनुसार रामसेतु पूरी तरह से सागर के जल से ऊपर स्थित था, जब तक कि इसे 1480 ई० में एक चक्रवात ने तोड़ नहीं दिया। इस सेतु का उल्लेख सबसे पहले वाल्मीकि द्वारा रचित प्राचीन भारतीय संस्कृत महाकाव्य रामायण में किया गया था, जिसमें राम ने अपनी वानर (वानर) सेना के लिए लंका तक पहुंचने और रक्ष राजा, रावण से अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने के लिए इसका निर्माण कराया था। राम सेतु के बारे में हम वाल्मिकी रामायण में बताते हैं। भगवान राम ने अपनी सेना के साथ राम सेतु पार किया और अपनी अपहृत पत्नी सीता को राक्षस राजा रावण से पार कराया। इसके बाद भगवान राम ने अपने धनुष और बाण से पुल को तोड़ दिया।
पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णन किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का उल्लेख आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका मे राम सेतु कहा गया है। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है।
राम सेतु का पत्थर आखिर पानी में कैसे तैरता है ये पहेली आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं सुलझा पाया है. कोई इसे भगवान राम का चमत्कार कहता है तो कोई इसके पीछे साइंटिफिक कारण बताता है. मगर आज तक सही वजह नहीं पता चल पाई है. इस पर कई वैज्ञानिकों ने भी खोज की है. रामसेतु का पत्थर दुनियाभर में प्रसिद्ध है.
इस पुल को बनाने के लिए भगवान राम ने एक विशेष तरह के पत्थर का इस्तेमाल किया था, जिसे अग्निकुंड शिला कहा जाता है. नल-नील, भगवान विश्वकर्मा के वानर पुत्र थे।ये बचपन में बहुत शरारती थे। ये ऋषियों की पूजा सामग्री पानी में फेंक देते थे। परेशान ऋषियों ने नल-नील को श्राप दिया कि अब वे जो भी चीज़ पानी में फेंकेंगे वह डूबेगी नहीं। इस श्राप की वजह से इन दोनों के स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरने लगे थे फलत : इनके द्वारा रामसेतु का निर्माण हो पाया। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान वरुण के आशीर्वाद और उन पत्थरों पर भगवान राम के नाम लिखे होने के कारण पत्थर पानी में नहीं डूबते हैं।राम ने हनुमान कोकोड भगवान धनुर्धर और श्रीलंका को जोड़ने वाला पुल बनाने का ऑर्डर दिया था। हनुमान राम के दिव्य वानर दोस्त थे और एक हिंदू देवता थे। जैसा कि कोई उम्मीद कर सकता है, हनुमान और उनकी वानर सेना ने पुल का निर्माण किया। हनुमान, बाली और सुग्रीव ने सेना का संचालन किया।कहते हैं ये पत्थर कभी पानी में डूबा नहीं है और ये पुल आज भी बना हुआ है. इस पुल को देखने के लिए दूर-दूर से सैलानी आते हैं और इस पत्थर का रहस्य जानना चाहते हैं. लेकिन इस रहस्य को कोई जान नहीं पाया है. सभी लोग इसको भगवान राम की महिमा कहते हैं. ये भगवान राम द्वारा बनाया गया पुल है.
पौराणिक प्रमाणों से इतर कई वैज्ञानिकों ने तैरते पत्थरों के पीछे विज्ञान के कुछ पहलुओं को उजागर किया है। वे कहते हैं कि राम सेतु ज्वालामुखियों के तैरते हुए पत्थर से बना है।
 गूगल अर्थ पर श्रीलंका और रामेश्वरम को जोड़ने वाले रामसेतु को गौर से देखने पर दोनों के बीच 50 किलोमीटर के रास्ते पर समुंद्र बेहद उथला दीखता है। यानी एक समय ऐसा भी रहा होगा जब श्रीलंका और रामेश्वरम के मध्य एक नॉर्मल रास्ता हुआ करता होगा जो धीरे-धीरे समुद्र में विलीन हो गया। 15 वी सदी तक लोग वहां से पैदल ही पार कर जाते थे। ये सेतू अगर किसी नदी पर बना होता तब उस पुल की वास्तविकता को सही तरीके से समझा जा सकता था।
 उथले समुंद्र में जहां का तापमान लगभग 20 डिग्री या उससे अधिक हो, प्रवालों द्वारा कैल्सियम कार्बोनेट का उत्सर्जन होता है, जो झालरदार या चट्टानी रुप भी ले लेते हैं जिसे कोरल रीफ कहा जाता है। यह भारत में अंडमान- निकोबार लक्षद्वीप और मन्नार की खाड़ी में स्थित दीखता है। उनके अनुसार राम सेतु में जो पत्थर दिखाई दे रहे हैं वो कोरल रीफ भी हो सकते हैं।
 राम सेतु के पत्थरों के बारे में कहा जाता है कि ये प्यूमिस स्टोन या अग्निकुंड शिला थे।ये पत्थर ज्वालामुखी के लावा से बने होते हैं और इनमें कई छेद होते हैं। इन छिद्रों की वजह से ये पत्थर हल्के होते हैं और पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन किया और बाद में बताया कि रामसेतु के पत्थर अंदर से खोखले होते हैं। इसके अंदर छोटे-छोटे छेद होते हैं।पत्थरों का वजन
कम होने से इन पर पानी की ओर लगने वाला फोर्स इन्हें डूबने से रोक लेता है।
पानी में तैरने वाले ये पत्थर चूना पत्थर की श्रेणी के हैं। ज्वालामुखी के लावा से बने ये स्टोन अंदर से खोखले होते हैं। इनमें बारीक-बारीक छेद भी होते हैं। वजन कम होने और हवा भरी होने की वजह ये पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक इसका नाम प्यूमिस स्टोन बताते हैं। प्यूमिस स्टोन वह पत्थर है जो पानी में नहीं डूबता। यह एक आग्नेय चट्टान है।यह ज्वालामुखी के विस्फोट के दौरान बनती है। यह पानी में नहीं डूबता क्योंकि इसका घनत्व कम होता है। इसमें कई छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इसमें हवा की छोटी-छोटी जेबें होती हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो ये पुल चूना पत्थर, ज्वालामुखी से निकली चट्टानों और कोरल रीफ से बना हुआ है। इसी वजह से पानी के जहाज इस रास्ते से कभी नहीं गुजरते हैं। इन जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना पड़ता है। जब ज्वालामुखी का लावा ज़मीन के ऊपर तेज़ी से ठंडा होता है, तो लावा की ऊपरी सतह पर बुलबुले निकलते हैं। जब लावा ठंडा होने लगता है, तो इन बुलबुलों के कारण उनमें गुहाएं (cavity) बन जाती हैं। यही हवा उस पत्थर को इतना हल्का कर देती है कि वह पानी में तैरने लगता है। इसी क्रिया से प्यूमिस स्टोन बनता है।
नीलगिरी की पहाड़ियों में ज्वाला मुखी के विस्फोट बहुत हुए हैं। यहां से रामेश्वरम की दूरी 477 किमी है। भूविज्ञान में इन चट्टानों की पुरातनता अजोइक काल यानी 3000 से 500 मिलियन वर्ष पूर्व माना गया है।
रामायण के पात्र बालि सुग्रीव की राजधानी किष्किंधा नगरी थी। किष्किंधा नगरी कर्नाटक के हम्पी के आसपास बसी थी। हम्पी कभी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। किष्किंधा की चट्टानें बहुत मशहूर हैं। हो सकता है ये वहीं से लाई गई हों। सतह पर पहुँचने के बाद, यह अंततः ज्वालामुखी के गड्ढे के शिखर बिंदु से फट जाता है। जब यह पृथ्वी की सतह के नीचे होता है तो इसे मैग्मा के रूप में जाना जाता है और जब इसे सतह पर लाया जाता है तो राख के रूप में फट जाता है। हर विस्फोट के परिणाम स्वरूप ज्वालामुखी के मुहाने पर चट्टानों, लावा और राख की दीवार बन जाती है।
रामसेतु/एडम ब्रिज में ये पत्थर भौतिक रूप में तो देखे जा सकते हैं। रामसेतु पत्थर रामेश्वरम के पंचमुखी हनुमान मंदिर, रामेश्वरम में राम सेतु के पास कोथंडारामस्वामी  विभीषण मन्दिर के पास समुद्र तट भी मैने इसे देखा है।  इसके अलावा भारत के अनेक स्थलों पर भी इसे देखा जा सकता है।
जयपुर के खजाना महल संभवत देश का पहला ऐसा म्यूजियम है, जहां पर एक साथ 7 राम सेतु पत्थर के दर्शन करने का अनुभव लोगों को होता है। पटना में भी  गंगा नदी में तैरता एक पत्थर मिला। इस पत्थर पर भगवान श्रीराम का नाम लिखा है। अब इसे देख कुछ लोग हैरान हैं तो कुछ श्रद्धा से इसे निहारने पहुंच रहे हैं। यह खास पत्थर आलमगंज थाना अन्तर्गत राजा घाट के पास मिला है।इसे लेकर स्थानीय लोगों ने कहा कि पानी में तैरते पत्थर का वजन लगभग 12 किलोग्राम है। पत्थर को घाट स्थित शिव मंदिर के समीप रखा गया है।स्थानीय लोग इसके लिए मंदिर की स्थापना की तैयारी में जुट गए हैं।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित जैतु साव में रामसेतु का एक पत्थर रखा है। बताया जा रहा है कि 140 साल पहले इस पत्थर को रामेश्वरम से लाया गया था। यह पत्थर पानी में तैरता है। इस पत्थर के दर्शन के लिए लोगों का भारी जमावड़ा लगा रहता है।
धनुषकोडी का मतलब होता है, ‘धनुष की नोक’. यह भारत के तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम ज़िले में स्थित एक अभूतपूर्व नगर है। धनुषकोडी, रामेश्वरम द्वीप के दक्षिण-पूर्वी कोने में है। सूरज, रेत और पानी समुद्र तट पर सबसे बेहतरीन अनुभव जो यात्रियों को आकर्षित करते हैं, वे यहीं धनुषकोडी में हैं। नीले समुद्र की विशालता और गहराई देखने लायक है; और तट पर अंतहीन आकर्षण का अनुभव करना भी उतना ही आसान है। धनुषकोडी में समुद्र तट का एक विशाल विस्तार है। यह श्रीलंका से लगभग 15 किलोमीटर दूर , मदुरै अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा से लगभग 191 किमी दूर,रामेश्वरम स्टेशन से लगभग 24 किमी दूर तथा रामेश्वरम बस स्टैंड से लगभग 13 किमी दूर पर स्थित है। यहां से अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल) लगभग 5 किमी रह जाता है। 15 किलोमीटर तक फैला धनुषकोडी बीच ऐसा बीच है, जहां अक्सर ऊंची लहरें उठती हैं। इस क्षेत्र में कई प्रवासी पक्षी जैसे गल्स और फ्लेमिंगो भी देखे जा सकते हैं, जो इस इलाके के प्राकृतिक आनंद को और बढ़ा देते हैं।
रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित यह एक भुतहा शहर बन गया है।। इसी स्थान के पास से सेतुबंध भी है। धनुषकोडी शहर पंबन द्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह रामेश्वरम के मुख्य शहर से 20 किमी दूर स्थित एक स्थान है, जहां से राम सेतु का दर्शन किया जा सकता है। इस जगह तक पहुँचने के लिए मुख्य भूमि से पंबन द्वीप को पार किया जाता है। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका पहले प्रसिद्ध पंबन ब्रिज के माध्यम से ट्रेन द्वारा था। अब तो सड़क मार्ग से ही जाया जाता है। यहीं से धनुषकोडी की यात्रा शुरू होती है, जहाँ से कई मछली पकड़ने वाले गाँव गुजरते हैं, साथ ही दोनों तरफ पाक जलडमरूमध्य के मनमोहक दृश्य भी दिखाई देते हैं। पाक जलडमरूमध्य भारत और श्रीलंका के बीच फैला हुआ है।
एक तरफ बंगाल की खाड़ी और दूसरी तरफ हिंद महासागर से घिरा धनुषकोडी कभी व्यापारियों और तीर्थयात्रियों दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में कार्य करता था। धनुषकोडी और श्रीलंका (तब सीलोन के रूप में जाना जाता था) के एक शहर तलाईमन्नार के बीच नौका सेवाएं उपलब्ध थीं। ये नौकाएं माल और यात्रियों दोनों को समुद्र के पार एक देश से दूसरे देश में ले जाती थीं। धनुषकोडी शहर में सभी प्रकार की सुविधाएं थीं जिनकी एक यात्री को आवश्यकता होती है जैसे – होटल, धर्मशालाएं, और तीर्थयात्रियों, यात्रियों और व्यापारियों की सेवा करने वाली कपड़ा दुकानें आदि।  श्रीलंका इस शहर से सिर्फ 31 किमी की दूरी पर स्थित है। लेकिन ये सभी चीजें अब इतिहास बन चुकी हैं।
एक ऊबड़-खाबड़ सवारी के बाद, जो केवल 4×4 वाहनों पर ही संभव है, रास्ते में कुछ बड़े रेतीले इलाकों की बदौलत, धनुषकोडी का ‘भूत शहर’ दिखाई देता है। बहुत समय पहले, खासकर ब्रिटिश राज के दौरान, धनुषकोडी एक छोटा लेकिन समृद्ध शहर था। इसमें वह सब कुछ था जो एक भरे-पूरे शहर में होने की उम्मीद किया जाता है यथा- रेलवे स्टेशन, एक चर्च, एक मंदिर, एक डाकघर और घर और अन्य घरेलू बस्तुएं देखी जा सकती थी।
22 दिसंबर 1964 की रात कोकोडी और रामातारम् में एक बड़ा तूफान आया। हवा की गति 280 किलोमीटर प्रति घंटा थी और ज्वार की लहरें 23 फीट ऊपर उठ रही थी। पंबन-धनुषकोडी ट्रेन में मीटर ब्जॉइस लाइन पर सवार सभी 115 यात्री मारे गए। पूरे शहर में अलग-अलग जांच की गई और करीब 1,800 लोगों की जान चली गई। बाद में सरकार ने धनुकोड़ी को एक परित्यक्त शहर घोषित कर दिया।
तूफान के बाद रेल की पटारियां क्षतिग्रस्‍त हो गईं और कालांतर में, बालू के टीलों से ढ़क गईं और इस प्रकार विलुप्‍त हो गई। भगवान राम से संबंधित यहां कई मंदिर हैं। यह पूरा 15 किमी का रास्‍ता सुनसान और रहस्‍यमय है! पर्यटन इस क्षेत्र में उभर रहा है। भारतीय नौसेना ने भी अग्रगामी पर्यवेक्षण चौकी की स्‍थापना समुद्र की रक्षा के लिए की है और यात्रियों की सुरक्षा के लिए पुलिस की उपस्‍थिति महत्‍वपूर्ण है। धनुषकोडी में हम भारतीय महासागर के गहरे और उथले पानी को बंगाल की खाड़ी के छिछले और शांत पानी से मिलते हुए देख सकते हैं।
अरिचल मुनई (आखिरी भारतीय स्थल)से लगभग 5 किलोमीटर पश्चिम में धनुष्कोडी के बिखरे हुए अवशेष हैं।1964 के रामेश्वरम चक्रवात में धनुषकोडी नगर ध्वस्त हो गया था। इस चक्रवात में अनुमानित 1,800 लोगों की मौत हो गई थी. मद्रास सरकार ने धनुषकोडी को एक भूतहा शहर घोषित कर दिया था।
सड़क के उत्तरी किनारे पर एक परित्यक्त रेलवे स्टेशन है। स्टेशन का कुछ भी नहीं बचा है, जिसका मूल रूप से अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन था, सिवाय तीन ऊंचे मेहराबों के।
धनुष्कोडी में सबसे लोकप्रिय आकर्षण बिना छत वाला परित्यक्त चर्च है। लंबे समय से परित्यक्त चैपल के दोनों ओर अस्थायी दुकानें थीं जो सीप से संबंधित सामान बेचती थीं। चर्च के बचे हुए हिस्से में केवल सामने का दरवाज़ा, कुछ मेहराब और वेदी का एक टुकड़ा है।
वर्तमान में, औसनत, करीब 500 तीर्थयात्री प्रतिदिन धनुषकोडी आते हैं और त्‍योहार और पूर्णिमा के दिनों में यह संख्‍या हजारों में हो जाती है, जैसे नए निश्‍चित दूरी तक नियमित रूप से बस की सुविधा रामेश्वरम से कोढ़ान्‍डा राम कोविल ( रामेश्वरम मंदिर) होते हुए उपलब्ध है और कई तीर्थयात्री को, जो धनुषकोडी में पूर्जा अर्चना करना चाहते हैं, उन्हें निजी वाहनों पर निर्भर होना पड़ता है जो यात्रियों की संख्‍या के आधार पर 50 से 100 रूपयों तक का शुल्‍क लेते हैं। संपूर्ण देश से रामेश्‍वरम जाने वाले तीर्थयात्रियों की मांग के अनुसार, 2003 में, दक्षिण रेलवे ने रेल मंत्रालय को रामेश्‍वरम से धनुषकोडी के लिए 16 किमी के रेलवे लाइन को बिछाने का प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट भेजा है। यह धरातल पर अब तक नहीं आ सका है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच केवल स्‍थलीय सीमा है जो जलसन्धि में बालू के टीले पर सिर्फ 50 गज की लंबाई में विश्‍व के लघुतम स्‍थानों में से एक है।
धनुषकोडी और सिलोन के थलइ मन्‍नार के बीच यात्रियों और सामान को समुद्र के पार ढ़ोने के लिए कई साप्‍ताहिक फेरी सेवाएं थीं। इन तीर्थयात्रियों और यात्रियों की आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए वहां होटल, कपड़ों की दुकानें और धर्मशालाएं थी।
धनुषकोडी के लिए रेल लाइन:- जो तब रामेश्‍वरम नहीं जाती थी और जो 1964 के चक्रवात में नष्‍ट हो गई, सीधे मंडपम से धनुषकोडी जाती थी। उन दिनों धनुषकोडी में रेलवे स्‍टेशन, एक लघु रेलवे अस्‍पताल, एक पोस्‍ट ऑफिस और कुछ सरकारी विभाग जैसे मत्‍स्‍य पालन आदि थे। यह इस द्वीप पर जनवरी 1897में तब तक था, जब स्‍वामी विवेकानंद सितंबर 1893 में यूएसए में आयोजित धर्म संसद में भाग लने के लेकर पश्‍चिम की विजय यात्रा के बाद अपने चरण कोलंबो से आकर इस भारतीय भूमि पर रखे।
हाल ही में, केंद्र सरकार ने राम सेतु ब्रिज की संरचना का स्टडी करने और राम सेतु की आयु और इसके बनने की प्रक्रिया जानने के लिए पानी के अंदर खोज और शोध करने की मंजूरी दी है। यह अध्ययन यह समझने में भी मदद करेगा कि क्या यह संरचना रामायण काल जितनी पुरानी है। साथ ही, राम सेतु ब्रिज को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की जा रही है, हालांकि यह मामला विचाराधीन है। इसके साथ ही यह जानना और दिलचस्प हो जाता है कि क्या भारतीय पौराणिक कथाओं को आधुनिक समय की संरचनाओं से लिंक करने की संभावनाएं हैं। इसे इस लिंक से और आसानी से समझा जा सकता है –
अरिचल मुनई वह बिंदु है जहां हिंद महासागर बंगाल की खाड़ी से मिलता है और इस स्थान को धनुषकोडी से देखा जा सकता है।एक तरह से, अरिचल मुनई भारतीय महाद्वीप के अंत का प्रतीक है। मन्नार की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी यहीं मिलती हैं।अरिचल मुनई पॉइंट का इतिहास काफी पुराना है. मान्यता है कि यह स्थान भगवान शिव और माता पार्वती के निवास स्थान था।
श्रीलंका का बंदरगाह शहर तलाईमन्नार, पाक जलडमरूमध्य से मात्र 35 किलोमीटर दूर है। शीर्ष पर अशोकन प्रतीक वाला एक स्तंभ टर्मिनस को चिह्नित करता है। यह भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्थलीय सीमा है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के पानी का मिलन स्थल है। हिंदू मान्यताओं के मुताबिक, विभीषण के कहने पर श्री राम ने अपने धनुष के एक सिरे से सेतु को तोड़ दिया था। इसे इस लिंक से और अच्छी तरह से समझा जा सकता है  https://mindiafilms.com/arichal-munai-ram-setu-viewpoint-tamil-nadu-experience-india/
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।

इति शिवहरे भाषा सारथी सम्मान से सम्मानित

इंदौर। उत्कृष्ट कविता एवं प्रांजल भाषा में लेखन करने वाली औरैया उत्तरप्रदेश निवासी कवयित्री इति शिवहरे को मातृभाषा उन्नयन संस्थान ने भाषा सारथी सम्मान से सम्मानित किया। इन्दौर प्रेस क्लब में आयोजित आवाज़ ए मालवा कवि सम्मेलन में संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’, कवि पंकज दीक्षित व विवेक गौड़ ने सम्मानित किया।
हिन्दी भाषा के प्रसार के लिए लगातार कार्यरत मातृभाषा उन्नयन संस्थान अब तक एक हज़ार से अधिक साहित्यकारों को भाषा सारथी सम्मान से सम्मानित कर चुका है। और 30 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर अन्य भाषा से हिन्दी में बदलवा चुका है।
इस मौके पर कवि अमन जादौन, एकाग्र शर्मा, शुभम शर्मा, भरतदीप माथुर, राहुल शर्मा, जी आर वशिष्ठ, सचिन सावन, विशाल शर्मा आदि मौजूद रहे।

महाकुंभ में 30 करोड़ कमाने वाले नाविक ने जेवर गिरवी रखकर 70 नावें खरीदीं

तारीख- 4 मार्च…। जगह- UP विधानसभा। महाकुंभ में कारोबार का जिक्र करते हुए CM योगी ने कहा- ‘मैं एक नाविक परिवार की सक्सेस स्टोरी बता रहा हूं, जिनके पास 130 नौकाएं हैं। प्रयागराज महाकुंभ के 45 दिन में इन्होंने शुद्ध बचत 30 करोड़ रुपए की। यानी एक नाव से रोज 50 से 52 हजार रुपए इनकम थी।’

योगी ने जिस परिवार का जिक्र किया, उसकी पूरी कहानी क्या है? दैनिक भास्कर इसे जानने के लिए परिवार तक पहुंचा। परिवार के लोगों से बात की। सिलसिलेवार पढ़िए पूरी रिपोर्ट…

अरैल घाट के करीब शुकलावती देवी का घर प्रयागराज का नैनी इलाका, जो अरैल घाट के करीब है। यहीं पर शुकलावती देवी का घर है, जिनके बेटे पिंटू महरा और परिवार का जिक्र CM योगी ने सदन में किया। ये मूलतः निषाद परिवार से हैं। नदी आधारित कारोबार इनका पेशा है। शुकलावती के परिवार में दो बेटे पिंटू और सतीश हैं।

नाविक पिंटू महरा का घर सामान्य लोगों की तरह ही है। मौजूदा समय में मकान के ऊपरी फ्लोर में मजदूर निर्माण के काम में लगे हैं। मकान के आगे वाले हिस्से में लोगों की भीड़ उसे बधाई देने के लिए बैठी है।

प्रयागराज के पिंटू महरा के पास खुद की 70 नाव हैं। महाकुंभ में परिवार और साथियों की मिलाकर 130 नाव श्रद्धालुओं को संगम स्नान करा रही थीं।

यहां हमारी मुलाकात सबसे पहले पिंटू (40) की मां शुकलावती (71) से हुई। वे बताती हैं, जून 2018 में पति बच्चा महरा की मौत ने पूरे परिवार को अनाथ कर दिया। बच्चों के सिर से पिता का साया क्या उठा, परिवार की 2 जून की रोटी का सहारा छिन गया था, लेकिन आज बेटे की मेहनत ने सारे जख्म अपनी मेहनत और लगन से भर दिए हैं। यह कहते हुए उनकी आंख में आंसू छलक आ गए।

यह पिंटू महरा का घर है। इसमें निर्माण कार्य चल रहा है।

शुकलावती ने बताया, बेटे पिंटू ने पत्नी सुमन के जेवर गिरवी रखे। नाव तैयार करने के लिए रुपए कम पड़े तो मुझसे भी घर के कागज और जेवर मांगे। मैंने उससे कहा- ‘पागलपन न करो।’

डर था कि बेटे का कारोबार न चला तो सब लोग सड़क पर आ जाएंगे। लेकिन पिंटू मेहनत के साथ नाव तैयार करने के लिए रुपए जुटाता रहा। पहले सिर्फ चार नाव थीं, सितंबर 2024 में घर के कागज-जेवर गिरवी रख उसने धीरे-धीरे कर 70 नाव तैयार कर लीं।

पिंटू, भाई सतीश और मां शुकलावती पुराने दिन याद कर भावुक हो जाते हैं।

शुकलावती ने कहा, पूरे परिवार ने महाकुंभ में बहुत मेहनत की, गंगा मैया ने हमारी बात सुन ली। हमारा कारोबार चमका और लोगों का आशीर्वाद भी हमें मिला।

CM योगी ने जिस नाविक पिंटू का जिक्र किया, उसकी उम्र 40 साल है। हमने पिंटू से पूछा, महाकुंभ से पहले दिमाग में क्या चल रहा था? पिंटू ने बताया सूबे के मुख्यमंत्री ने जब साल 2019 का अर्धकुंभ कराया था, तभी से उसने प्लानिंग शुरू कर दी थी। जिस सरकार में अर्धकुंभ इतना शानदार व भव्य हो सकता है, उसमें महाकुंभ कितना भव्य-दिव्य होने वाला है।

पिंटू ने महाकुंभ की सरकारी तैयारियों के बीच अपने प्लान को तैयार कर उसे हकीकत की जमीन पर उतारने की तैयारी शुरू कर दी। महाकुंभ आते-आते पिंटू ने 70 नाव खुद से खरीदीं। 100 लोगों के कुनबे के युवाओं को संगठित कर कुल मिलाकर 130 के करीब नाव महाकुंभ के लिए संगम की त्रिवेणी में श्रद्धालुओं को पुण्य की डुबकी लगवाने उतारीं।

सितंबर 2024 तक पिंटू के पास सिर्फ तीन-चार नाव ही थीं। कुंभ से पहले उन्होंने 70 नावों की व्यवस्था कर ली।

मां ने दी सीख- श्रद्धालुओं को सताकर पैसे मत लेना मां शुकलावती ने पिंटू से कहा था, एक बात गांठ बांधकर रखा लो, गंगा मां के आंचल में उतरकर कारोबार करने जा रहे हो, कभी किसी श्रद्धालु को सताकर रुपए न लेना। पिंटू ने कहा- उसने मां की बात को जेहन में रखा।

अपने परिवार व नाविक साथियों की मदद से किला घाट, VVIP घाट, वोट क्लब, अरैल समेत कई अन्य घाट पर श्रद्धालुओं के लिए नाव चलाईं। सरकार ने जितने रुपए निर्धारित किए थे, उतने लेकर श्रद्धालुओं को संगम में डुबकी लगवाई। पिंटू के अलावा परिवार में पत्नी और बेटा-बेटी हैं। घर में स्कॉर्पियो गाड़ी है।

हमने पिंटू से उनके नाव के पूरे कारोबार के बारे में पूछा। पिंटू ने बताया, 1 नाव बनाने में 10 से 15 हजार रुपए खर्च किए। साथ ही 7 मोटर बोट खरीदने में 7 लाख रुपए खर्च किए। कुंभ से पहले उनके पास 12 नाव खुद की और परिवार के लोगों की मिलाकर 80 नाव थीं।

पिंटू से जब पूरी कमाई के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि 30 करोड़ उसने अकेले नहीं, पूरे कुनबे ने मिलकर कमाए हैं। उसने कितने कमाए? इस सवाल पर कहा कि अभी हिसाब नहीं किया। इतने रुपए का करेंगे क्या? इस सवाल पर कहा, सबसे पहले कर्ज चुकाएंगे, इसके बाद अन्य कारोबार में रुपए लगाएंगे। बच्चों की पढ़ाई को बेहतर करने का काम होगा। परिवार की सुख सुविधा पर खर्च करेंगे।

क्या हमारे देश में हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है?

स्विट्जरलैंड में समुदाय विशेष मात्र 2% है और पढ़ा लिखा भी है फिर भी तार्किक सोच रखने वाले सलवान मोमिका की घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी।

भारत में तो कन्वर्टेड हिंदू 20% हैं और ज्यादातर मदरसे में पढ़े हैं इसलिए 20 साल बाद गृहयुद्ध, नरसंहार, हत्या, बलात्कार और विभाजन निश्चित है।

लव जिहाद, लैंड जिहाद, ड्रग जिहाद, घुसपैठ जिहाद, धर्मांतरण जिहाद, जनसंख्या जिहाद के कारण भारत की डेमोग्राफी बहुत तेजी से बदल रही है।

यदि कठोर कानून तत्काल नहीं बना तो 20 वर्ष बाद या तो कन्वर्ट होना पड़ेगा अन्यथा यश चोपड़ा, प्रेम चोपड़ा, सुनील दत्त, देवानंद, राज कपूर, राजेन्द्र कुमार, गुलजार, मनमोहन सिंह, खुशवंत सिंह, मिल्खा सिंह, इंद्र कुमार गुजराल, राम जेठमलानी और आडवाणी जी की तरह मकान, दुकान, खेत, खलिहान, उद्योग, व्यापार छोड़कर भागना होगा

यदि विकास करने से देश सुरक्षित होता तो विकास के मामले में फ्रांस और स्विट्जरलैंड हमसे बहुत आगे है

1805 में अफ़गानिस्तान के प्रधानमंत्री पंडित नंदराम टिक्कू ने बहुत विकास किया था और 10 साल बाद उन्हें खदेड़ दिया गया और आज वहां एक भी हिंदू जैन बौद्ध सिख नहीं बचा है

यदि मठ-मंदिर गुरुद्वारा बनाने से हिंदू जैन बौद्ध सिख सुरक्षित होते तो अफ़गानिस्तान पाकिस्तान बांग्लादेश में हज़ारों मठ-मंदिर और गुरुद्वारे थे।

यदि गौशाला, धर्मशाला, गुरुकुल बनाने से हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख सुरक्षित होते तो अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान बांग्लादेश में भी हज़ारों गौशाला, धर्मशाला और गुरुकुल थे।

यदि कथा, पूजा, दान, हवन, ध्यान, साधना करने से हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख सुरक्षित होते तो अफ़गानिस्तान पाकिस्तान बांग्लादेश में हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख का नामोनिशान नहीं मिटता

100 वर्ष पहले विश्व की सबसे बड़ी भगवान बुद्ध की मूर्ति अफ़गानिस्तान में थी लेकिन अब वहाँ न मूर्ति बची है और न बौद्ध।

१०० वर्ष पहले विश्व का सबसे बड़ा जैन मंदिर मुल्तान में था लेकिन अब वहाँ मदरसा चलता है और न तो भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है और न तो कोई जैन।

१०० वर्ष पहले विश्व का सबसे बड़ा शिव मंदिर गांधार (अफ़गानिस्तान) में था लेकिन अब उसका नामोनिशान नहीं है। न शिवलिंग बचा है और न शिवभक्त।

१०० वर्ष पहले विश्व का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर कैकेय (पाकिस्तान) में था लेकिन अब उसका नामोनिशान नहीं है। न भगवान विष्णु की मूर्ति बची और न विष्णु भक्त।

1971 में बांग्लादेश को बनवाने के लिए हमारे 20 हज़ार सैनिकों ने बलिदान दिया था लेकिन अब वहां हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख को अपना मकान, दुकान, खेत, खलिहान, उद्योग, व्यापार छोड़कर भागना पड़ रहा है

1990 में कश्मीर से हिंदुओं को अपना मकान, दुकान, खेत, खलिहान, उद्योग, व्यापार छोड़कर भागना पड़ा और आजतक वापस नहीं मिला।

वोटजीवी, नोटजीवी और सत्ताजीवी नेता प्रतिदिन आरोप-प्रत्यारोप, तू-तू-मैं-मैं, नूरा-कुश्ती, बतोलेबाजी, भाषणबाजी और तू चोर मैं सिपाही करते हैं लेकिन आवश्यक मुद्दों पर संसद में चर्चा नहीं करते हैं।

गांधीवाद, लोहियावाद, अंबेडकरवाद, साम्यवाद, समाजवाद आपको भ्रमित करने वाले जुमले हैं। नेताओं का असली लक्ष्य है सत्ता और सत्ता से पैसा।

यदि अपना मकान, दुकान, खेत, खलिहान, उद्योग, व्यापार और त्योहार बचाना चाहते हैं तो दल गुलामी छोड़िये और अपने सांसद से मिलकर लव जिहाद, लैंड जिहाद, ड्रग जिहाद, घुसपैठ जिहाद, धर्मांतरण जिहाद और जनसंख्या जिहाद रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की मांग करिए।

यदि अपने बच्चों को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो नेताओं की जय जयकार करने की बजाय अपने सांसद से मिलकर समान शिक्षा, समान नागरिक संहिता, समान कर संहिता, समान व्यापार संहिता, समान जनसंख्या संहिता, समान पुलिस संहिता, समान न्याय संहिता, समान प्रशासनिक संहिता लागू करने की मांग कीजिये।

याद रखिए, आज के नेता 20 वर्ष बाद आपका मकान, दुकान, खेत, खलिहान, उद्योग, व्यापार और त्योहार बचाने नहीं आएंगे लेकिन आज का कठोर कानून आपका धन, धर्म और परिवार को बचाएगा।

रास्ता दो है- चीन जैसा कठोर कानून और इजरायल जैसा शक्ति का उपयोग।

मेरा तो मानना है कि यदि शक्त कानून नहीं आया तो 10 साल बाद ही इस देश का प्रधान मंत्री, राष्ट्रपती, जज सभी मुस्लिम समुदाय के लोग होगें।
क्योंकि हमारे बच्चे शादियां ही नहीं कर रहे, यदि शादी करते हैं तो बच्चे नहीं कर रहे,तो जनसंख्या कैसे बढ़ेगी और उधर बच्चों की लाईन लग रही है तथा उन्हें मदरसा में ट्रेंड किया जा रहा है।आज हिन्दू 80 करोड़ हैं और मुस्लिम 30 करोड़ हैं,यह उल्टा हो जायेगा और हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। अभी से सावधान हो जाएं।

जमा पूंजी 300 रुपये और 80 हजार किलोमीटर की यात्रा कर एकत्र किया देसी बीजों का खजाना

तमिलनाडु के मंगलम गांव के 32 वर्षीय किसान सलाई अरुण ने अपनी मेहनत और समर्पण से 300 से अधिक दुर्लभ देशी सब्जियों के बीजों का संरक्षण किया है। बचपन से खेती में रुचि रखने वाले अरुण ने 2011 में जैविक कृषि वैज्ञानिक जी. नम्मालवर से प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिससे उनका खेती के प्रति जुनून और बढ़ गया।
अरुण ने देखा कि किसानों के पास देसी सब्जियों के बीजों की कमी है। इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने 2021 में देशभर की यात्रा करने का निर्णय लिया, हालांकि उस समय उनकी जमा पूंजी मात्र 300 रुपये थी। इसके बावजूद, उन्होंने लगभग 80,000 किलोमीटर की यात्रा की और 500 से अधिक किसानों से मिलकर 300 से अधिक दुर्लभ सब्जियों के बीज एकत्रित किए।
अपने गांव में अरुण ने एक छोटे से बगीचे में इन लुप्तप्राय देशी फल-सब्जियों को उगाना शुरू किया। उन्होंने ‘कार्पागथारू’ नाम से एक बीज बैंक की स्थापना की, जिसके माध्यम से वे लौकी की 15, बीन्स की 20, टमाटर, मिर्च और तोरई की 10-10 किस्मों सहित कई अन्य सब्जियों के बीज उपलब्ध करा रहे हैं।
अरुण की यह पहल न केवल जैविक खेती को बढ़ावा देती है, बल्कि देशी बीजों के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है। उनकी कहानी प्रेरणादायक है और यह दर्शाती है कि समर्पण और मेहनत से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

विश्व का पवित्रतम रामेश्वरम युगल ज्योतिर्लिंग

दक्षिण भारत में 12 में से सिर्फ 2 ज्योर्तिलिंग हैं श्रीशैलम मल्लिकार्जुन शिवलिंग और रामनाथस्वामी ज्योतिर्लिंग। श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग, आंध्र प्रदेश के कुरनूल ज़िले में है। यह मंदिर भगवान शिव और पार्वती को समर्पित है। यह शैव और शक्ति दोनों हिंदू संप्रदायों के लिए महत्वपूर्ण है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है।
भारत की पवित्र धरती पर कई ऐसे स्थान हैं जो आध्यात्मिक और पौराणिक महत्व से जुड़े हुए हैं। इन्हीं में से एक है तमिलनाडु का रामेश्वरम, जो भारत के दक्षिणी भाग में स्थित एक प्रमुख राज्य है, जहाँ हिंदू धर्म का प्रभाव बहुत गहरा है। यहाँ की लगभग 88% जनसंख्या हिंदू धर्म को मानती है, और यह राज्य भारतीय हिंदू धर्म की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित रामेश्वरम मंदिर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग, भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर है। यह हिंदू धर्म के चार धामों में से एक है।
तमिलनाडु के रामेश्वरम् में है रामनाथस्वामी ज्योर्तिलिंग, जिसे श्रीराम ने समुद्र के बालू की रेत से बनाया था।
कहा जाता है कि इस शिवलिंग का निर्माण उस समय हुआ था, जब श्रीराम लंका के राजा रावण से युद्ध करने की तैयारी कर रहे थे। तब भगवान शिव का आशीर्वाद पाने के लिए श्रीराम ने इस शिवलिंग का निर्माण कर उस पर जल चढ़ाया था। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसकी बनावट, पौराणिक महत्व और प्राकृतिक सौंदर्य इसे अद्वितीय बनाते हैं।  यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान रखता है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित यह मंदिर धार्मिक आस्था, वास्तुकला और पौराणिक कथाओं का अद्भुत संगम है।
 
रामेश्वरम मंदिर की पौराणिक कथा:- 
भगवान राम जब 14 साल का वनवास खत्म करके और लंका पति रावण का वध करके मां सीता के साथ लौटे, तब ऋषि-मुनियों ने उनसे कहा कि उन पर ब्राह्मण हत्या का पाप लगा है। रावण ब्राह्मण कुल से था, इसलिए भगवान राम को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इसलिए उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवलिंग की स्थापना करने की सलाह दी गई। ऐसे में भगवान राम ने शिवलिंग लाने के लिए हनुमान जी को कैलाश पर्वत भेजा, लेकिन हनुमान जी को आने में देर हो गई। इस बीच माता सीता ने समुद्र तट पर रेत से शिवलिंग बना दिया। बाद में हनुमान जी द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित किया गया। माता सीता द्वार बनाए लिंग को ‘रामलिंग’ और हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को ‘विश्वलिंग’ कहा जाता है। उसके बाद भगवान राम ने रामेश्वरम के पास स्नान करके शिवलिंग की विधिवत पूजा की और अपने पापों से मुक्ति पाई।
कैलाश पर्वत से शिवलिंग लेकर जब हनुमान जी वापस लौटे तब तक शिवलिंग स्थापना का मुहूर्त बीत चुका था और भगवान राम माता सीता के साथ मिलकर वहां पर एक बालू के शिवलिंग की स्थापना कर चुके थे. यह सब देखकर हनुमान जी दुखी होकर रामजी के चरणों में गिर गए तब रामजी ने उन्हें कहा कि अगर तुम इस शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं यहां तुम्हारे द्वारा लाया शिवलिंग स्थापित कर दूंगा. हनुमान जी के बहुत प्रयास करने के बाद भी वह शिवलिंग को उखाड़ नहीं पाए और थोड़ी दूर जाकर गिर पड़े।
तब रामजी ने कहा कि यह मेरे और सीता के द्वारा स्थापित किया गया शिवलिंग है, इसे हटाया नही जा सकता है. यह समझाने के बाद रामजी ने हनुमान जी द्वारा लाए शिवलिंग को वहीं थोड़ी दूर पर स्थापित कर दिया और उस स्थान का नाम हनुमदीश्वर रखा गया था. यह गढ़कालिका से कालभैरव मार्ग पर जाने वाले ओखलेश्वर घाट पर श्री हनुमंतेश्वर महादेव का मंदिर विद्यमान है.
हनुमान जी द्वारा लाए गए लिंग को हनुमदीश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। यह शिवलिंग काले पाषाण से बना है. मान्यता है कि हनुमान जी ने इसे स्थापित किया था. कहा जाता है कि इस शिवलिंग के दर्शन करने से रामेश्वरम के दर्शन जितना पुण्य मिलता है. आज भी रामेश्वरम मंदिर में ये दोनों युगल शिवलिंग विराजमान हैं। इसकी विधिवत विधान से पूजा अर्चना किया जा रहा है।
विशाल आकार और अद्भुत वास्तुकला:- 
रामेश्वरम मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। 15 एकड़ में फैला यह मंदिर एक बड़ी दीवार से घिरा हुआ है। मंदिर का प्रवेश द्वार भव्य और आकर्षक है। यहां के गलियारे और मूर्तियां इसे दुनिया के सबसे सुंदर मंदिरों में से एक बनाते हैं। यह मंदिर करीब 1000 फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है। इसका प्रवेश द्वार 40 मीटर ऊंचा है। मंदिर की दीवारें और गलियारे द्रविड़ शैली की वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण हैं। बता दें कि इस मंदिर को बनाने के लिए पत्थरों को श्रीलंका से नाव के जरिए लाया गया था।
रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व प्रसिद्ध है। यह उत्तर से दक्षिण 197 मीटर और पूर्व से पश्चिम 133 मीटर लंबा है। यहां तीन गलियारे हैं, जिनमें से एक गलियारा 12वीं सदी का माना जाता है।
 
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

विश्‍व भारत की ओर देख रहा है उसे मानवता की दिशा देनी होगी – डॉ. मोहनराव भागवत

शारदा विहार आवासीय विद्यालय में पूर्णकालिक कार्यकर्ता अभ्‍यास वर्ग का शुभारंभ

भोपाल। विद्या भारती द्वारा आयोजित पांच दिवसीय पूर्णकालिक कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग 2025 का शुभारंभ हुआ, जिसमें विद्या भारती के अखिल भारतीय अध्यक्ष श्री दूसी रामकृष्ण राव जी ने प्रस्तावना रखते हुए कहा कि विद्या भारती के कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण हमारा मुख्य लक्ष्य है, जिससे वे शिक्षा के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकें। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के सभी बिंदुओं को सम्मानित करते हुए, संगठन के लक्ष्यों में कुछ नई बातों को जोड़ने का भी प्रावधान किया गया है।

इस अवसर पर परम पूजनीय सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत जी ने कार्यक्रम के उद्घाटन में कहा विद्या भारती केवल शिक्षा प्रदान करने का कार्य नहीं करती, बल्कि समाज को सही दिशा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विश्‍व भारत की ओर देख रहा है उसे मानवता की दिशा देनी होगी।

इस अवसर पर परम पूजनीय सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत जी ने कार्यक्रम के उद्घाटन में कहा विद्या भारती केवल शिक्षा प्रदान करने का कार्य नहीं करती, बल्कि समाज को सही दिशा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विश्‍व भारत की ओर देख रहा है उसे मानवता की दिशा देनी होगी।

डॉ. भागवत ने कहा कि विद्या भारती अपने विचारों के अनुरूप शिक्षा कार्य कर रही है। यह शिक्षा केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह छात्रों के जीवन मूल्यों और संस्कारों का निर्माण भी करती है। उन्होंने कहा कि हमारी शिक्षा का कार्य व्यापक है, जो केवल ज्ञान देने तक सीमित नहीं रह सकता, बल्कि इसका उद्देश्य समाज को नैतिक रूप से समृद्ध बनाना भी है।

उन्होंने कहा कि समय के अनुसार परिवर्तन आवश्यक है, लेकिन इसमें निष्क्रिय होकर बैठना उचित नहीं होगा। मानव अपने मस्तिष्क के बल पर समाज में परिवर्तन लाता है और उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह परिवर्तन सकारात्मक हो।

आज के समय में तकनीक समाज के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव डाल रही है। हमें टेक्नोलॉजी के लिए एक मानवीय नीति बनानी होगी। उन्होंने कहा कि आधुनिक विज्ञान और तकनीक में जो कुछ गलत है, उसे छोड़ना पड़ेगा और जो अच्छा है, उसे स्‍वीकार कर आगे बढ़ना होगा।

उन्होंने भारत की सांस्कृतिक विशेषता पर जोर देते हुए कहा कि हमें विविधता में एकता बनाए रखनी होगी। भारत की संस्कृति ने हमेशा सभी को जोड़ने का कार्य किया है, और इसे बनाए रखना हमारा कर्तव्य है। सब में मैं हूँ, मुझ में सब हैं डॉ. भागवत ने भारतीय दर्शन के इस मूल विचार को रेखांकित किया कि प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि वह समाज का अभिन्न अंग है और समाज भी उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस दृष्टिकोण से हमें अपने कार्यों को संचालित करना चाहिए।

आज विश्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। भारत ने सदैव सत्य के मार्ग पर चलते हुए अपने मूल्यों को बनाए रखा है, और यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। यदि समाज में परिवर्तन लाना है, तो सबसे पहले व्यक्ति में परिवर्तन लाना होगा। उन्होंने विद्या भारती की इस दिशा में भूमिका को महत्वपूर्ण बताया और कहा कि हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करनी होगी, जो व्यक्ति के चरित्र निर्माण में सहायक हो।

उन्होंने कहा कि हमारे प्रयास केवल एक वर्ग या समूह के कल्याण तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि हमें संपूर्ण समाज के कल्याण का लक्ष्य रखना होगा। उन्होंने कहा कि हमारी शक्ति और संसाधन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समस्त समाज की उन्नति के लिए समर्पित होने चाहिए। उन्होंने कहा कि हमारे समाज में कई विचारधाराएँ हैं और हमें उन लोगों को भी साथ लेकर चलना है जो हमारे विचारों से सहमत नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी का भी मत भिन्न हो सकता है, लेकिन कार्य की दिशा सही होनी चाहिए।

डॉ. भागवत ने कहा कि विमर्श का स्वरूप बदलना भी एक महत्वपूर्ण कार्य है। हमें सकारात्मक सोच और रचनात्मक विचारों के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए काम करना चाहिए।

विद्या भारती के अखिल भारतीय अध्यक्ष श्री रामकृष्ण राव जी द्वारा प्रस्तुत भूमिका एवं प्रस्तावना से यह स्पष्ट होता है कि विद्या भारती का मुख्य लक्ष्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना और शिक्षा को समाज परिवर्तन का माध्यम बनाना है। परम पूजनीय सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत जी के इस उद्बोधन से यह भी स्पष्ट होता है कि शिक्षा केवल पाठ्यक्रम का ज्ञान देने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि यह समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने का माध्यम बननी चाहिए।

परिवर्तन आवश्यक है, लेकिन इसकी दिशा सही होनी चाहिए। विविधता में एकता बनाए रखना, तकनीक की मानवीय नीति बनाना और विरोधियों को भी साथ लेकर चलना—ये सभी बातें समाज को एक नई दिशा देने में सहायक होंगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के सिद्धांतों को अपनाते हुए, विद्या भारती इस दिशा में अपने दायित्व को निभाते हुए शिक्षा के माध्यम से समाज को सशक्त करने के लिए संकल्पित है। कार्यक्रम में देश भर से अखिल भारतीय पदाधिकारी, क्षेत्रीय अधिकारी के साथ 700 से अधिक कार्यकर्ता, पदाधिकारी उपस्थित है।

प्रचार विभाग
विद्या भारती मध्‍यभारत

संपर्क सूत्र –
डॉ आशीष जोशी 942840000
चंद्रहंस पाठक 9425652963

प्राचीन भारत की गौरवशाली न्याय व्यवस्था

सामान्यतः ऐसा माना जाता है (और जो शालेय / महाविद्यालयीन शिक्षा से और दृढ होता गया है) कि, न्याय प्रणाली, न्यायालय, न्यायमूर्ती, वकील…. यह सब व्यवस्थाएं अंग्रेजो ने भारत मे लायी। अंग्रेज आने से पहले भारत मे यह कुछ भी नही था। यदि जनता की कोई शिकायते होती थी, तो वह सीधे राजा के सामने रखी जाती थी। राजा उसके मनमर्जी से, या उस समय उसकी जो मनस्थिती रही होगी, उस प्रकार निर्णय देता था।

परंतु वास्तविक चित्र क्या है?

हजारो वर्षों से अपने देश मे सुव्यवस्थीत न्यायप्रणाली कार्यरत थी। इस न्यायप्रणाली का आधार था – धर्मशास्त्रों का,अलग-अलग स्मृतियों का। इस न्यायव्यवस्था को समाज मान्यता थी। इस व्यवस्था के कारण उस समय के अखंड और विशाल भारत देश में स्वस्थ, सुदृढ और सशक्त समाज व्यवस्था का अस्तित्व था। महेश कुमार शरण ने उनके पुस्तक ‘कोर्ट प्रोसिजर इन एन्शंट इंडिया’ मे लिखा है –
‘It is just possible that elements of Hindu law were adopted by Romans thourgh Greek and Egyptian channels’
अर्थात, विश्व मे परिपूर्ण न्यायव्यवस्था सर्वप्रथम भारत मे ही विकसित हुई है। यह न्याय व्यवस्था ग्रीक और मिस्त्र देश के माध्यम से रोमन्स (युरोपियन्स) ने अपनायी होगी।

महेश कुमार शरणने आगे लिखा है –
‘It should be a pride and satisfaction to a Hindu to know that his / her ancestors had scaled great heights not only in literature, philosophy and religion, but had advanced very farin the domain of law’ – (Court procedures in Ancient India)

(अर्थात, एक हिंदू के लिए इसकी जानकारी होना अत्यंत गर्व और समाधान की बात है कि उसके पुरखों ने केवल साहित्य, दर्शन और धर्म मे ही अपनी कीर्ती ध्वजा फहराई थी, ऐसा नही है। तो न्याय के क्षेत्र में भी उन्होने कीर्तीमान रचा था।)

आगे लिखा है-

‘The  rule and evidence were as complete and perfect, as we can find them today. The administration of justice was regular and the system was well defined, as no aspect was left arbitrarily, capricious or uncertain. Judiciary had the highest regard and supreme position.

(अर्थात, ‘नियम’ और ‘प्रमाण’ इन की परिभाषा इतनी परिपूर्ण और निर्दोष थी, जितनी आज है। न्याय प्रणाली एक नियमित व्यवस्था थी। परिभाषा सुस्पष्ट थी। इसमे कोई भी अनियंत्रितता नही थी, अनिश्चितता नही थी। न्यायव्यवस्था सर्वोच्च स्थान पर थी और उस व्यवस्था को सर्वाधिक आदर और सम्मान मिलता था।)

इसी पुस्तक में महेश कुमार शरण ने आगे लिखा है –

Besides this, the whole procedure is completely indigenous and nothing has been imported into it from any other system, whatsoever.’

(अर्थात, इस न्याय व्यवस्था की संपूर्ण प्रक्रिया पूर्णतः स्वदेशी थी। इसमें कोई भी बाहरी (देशों से) बिंदु या व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया था।)

————–         ————-

भारत की यह संपूर्ण न्याय व्यवस्था, स्मृतियों के आधार पर खड़ी थी। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति आदि प्रमुख स्मृतियां थी।

यह स्मृति क्या होती है? यह कितनी पुरानी है?

एक सुव्यवस्थित समाज रचना निर्माण करने के लिए, हजारों वर्षों से अपने पूर्वजों ने कुछ ग्रंथों का निर्माण किया हैं। इन ग्रंथो के अनुसार ही अपने समाज में प्रथा, परंपरा, व्यवस्थाएं निर्माण हुई। इन ग्रंथों के आधार पर अपना समाज चल रहा था। इसलिए, इतने सारे आक्रमणों के बाद भी हमारी पहचान कायम रही, बनी रही।

इन ग्रंथो में वेद है, उपनिषद है, श्रुति है, स्मृति है, पुराण है। हजारों वर्षों से हमारे ऋषि मुनियों ने, समाज महर्षियों ने, जिस ज्ञान का संचय किया है, वह संचय यानी स्मृतियां। एक प्रकार से परंपराओं का संकलन होने के कारण इन्हें ‘स्मृति’ यह नाम दिया गया है। यह स्मृति मानो हमारा धर्मशास्त्र है। भारत का और पौर्वात्य प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने वाले जो पाश्चात्य विद्वान है, उनके अनुसार इन स्मृतियों की रचना ईसा पूर्व 500 वर्षों से लेकर तो ईसा के बाद पांचवें सदी तक हुई है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में जिस काल खंड में आर्य चाणक्य अर्थशास्त्र लिख रहे थे, उसी कालखंड में स्मृतियों की रचना हुई है, ऐसा पश्चिम के विद्वानों का मत है। परंतु उपलब्ध संदर्भों के अनुसार स्मृतियों का कालखंड इससे भी बहुत प्राचीन है।

इन स्मृतियों में से ‘कात्यायन स्मृति’ यह ऋषि कात्यायन द्वारा लिखी गई है, ऐसा माना जाता है। कात्यायन यह याज्ञवल्क्य ऋषि के पुत्र थे। इनका कार्यकाल ईसा पूर्व कुछ हजार वर्ष माना जाता है। अर्थात ‘कात्यायन स्मृति’ यह ग्रंथ, कात्यायन ऋषि ने लिखे हुए सूत्र और उनके अन्य शिष्यों के साहित्य का संकलन है। इसलिए कात्यायन स्मृति में केवल ऋषि कात्यायन के श्लोक नहीं है। देवल  पितामह, प्रजापति, वशिष्ठ, मनु आदि ॠषियोंका सहभाग भी इस कात्यायन स्मृति में है।

इस स्मृति में कात्यायन ऋषि ने उनके पहले, इस न्याय के क्षेत्र में जिन्होंने काम किया था, उनका उल्लेख किया है। भृगु, बृहस्पति, गार्गीय, तम, कौशिक, लिखिता, मनु, मानव आदि..! प्राचीन भारत में जो न्याय प्रणाली विकसित हो रही थी, उसमें कात्यायन ऋषि के बाद, लगभग 1000 वर्ष तक, इसमें विशिष्ट सुधार होते रहे। कात्यायन स्मृति में उसका प्रभाव दिखता है। इस स्मृति में प्रत्यक्ष कात्यायन ऋषि ने लिखे हुए श्लोक अंत में दिए हुए हैं।

महामहोपाध्याय डॉक्टर पांडुरंग वामन काणे (1880 – 1972) ने प्राचीन भारतीय न्याय शास्त्र के क्षेत्र में, अत्यंत गहन शोध और भरपूर लेखन किया है। ‘भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास’ इस विषय पर उनका 6500 पृष्ठोंका का, पांच खंडो में लिखा हुआ साहित्य प्रकाशित हुआ है। स्वयं न्याय शास्त्र के विद्वान तो थे ही, साथ मे उन्होंने संस्कृत ग्रंथोका का गहन अध्ययन किया। वर्ष 1963 में महामहोपाध्याय काणे जी को भारत का सर्वोच्च सम्मान, ‘भारत रत्न’ दिया गया।

ऐसे पां. वा. काणेजी ने, कात्यायन स्मृति के बारे में बहुत कुछ लिख रखा है। वे लिखते हैं –  ‘कात्यायन स्मृति में न्याय प्रणाली के संदर्भ में जो विषय आएं है, वह अद्भुत और आश्चर्य जनक है। क्योंकि आज के आधुनिक न्याय शास्त्र जैसी पद्धति और नियम, कात्यायन स्मृति में हैं।’

[Some of his (sage Katyayan’s) rules, such as those about the contents and characteristics of good points and written statements, about the evidence of witness and about documents, about constructive res judicata are startling in their modernity].

कात्यायनी स्मृति में आए हुए विषय –

– न्यायालय, न्यायालय की प्रक्रिया / पद्धति
– कागजात
– परिक्षण (बहस)
– शपथ लेकर दी हुई साक्ष्य / बयान
– भागीदारी
– भेंट वस्तु (gift)
– अनुबंध तोड़ना
– जो मालिक नहीं हैं, ऐसे व्यक्ति ने की हुई वस्तुओं की बिक्री
– परंपराओं का / नियमों का उल्लंघन
– विवादों की सीमा
– पैतृक संपत्ति का बंटवारा / विवाद
– वाकपारुष्य (आज की भाषा में ‘हेट स्पीच’)
– दंड पारुष्य (कठोर सजा)
– प्रकीर्णक (विविध / अनेक प्रकार के यम-नियम)

प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था / २
–   प्रशांत पोळसंपूर्ण कात्यायन स्मृति में, न्यायालय की परिभाषा से लेकर, विविध प्रसंगों में किस प्रकार से न्यायदान करना चाहिए, इस पर विस्तार से चर्चा की है।न्यायालय की परिभाषा-

धर्मशास्त्र विचारेण मूलसार विवेचनम्
यत्राधिक्रियते स्थाने, धर्माधिकरणम् हितत्  ।।52।।

[The place, where the decision of the truth of the plaint, i.e. lit, the cause or root of the dispute, is carried on by a consideration of the (rules of the) sacred law is (called) the Hall of Justice]

धर्माधिकरण याने न्यायालय.

मजेदार बात यह है कि, कात्यायन स्मृति में फिर्यादी को किस प्रकार के प्रश्न पूछने चाहिए इसका भी विस्तार से वर्णन किया है,।

प्रश्न प्रकार –

काले कार्यार्थिनं पृच्छेत प्रणतंपुरतःस्थितं ।
किं कार्य  का च ते पीडा मा भैषीब्रूहि मानव ।।86।।

केन कस्मिकंदाकस्मातपृच्छे  देवं सभागतः I
एवं पृष्ठः सयद्ब्रूयात्तत्सभ्यै ब्राह्मणैः सहः ।।87।।

विमृश्य कार्यं न्यायंचेदाव्हानार्थमतः परम्
मुद्रां वा निक्षेपेत्तस्मिन्पुरुषं वा समादिशेत ।।88।।

अर्थात, न्यायाधीश ने पक्षकार को (जो फरियाद लेकर आया है), न्यायालय के उचित समय पर, प्रश्न पूछना चाहिए। यह पूछते समय, पक्षकार ने न्यायाधीश के सामने आदब से खड़ा रहना है। न्यायाधीश पूछेंगे, “आपकी शिकायत क्या है? आपको कहीं चोट तो नही आई हैं? डरिए मत…” आदि।

इसके बाद न्यायाधीश ने पूछना है, “किसके कारण, कहां, कब, (दिन के किस समय) और क्यों ?आपको तकलीफ हुई, या आप क्यों शिकायत कर रहे हैं?” इन प्रश्नों पर पक्षकार जो कहता है, वह न्यायालय ने शांति से सुनना है। उस न्यायालय में उपस्थित मूल्यांकन कर्ताओं की (आज की भाषा में ‘जूरी सदस्य’) मदद से, उनकी सलाह पर, न्यायमूर्ति ने यह तय करना है कि यह शिकायत / यह प्रकरण न्याय प्रविष्ट होने योग्य है या नहीं? अगर है, तो न्यायमूर्ति ने संबंधित गुनहगार को हाजिर करने के लिए संबंधित अधिकारियों को आज्ञा देनी है।

कितना अद्भुत है यह सब..! पां. वा. काणे के कहे अनुसार, हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं, यह सब पढ़कर! कितने विस्तार से पूरी न्याय प्रणाली (न्याय की पद्धति / प्रक्रिया) समझायी है। सनद रहे, कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व, अपने देश में इतनी व्यवस्थित, और ठीक से दस्तावेजीकरण (Well  documented) की हुई, न्याय व्यवस्था अस्तित्व में थी।

और हमें पढ़ाया गया कि भारत में न्याय व्यवस्था लायी, वह अंग्रेजों ने..!

एक हजार से अधिक श्लोक कात्यायन स्मृति में है। यह ग्रंथ विस्तृत धर्मशास्त्र का एक हिस्सा है। इस का अर्थ है, हमारे पूर्वजों ने एक सुव्यवस्थित न्याय प्रणाली विकसित करके उसका उपयोग किया था।

इसीलिए समाज में किसी पर भी अन्याय नहीं होता था, और कानून व्यवस्था सही रूप में लागू की जा रही थी।

धर्मशास्त्र का (अर्थात न्याय शास्त्र का), विस्तृत विवेचन करने वाला कात्यायन स्मृति यह एकमात्र ग्रंथ नहीं था। साधारणत: ढाई हजार वर्ष पुराना, या उससे भी प्राचीन, ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ यह ग्रंथ भी, भारतीय न्याय पद्धति की विस्तृत विवेचना करता है। इस ग्रंथ में कुल 1003 श्लोक है, जो तीन खंडों में विभाजित है।

01. आचार कांड – इसमें तेरा अध्याय है। ब्रह्मचारी, विवाह, गृहस्थ, भक्ष्याभक्ष्य, द्रव्यशुद्धी, दान, श्राद्ध, राज धर्म इत्यादि विषयों पर इसमें विवेचन किया है।

02. व्यवहार कांड – 25 अध्याय के इस कांड में सीमावाद, स्वामीपालवाद, अस्वामी विक्रम, दत्तक प्रधानिक (गोद लेना), वेतन, दान, वाकपारूष्य आदि विषय और उनके यम-नियम का वर्णन है।

03.प्रायश्चित कांड – इसमें 6 अध्याय है।  शौच प्रकरण, आपधर्म प्रकरण, वानप्रस्थ, यति धर्म प्रकरण, प्रायश्चित प्रकरण जैसे विषय इसमें आते हैं।

अंग्रेजों का शासन भारत में जब तक अच्छी तरह स्थिर नहीं हुआ था, तब तक, मुख्य रूप से ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ के आधार पर न्यायदान के काम चलते थे। याज्ञवल्क्य ऋषि मिथिला के थे। शुक्ल यजुर्वेद और ‘शतपथ ब्राह्मण’ उपनिषद के रचयिता थे।

याज्ञवल्क्य स्मृति मे, पंचायत समिति (ग्राम पंचायत) में व्यवस्था कैसी होनी चाहिए इस विवेचन से लेकर, राज्य के मुख्य न्यायाधीशने, या राजा ने, किस प्रकार से न्याय देना चाहिए, इसकी विस्तार से चर्चा की है।

पिछले कुछ वर्षों से अपने देश में ‘मनुस्मृति’ की बहुत चर्चा हुई है। ‘भारत की प्राचीन समाज व्यवस्था और न्याय व्यवस्था मनुस्मृति के ही आधार पर चलती थी’ ऐसा चित्र निर्माण किया गया हैं। यह गलत है।

भारत के न्याय व्यवस्था के संदर्भ में मनुस्मृति यह मुख्य संदर्भ ग्रंथ कभी नहीं था। अनेक संदर्भ ग्रंथो में से एक था, यह सच है। ‘दंड विधान’ मे, अर्थात सजा देने मे मनुस्मृति का कुछ अंशों मे उपयोग होता था, यह भी सच हैं। किंतु केवल इतना ही..! जो महत्व कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति को था, उतना महत्व मनुस्मृति को निश्चित रूप से नहीं था।

किंतु ‘इन दो – ढाई हजार वर्ष पुरानी स्मृतियों के आधारपर ही, भारत की न्याय व्यवस्था चलती थी’ यह विधान पूर्ण सत्य नहीं है। यह अर्ध सत्य है।

प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था / ३
–   प्रशांत पोळ

प्राचीन भारत के न्याय व्यवस्था की चर्चा करते हुए पिछले भाग में हमने कुछ ‘स्मृतियों’ की चर्चा की। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे ग्रंथ अपने प्राचीन न्याय व्यवस्था के आधार स्तंभ थे।मात्र इन दो – ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रंथों के आधार पर भारत में न्याय होता था, यह कहना पूर्ण सही नहीं है। भारतीयों की, अर्थात हिंदुओं की, विशेषता है कि वह देश – काल – परिस्थिति अनुसार अपने व्यवस्थाओं और नियमों को युगानुकूल परिष्कृत करते जाते हैं। ‘जो पुराना है, प्राचीन है, वही सब अच्छा है’ यह कुएं के मेंढकों की मानसिकता अपनी (हिंदुओं की) नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में ‘भाष्य’ यह समयानुसार, लिखे गए वेदों को / उपनिषदों को / स्मृतियों को परिष्कृत करने की एक सर्वमान्य पध्दति थी।इसी कारण धर्मशास्त्र पर (अर्थात न्याय प्रणाली पर) लिखे गए लगभग सभी ग्रथोंपर, समय-समय पर भाष्य लिखा गया। इस्लामी आक्रांता भारत में आने तक यह परंपरा कायम थी। आगे चलकर वह कम होती चली गई।

याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिथिला नगर के वाचस्पती मिश्र ने भाष्य लिखा। सन 900 से 980 यह उनका कार्यकाल था। उनके अनेक ग्रथोंमें से ‘न्याय सूचि निबंध’ और ‘न्याय वर्तिका तात्पर्य टीका’, यह दो ग्रंथ न्याय व्यवस्था पर है। इनमें से पहला ग्रंथ अर्थात, ‘न्यायसूचि निबंध’ यह, अक्षय पद गौतम के ‘न्याय सूत्र’ इस ग्रंथ पर प्रमुखता से भाष्य करता है। अक्षयपद गौतम का कालखंड यह ईसा पूर्व 200 वर्ष का था। इसी ‘न्याय सूत्र’ पर, आगे चलकर उद्योतकर, भविविक्त, अविधा कर्ण, जयंत भट आदी अनेक विद्वानों ने भाष्य लिखे हैं।

ग्यारहवी सदी मे, दक्षिण मे चालुक्योंके राज्य मे, ‘विज्ञानेश्वर’ नाम के न्यायाधीश ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखा है। यह भाष्य ‘मिताक्षरा’ नाम से प्रसिद्ध है। इस ‘मिताक्षरा’ ग्रंथ में अन्य विषयों के साथ ही, ‘जन्म के साथ मिलने वाला उत्तराधिकार’ (Inheritance by birth) इस विषय पर विस्तृत विवेचन है।

विज्ञानेश्वर ने लिखे हुए इस ग्रंथ के लगभग 100 वर्षों के बाद, बंगाल के ‘जीमूतवाहन’ इस परिभद्र कुल के व्यक्ति ने ‘दायभाग’ यह ग्रंथ ‘उत्तराधिकार’ इसी विषय पर लिखा।

अगले 800 वर्ष, बृहद बंगाल (आज के बांग्लादेश सहित) और असम प्रांत में, उत्तराधिकारी संबंधित सभी न्याय दान में ‘दायभाग’ यह ग्रंथ प्रमाण माना गया है। लेकिन शेष भारत के उत्तराधिकार संबंधित मामलों में, ‘मिताक्षरा’ इस ग्रंथ के आधार पर न्याय दिया जाने लगा। आगे चलकर पन्द्रहवीं सदी में, चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी रह चुके, बंगाल के ही रघुनंदन भट्टाचार्य ने ‘दायभाग’ पर भाष्य लिखा। कई स्थानों पर यह भाष्य प्रमाण माना जाता था। अंग्रेजों के शासन के प्रारंभिक काल खंड में, न्याय देते समय हिंदू विधि का उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों की पहली सत्ता बंगाल में स्थापन होने के कारण देश का पहला हाई कोर्ट, वर्ष 1862 में कोलकाता में स्थापना हुआ। इस कोलकाता उच्च न्यायालय ने, उत्तराधिकार इस विषय में रघुनंदन भट्टाचार्य के ‘दायभाग’ पर लिखा गया भाष्य प्रमाण माना था।

‘मिताक्षरा’ यह शेष भारत में सर्वमान्य संदर्भ ग्रंथ माना जाता था, लेकिन उसके पांच अलग-अलग प्रकार (variants) थे।
1. काशी      2. मिथिला      3. मद्रास      4. मुंबई       5. पंजाबसन 2005 में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने ‘मिताक्षरा का आज के संदर्भ में महत्व’ इस विषय पर एक दीर्घ लेख लिखा। इसमें वह कहते हैं कि, ‘पचास के दशक में भारतीय संसद ने सब पुराने हिंदू कानून रद्द करके नए कानून तैयार किये। इसलिए दैनंदिन न्याय प्रणाली में मिताक्षरा के संदर्भ समाप्त हुए। फिर भी, भारतीय न्यायालय व्यवस्था समझने के लिए मिताक्षरा आज भी उपयुक्त है।’अर्थात इन स्मृतियाओ॔ का, या उन पर लिखे गए भाष्य का, विचार किया तो साधारणतः ढाई से तीन हजार वर्ष पहले के ग्रंथो से हमें सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था का विस्तृत विवरण मिलता है। यह न्याय व्यवस्था केवल कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा, दायभाग ऐसे ग्रंथो तक सीमित नहीं थी, तो प्रत्यक्ष समाज में इसका उपयोग होता था। इस्लामी आक्रांताओं ने जो विध्वंस किया, उसके कारण हमारे पास पुराने आलेख, पुराने कागजात उपलब्ध नहीं है। लेकिन जो मिले हैं, जो शिलालेख, ताम्रपट मिलते हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि, भारत में एक परिपूर्ण सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था थी। सत्ता किसी की भी हो, राजा कोई भी हो, परंतु धर्मशास्त्र ने दी हुई यह न्याय व्यवस्था सर्वमान्य थी और सबके लिए बंधनकारक थी।

विजयनगर साम्राज्य (वर्ष 1336 -1646) के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य में और आगे चलकर, पेशवा के राज्य में भी, न्याय व्यवस्था अच्छी थी। विजयनगर साम्राज्य की जो पांडुलिपियां मिली है, उनसे उस समय की समाज व्यवस्था, न्याय पद्धति, दंड शासन आदि बातों का स्पष्ट चित्र हमारे सामने आता है। विजयनगर साम्राज्य के आदि गुरु विद्यारण्य अर्थात माधवाचार्य ने पाराशर स्मृति पर ‘प्रसार माधवीय’ ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथ के ‘व्यवहार कांड’ प्रकरण में न्याय व्यवस्था के यम – नियम विस्तार से दिए हैं। मंगलौर के भास्कर आनंद सालटोर की, विजयनगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था के संदर्भ में एक अच्छी पुस्तक उपलब्ध है, – ‘Justice System of Vijaynagara’। इसमें उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के न्याय व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही विजयनगर साम्राज्य में घटित अनेक महत्वपूर्ण न्याय दानों की, अर्थात, कानूनी मामलों के निर्णयोंकी, जानकारी भी दी है।

(क्रमशः)
–   प्रशांत पोळ जाने माने इतिहासविद हैं और भारतीय इतिहास , प्राचीन ज्ञान से लेकर आधुनिक भारत से जुडे़ विषयों पर खोजपूर्ण पूस्तकें लिख चुके हैं) 
(आगामी प्रकाशित ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग २’ के अंश)