Wednesday, April 9, 2025
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भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति ने जगाई आशा और उम्मीदें

दिनांक 9 अप्रेल 2025 को भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की द्विमासिक बैठक में एकमत से निर्णय लेते हुए रेपो दर में 25 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 6.25 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया है एवं इस मौद्रिक नीति में स्टैन्स को स्थिर (स्टेबल) से उदार (अकोमोडेटिव) कर दिया है। इसका आश्य यह है कि आगे आने वाले समय में भारतीय रिजर्व बैंक रेपो दर में वृद्धि नहीं करते हुए इसे या तो स्थिर रखेगा अथवा इसमें कमी की घोषणा करेगा। भारत में मुद्रा स्फीति की दर को नियंत्रित करने में मिली सफलता के चलते भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा यह निर्णय लिया जा सका है।

हाल ही के समय में अमेरिका द्वारा अन्य देशों से आयातित वस्तुओं पर भारी भरकम टैरिफ लगाने की घोषणा की गई है जिससे पूरे विश्व भर के लगभग समस्त देशों के शेयर बाजार में हाहाकार मच गया है एवं शेयर बाजार लगातार नीचे की ओर जा रहे हैं। ऐसे माहौल में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर में कमी करने की घोषणा एक उचित कदम ही कहा जाना चाहिए। वैसे भारत में मुद्रा स्फीति अब नियंत्रण में भी आ चुकी है एवं आगे आने वाले मानसून के दौरान भारत में सामान्य (103 प्रतिशत) बारिश होने का अनुमान लगाया गया है। इस वर्ष रबी के मौसम में गेहूं की बम्पर पैदावार होने का अनुमान लगाया गया है, सब्जियों एवं फलों की कीमत भारतीय बाजारों में कम हुई है, अतः कुल मिलाकर खुदरा महंगाई की दर 4 प्रतिशत से भी नीचे आ गई है।
 भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भी वर्ष 2025-26 में भारत में मुद्रा स्फीति की दर के 4 प्रतिशत के नीचे रहने का अनुमान लगाया गया है। साथ ही, वैश्विक स्तर पर लगातार बदल रहे घटनाक्रम के चलते कच्चे तेल के दाम भी तेजी से घटे हैं और यह 75 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से घटकर 60 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल पर आ गए हैं। भारत के लिए यह बहुत अच्छी खबर है, क्योंकि, इससे विनिर्माण इकाईयों की लाभप्रदता में वृद्धि होगी तथा देश में ईंधन की कीमतें कम होंगी और अंततः मुद्रा स्फीति की दर में और अधिक कमी होगी। भारतीय रिजर्व बैंक के लिए इससे आगामी मौद्रिक नीति के माध्यम से रेपो दर में और अधिक कटौती करना सम्भव एवं आसान होगा।

वैश्विक स्तर पर अमेरिका द्वारा छेड़े गए व्यापार युद्ध का भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक विपरीत प्रभाव पड़ने की सम्भावना नहीं है और भारतीय रिजर्व बैंक के आंकलन के अनुसार वित्तीय वर्ष 2025-26 में भारत की आर्थिक विकास दर 6.5 प्रतिशत रह सकती है और पूर्व में इसके 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था, अर्थात, अमेरिका द्वारा अपने देश में होने वाले आयात पर लगाए गए टैरिफ से भारतीय अर्थव्यवस्था पर केवल 0.2 प्रतिशत का असर होने की सम्भावना व्यक्त की गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था दरअसल निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर भी नहीं है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का केवल लगभग 16-17 प्रतिशत भाग ही अन्य देशों को निर्यात किया जाता है। इसमें से भी अमेरिका को तो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का केवल लगभग 2 प्रतिशत भाग ही निर्यात होता है। अतः ट्रम्प प्रशासन द्वारा विभिन्न देशों पर अलग अलग दर से लगाए गए टैरिफ का भारतीय अर्थव्यवस्था पर नगण्य सा प्रभाव पड़ने की सम्भावना है।

वैश्विक स्तर पर उक्त वर्णित समस्याओं के बीच भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ) ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2028 तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं वर्ष 2025 एवं 2026 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर बनी रहेगी। पिछले 10 वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 100 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। इस वर्ष के अंत तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद का स्तर 4.27 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच जाएगा, जो भारतीय रुपए में लगभग 360 लाख करोड़ रुपए बनता है। वर्ष 2015 से लेकर वर्ष 2024 तक के पिछले 10 वर्षों के समय में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार दुगना हो गया है। वर्ष 2015 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.10 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर (रुपए 180 लाख करोड़) का था और भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में 10वें क्रम पर था। वर्ष 2025 में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार दुगना होकर 4.27 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर रहने का अनुमान लगाया गया है।

पिछले 10 वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्र में कई सुधार कार्यक्रम लागू किए हैं जिससे विशेष रूप से कृषि के क्षेत्र में सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। साथ ही, भारत में आधारभूत संरचना खड़ी करने के लिए केंद्र सरकार के पूंजीगत खर्च में भारी भरकम वृद्धि दर्ज हुई है। देश में विदेशी निवेश का लगातार विस्तार हो रहा है और रोजगार के अवसरों में भी अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है। भारत में विनिर्माण के क्षेत्र में नई इकाईयों की स्थापना को प्रोत्साहन देने के लिए उत्पादन प्रोत्साहन योजना (पी एल आई) लागू की गई है। मुद्रा योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार की गारंटी पर भारतीय बैकों (निजी एवं सरकारी क्षेत्र के बैकों सहित) ने 33 लाख करोड़ रुपए के ऋणों का वितरण किया है।

भारत में अनियमित जलवायु परिस्थितियों के बीच भी  पिछले 10 वर्षों के दौरान कृषि के क्षेत्र में विस्तार हुआ है जिससे किसानों की आय को स्थिर रखने में सफलता मिली है। साथ ही, गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की केंद्र सरकार ने विशेष सरकारी योजनाओं एवं सब्सिडी के माध्यम से बहुत अच्छे स्तर पर सहायता की है। इससे इस श्रेणी के कई परिवार अब मध्यम श्रेणी में आ गए हैं एवं भारत में विभिन्न उत्पादों की मांग की वृद्धि में सहायक बन रहे हैं। देश में लागू किए गए डिजीटलाईजेशन से भी भारत में किए जाने वाले लेनदेन के व्यवहारों में पारदर्शिता आई है और इससे भारत में वस्तु एवं सेवा कर एक उपलब्धि सिद्ध हुआ है। आज भारत में वस्तु एवं सेवा कर के माध्यम से लगभग 2 लाख करोड़ रुपए का अप्रत्यक्ष कर संग्रहित हो रहा है तथा इससे देश में बुनियादी ढांचे को विकसित करने में भरपूर सहायता मिली है।

भारत आज अमेरिका, चीन, जर्मनी एवं जापान के पश्चात विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। पिछले 10 वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था ने लम्बी छलांग लगाते हुए, विश्व में 10वें से आज 5वें स्थान पर आ गई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकलन के अनुसार पिछले 10 वर्षों में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 100 प्रतिशत बढ़ा है तो अमेरिका का 65.8 प्रतिशत, चीन का 75.8 प्रतिशत, जर्मनी का 43.7 प्रतिशत और जापान का केवल 1.3 प्रतिशत बढ़ा है।  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 एवं 2026 में भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की बनी रहेगी, इस प्रकार भारत वर्ष 2026 में जापान को पीछे छोड़ते हुए विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं वर्ष 2028 में जर्मनी को पीछे छोड़कर भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। जर्मनी, जापान एवं भारत के सकल घरेलू उत्पाद में बहुत ही थोड़ा अंतर है। जापान का सकल घरेलू उत्पाद 4.4 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर है, जर्मनी का सकल घरेलू उत्पाद 4.9 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर है, वहीं भारत का सकल घरेलू उत्पाद 4.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर है।

यदि भारत में आगे आने वाले वर्षों में मुद्रा स्फीति पर अंकुश कायम रहता है एवं भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा  आगे आने वाले समय में ब्याज दरों में लगातार कमी की जाती है तो भारत अपनी आर्थिक विकास दर को 6.5 प्रतिशत से भी आगे ले जा सकने में सफल हो सकता है। अतः भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा नीति में स्टैन्स को स्थिर से उदार करने के निहितार्थ हैं।
प्रहलाद सबनानी
सेवानिवृत्त उपमहाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

औरंगजेब के अत्याचारों के आगे नहीं झुके कानाहा रावत

औरंगजेब ने 9 अप्रेल 1669 को फरमान जारी किया- “काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं”. फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया. कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे . और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार.

वीर गौकुल सिंह ने अथक साहस का परिचय देकर पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन में एक विशाल पंचायत बुलाई. इस में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई.

खबर औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को बहीन भेजा. माघ माह शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा. शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला – हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है. यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे. खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।

इतनी बात सुनकर कान्हा रावत वहां से उठे और अपनी निजी बैठक में गया और भाला लेकर वापिस शेरखान पर टूट पडा. गांव के वृद्धों ने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे. इधर शेरखान ने भी अपने साथियों को आदेश दिया कि वे इस छोकरे को शीघ्र काबू करके बंदी बनाएं. कान्हा रावत का उत्साह देखकर उसके युवा साथी भी लाठी, बल्लम आदि शस्त्र लेकर टूट पडे. युवाओं ने उन सैनिको को वहां से भगा कर ही दम लिया.

रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे

हम अपना सनातन धर्म नहीं बदलेंगे.

मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.

कृषि कर अदा नहीं करेंगे.

रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन 1684 में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन आखिर कब तक मुकाबला करते. अनुमानतः 2000 से अधिक वीरगति को प्राप्त हुए थे. कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया.

सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ.

एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था.

दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:

“अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है.

कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत 1738 (1684 इस्वी} को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त धर्म की खातिर बलिदान हो गया.

जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है.

तीर्थंकर महावीर के विचार आज भी प्रासंगिक

श्रमण डॉ पुष्पेन्द्र ने जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक (जयंती) के अवसर पर देशवासियों को शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि भगवान महावीर ने जो शिक्षाएं और संदेश दिया वह आज भी प्रासंगिक हैं। अहिंसा, अपरिग्रह, करुणा और क्षमा के विचार जनमानस की जीवन पद्धति बन गए हैं। महावीर स्वामी ने मानवता को शांति, प्रेम, सौहार्द और बंधुत्व की भावना के साथ जीवन जीने का मार्ग बताया। संपूर्ण विश्व एक है और सभी प्राणी एक ही परिवार के सदस्य हैं। एक का सुख सबका सुख है। एक की पीड़ा सभी की पीड़ा है, उनका यह संदेश आज भी पूरी दुनिया के लिए आदर्श है।

उन्होंने कहा कि आज पूरे विश्व में अशांति फैली हुई है। अनिश्चितता का दौर है, भय का माहौल है। एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना है। अहिंसा, अपरिग्रह, जियो और जीने दो आदि सभी महत्वपूर्ण तीर्थंकर महावीर के सिद्धांत अनेकांतवाद की नींव पर ही टिके हैं। अनेकांतवाद का अर्थ है कि किसी भी एक पक्ष को सही मानकर नहीं चलना वरन सभी के मतों को, सभी के पक्षों को समाहित करते हुए तथ्यों तक पहुंचना। आज सभी समस्याओं की यही जड़ है कि सभी केवल अपनी बात को ही सही मानते हैं, दूसरों के सापेक्ष से उसे नहीं समझते यही दुख का कारण है, अशांति का कारण है। महावीर ने भारत के विचारों को उदारता दी, आचार को पवित्रता दी जिसने इंसान का गौरव बढ़ाया। उसके आदर्श को परमात्मा पद की बुलंदी तक पहुंचाया, जिसने सभी को धर्म और स्वतंत्रता का अधिकारी बनाया और जिसने भारत के आध्यात्मिक संदेश को अन्य देशों तक पहुंचाने की शक्ति दी। यही कारण है कि आज विश्व में तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों की ओर लोगों का ध्यान गया है। जहां अनेकांतवाद के सिद्धांतों का पालन नहीं हो रहा है वहां आतंकवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं। भगवान महावीर ने कहा था कि मूल बात दृष्टि की होती है। हम किस दृष्टि से अपने आसपास समाज में हो रही व्यवस्थाओं व घटनाओं को देखते हैं। उन्होंने बताया कि हम भीतर से अपने को देखें एवं उसकी सापेक्षता में इस जगत को समझें। आज महावीर के सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के लिए महावीरों की आवश्यकता है, प्रयोग वीरों की आवश्यकता है।

औरंगजेब को धूल चटाने वाले राजाराम जाट

ये वो नाम है जिससे आज की तारीख में सबसे ज्यादा नफरत की जा रही है…!
आज के समय में औरंगजेब को महान बोलने वालों के खिलाफ एफआईआर कराई जा रही है साथ ही, औरंगजेब की मौत के 300 साल बाद कब्र पर बुलडोजर चलवाने की बातें हो रही हैं!
औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और धार्मिक कट्टरता को लेकर भारत में विरोध कोई नई बात नहीं है…!
उल्लेखनीय है कि, जाटों ने औरंगजेब के जीवनकाल में ही उसके खिलाफ विद्रोह कर दिया था और उसके दादा (अकबर) की क़ब्र को खोद कर हड्डियों को जला दिया था…!
पूरी घटना इस तरह है कि, राजस्थान के भरतपुर जिले में जाटों ने सन 1668 में औरंगजेब की जजिया कर, धार्मिक कट्टरता और मुगल सेना के अत्याचार के विरोध में विद्रोह कर दिया था! इस विद्रोह का नेतृत्व गांव तिलपत के वीर गोकुला जाट ने किया था। औरंगजेब ने कुछ गद्दार हिन्दुओं की मदद से वीर गोकुला जाट को कैद कर लिया था…! सन 1669 में उसने गोकुला जाट से इस्लाम कबूल करने की शर्त पर उन्हें छोड़ने की बात कही…! मगर, वीर गोकुला जाट ने इस्लाम को झूठ का पुलिंदा और मोहम्मद की मनगढंत बातें कह कर आलमगीर को भी इस्लाम त्याग कर इंसान बनने की सलाह दे दी…!
इसके बाद आगरा की मुगल कोतवाली के पास औरंगेजब ने वीर गोकुला जाट को सरेआम मौत की सजा दे दी…! वीर गोकुला जाट का सिर उनके धड़ से कायरता पूर्वक अलग कर दिया गया…!
वीर गोकुला जाट के अमर बलिदान से जाटों का संगठन विचलित नहीं हुआ बल्कि और मजबूत हो गया…! इस अत्याचार का बदला लेने के लिए सिनसिनी रियासत के राजाराम जाट सबसे आगे आये…! गांव आऊ की मुगल छावनी में आग लगाकर “राजाराम जाट” और “रामकी चाहर” ने छावनी के अधिकारी लालबेग की हत्या करके औरंगजेब के खिलाफ मोर्चा खोल दिया…!
राजाराम जाट और रामकी चाहर की एक छोटी सी फ़ौज ने आगरा, मथुरा और भरतपुर समेत आसपास के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया…! उस समय औरंगजेब दक्खन में था…! जब औरंगजेब को आगरा, मथुरा और भरतपुर के आस पास के क्षेत्रों से टैक्स मिलना बंद हुआ तो उसने जाटों को कुचलने के लिए अपने शहजादे आजम को भेजा…! आजम को राजाराम जाट और रामकी चाहर ने युद्ध के दौरान पीठ दिखा कर भागते हुए पकड़ लिया। और बर्बरता पूर्वक उसकी हत्या कर दी। इस घटना से आहत होकर औरंगजेब ने अपने दूसरे बेटे बीदर बख्त को भेजा।
बीदर बख्त भी राजाराम के शौर्य के आगे टिक नहीं पाया और उसके रक्त से राजाराम जाट की तलवार की प्यास बुझी। राजाराम जाट और रामकी चाहर की सेना ने भारतीय इतिहास में बदला लेने का सबसे अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। 27 फरवरी 1688 को राजाराम जाट और रामकी चाहर ने अपने लड़ाकों की टुकड़ी के साथ आगरा के सिंकदरा पर धावा बोल दिया…! जाट लड़ाकों ने सिकंदरा में स्थित अकबर के मकबरे पर हमला किया… राजाराम और उनकी सेना ने अकबर के मकबरे में केवल तोड़फोड़ ही नहीं की बल्की, अकबर की कब्र खोदकर उसकी हड्डियां भी निकालीं और हड्डियां में आग लगा दी…! ये सब राजाराम जाट और उनकी सेना ने वीर गोकुला जाट की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए किया था…!
अपने दो शहजादों की दर्दनाक मौत और अपने दादा ज़िल्ले शुभानी अकबर की क़ब्र खोद कर उनकी हड्डियों को जाटों द्वारा जलाए जाने से आलमगीर को गहरा सदमा पहुंचा। इस वज़ह से औरंगजेब ने जाटों पर हमले तेज कर दिए और एक युद्ध में चार जुलाई 1688 को राजाराम जाट वीरगति को प्राप्त हुए…! किन्तु जाटों की एकता बनी रही जिसके कारण आलमगीर औरंगजेब को पूरी जिंदगी जाटों से संघर्ष करना पड़ा। 3 मार्च 1707 ईस्वी को औरंगजेब की प्रकृतिक मृत्यु हुई उसके बाद उसकी नीतियों का विरोध उसके पूरे साम्राज्य में शुरू हो गया और इस तरह उसके साम्राज्य का भी अंत हो गया। उसने जिस अल्लाह की इबादत के नाम पर हिन्दुओं पर अनगिनत जुल्म किये थे वो अल्लाह भी उसकी सल्तनत की रक्षा नहीं कर सका…!
साभार- https://www.facebook.com/mediamafia420 से

जयगढ़ दुर्ग : विश्व की सबसे बड़ी जयबाण तोप है आकर्षण का केंद्र

जयपुर-दिल्ली राजमार्ग पर जयपुर से 10 किमी. दूरी पर पहाड़ियों के ऊपर एक पतली पट्टी सी दिखाई देती है। उस पट्टी के बीचों-बीच खड़ी एक मीनार और एक कोने के दो बुर्जे  जयगढ़ के प्रसिद्ध दुर्ग का अहसास कराते हैं। पहाड़ी की जिस चोटी पर यह दुर्ग बना है उसे चिल्ह का टोला कहा जाता है। सड़क से एक चढ़ाई वाला मार्ग दुर्ग के प्रवेश द्वार तक ले जाता है। इस दुर्ग की अनेक विशेषताएं और संरचनाएं बड़ों के साथ – साथ बच्चों को न केवल आश्चर्यचकित करती है बल्कि किले के महत्व को भी बताती हैं। इस दुर्ग को जयपुर के राजा सवाई जयसिंह (1699-1743) ने बनवाया था। दुर्ग की विशेषताओं को देखें तो यह राजस्थान का पहला ऐसा दुर्ग है जहां तोपें बनाने का कारखाना था। आज भी पुरानी लेथ मशीन अपने मूल रूप में सुरक्षित है और तोपों के सांचे और ढलाई की भट्टी भी है। इसे देख कर मध्यकालीन भारत के प्रख्यात विद्वान स्व. प्रो, नुरूल हसन ने इस कारखाने को देखकर कहा था कि सम्पूर्ण एशिया में कोई भी पुराना कारखाना इतनी अच्छी हालत में सुरक्षित नहीं बचा है।  दुर्ग उस समय विश्व स्तरीय तोपों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था।
 जयबाण  विश्व की सबसे बड़ी तोप आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। किले पर पानी के व्यवस्था के लिए बनाए गए तीन विशाल टांके ( जिनमें पानी लंबे समय के लिए इकठ्ठा किया जा सकता है ), शस्त्रागार , संग्रहालय, महलों में विलास, ललित मंदिर, विलास मंदिर  सुभट निवास एवं आराम मंदिर सहित बारूदखाना, मधुसूदन और शीतला माता के मन्दिर बच्चों को खूब रोमांचित करते हैं।
 दुर्ग में प्रवेश करते ही  दाईं तरफ एक रास्ता उस बुर्ज की ओर जाता है जहां एक टीन शेड के नीचे जयबाण तोप सुरक्षित रखी गई है। इस तोप के बारे में प्रमुख जानकारियां एक सूचनापट्ट पर पढ़ी जा सकती हैं। इस तोप का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के समय में सन् 1720 में जयगढ़ किले में ही स्थित तोप निर्माण कारखाने में किया गया था। इस विशाल तोप की नाल की लम्बाई 20 फीट, गोलाई 8 फीट 7.5 इंच तथा वजन 50 टन है। इस तोप से 11 इंच व्यास के गोले दागे जाते थे। इस ताेप को भरने के लिए एक बार में 100 किलोग्राम बारूद की आवश्यकता होती थी। इस तोप की मारक क्षमता 22 मील अर्थात 35.405 किलोमीटर  थी।  तोप के पहियों की ऊँचाई 9 फीट तथा धुरे की मोटाई 1 फीट है। पीछे के पहियों और उनके पास लगी रोलिंग पिन की सहायता से इसे आवश्यकतानुसार किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है। तोप निर्माण के बाद परीक्षण के तौर पर एक बार ही चलायी गई और इसके बाद इसे दुबारा चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। तोप की नाल पर कारीगरों द्वारा कलाकृतियां उकेरी गयी हैं जो दर्शनीय हैं।
जयबाण तोप के पास ही जयगढ़ किले के एक कोने पर किले की दो दीवारें मिलती हैं और इस कोने पर खड़े होकर नीचे देखने पर पहाड़ी के नीचे की घाटी और दूर झील में बना जलमहल  का मनभावन सुंदर दृश्य दिखाई देता है।
 दुर्ग के जलेब चौक गेट से पहले बाईं तरफ  पुराने जमाने के जल संग्रह करने वाले टांके बने हैं जिनमें किले में निवास करने लोगों की आवश्यकता पूर्ति हेतु जल का इकठ्ठा किया जाता था। पानी को एकत्रित करने वाले ये टांके बहुत ही रोमांच पैदा करते हैं । यहाँ तीन टांकों  में सबसे बड़ा टांका ढका हुआ है। इस टांके का पानी किले में पीने के लिए काम में लिया  जाता था। इस टांके की लम्बाई 158 फीट, चौड़ाई 138 फीट तथा गहराई 40 फीट है।  इसकी दीवारों में हवा आने के लिए खिड़कियां बनी हुई हैं। टांके की जल भराव क्षमता 60 लाख गैलन है। टांके में 81 खम्भे बने हुए हैं जिन पर इसकी छत टिकी हुई है।
इस टांके के पीछे दायीं ओर एक छोटा टांका है जो 69 फीट लम्बा ,52 फीट चौड़ा तथा 52 फीट गहरा है। इसकी छत में नौ सूराख हैं और प्रत्येक सूराख के नीचे एक कमरा है। इन्हीं कमरों में सवाई जयसिंह के शासन के पूर्व तक शाही खजाना रखा जाता था। सवाई जयसिंह द्वारा 1728 में इस खजाने से धन निकालकर जयपुर शहर बसाया गया। इसी टांके के बराबर में तीसरा टांका है जो 61 फीट लम्बा,52 फीट चौड़ा तथा 27 फीट गहरा है। इस टांके का पानी नहाने व कपड़ा धोने के काम आता था। ये टांके  संभवतः इस किले के सर्वाधिक रहस्यमय स्थल रहे होंगे। माना जाता है इनके कमरों में खजाना रखा जाता था।
 जलेब चौंक से आगे बायीं तरफ जयगढ़ का शस्त्रागार है। शस्त्रागार में जयपुर के कुछ लोकप्रिय महाराजाओं की तस्वीरों के साथ कई प्रकार की बंदूकें, तलवारें, कवच और कलात्मक और विभिन्न आकृतियों के छोटी –  छोटी तोपों के नमूने तथा 50 किलो की तोप का गोला देखना बहुत ही दिलचस्प लगता है। इसी के सामने चौंक के दूसरी ओर एक संग्रहालय में राजघरानों की कई तस्वीरें और पेंटिंग, प्राचीन कलाकृतियाँ, ताश के पत्तों का एक गोलाकार पैक और महलों और किले की हाथ से बनाई गई योजना आदि वस्तुएं भी खूब लुभाती हैं।
दुर्ग में सुभट निवास वह जगह थी जहाँ योद्धा मिल–बैठ कर आपसी चर्चाएं करते थे। कुछ गलियां और मोड़ पार करने के बाद लक्ष्‍मी विलास  राजाओं का निवास हुआ करता था। इसे अच्छे तरीके से सजा कर रखा गया है। इसके बाद कई कमरों और गलियों से गुजरना पड़ता है।  एक हॉल में कठपुतलियों का प्रदर्शन मोहक होता है। राजघराने की भोजनशाला दर्शनीय है। भोजनशाला में कई बड़े कमरों में तत्कालीन समय की भोजन सम्बन्धी तैयारियों और रीति–रिवाजों को मॉडलों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो काफी सुंदर व रोचक लगते हैं।  एक गैलरी में मिर्जा राजा जयसिंह को उनके सरदारों के साथ भोजन करते दिखाया गया है जो पारम्परिक वेशभूषा में हैं। दुर्ग के पीछे के भाग में  दो कोनों पर दाे बुर्जियां बनी हुई हैं जिन्हें आपसमें और साथ ही किले से जोड़ने के लिए,बिना छत की गैलरियां बनी हुई हैं। इन बुर्जियों पर नीचे की घाटी और आमेर महल का नजारा बड़ा ही सुंदर नजर आता है। दुर्ग में कई उद्यान भी बनाए गए हैं। किले में कई फिल्मों की शूटिंग भी की जा चुकी हैं। किले में अल्पाहार की कुछ दुकानें भी हैं।
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डॉ. प्रभात कुमार सिंघल,
लेखक एवं पत्रकार

कोई झूठ को सच का आईना तो दिखाए

साहित्य को आज भी ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के पर्याय रूप में ही देखा जाता है। समय का सत्य, समाज का शिव और प्रकृति का सुन्दर ही इसकी विचारधारा है। हजारों वर्ष से शब्दों की यह महाभारत युद्ध और शांति के बीच जारी है। विकास के नए सोपान इसे ऊर्जा देते हैं और मनुष्य के नए संधान इसे प्रासंगिक बनाते हैं।

यह साहित्य मनुष्य के द्वारा ही मनुष्य के लिए समाज और समय के बीच खड़ा रहता है। राजा और प्रजा के बीच,  प्रकृति और मनुष्य के साथ,  सूर्य और धूप के मध्य तथा जीवन और जगत के आमने-सामने यह साहित्य ही होता है। मनुष्य क्या सोचता है, मनुष्य क्यों सोचता है और मनुष्य किसके लिए सोचता है जैसी सभी जिज्ञासाएं इस साहित्य में ही निवास करती हैं। नाद ब्रह्म की तरह यह शब्द ब्रह्म मनुष्य के चेतन-अवचेतन का पर्याय है। वेद और पुराण की ऋचाएं, वाल्मीकि और महर्षी वेदव्यास की वाणी इसी का अनहदनाद है। इसका उद्गम मनुष्य का हृदय है और इसकी यात्रा समय का ओर-छोर है तो प्रतिफलन स्मृतियों का भाष्य है।
साहित्य का यह प्रवाह मनुष्य के बिना कुछ भी नहीं है। यह संविधानों का संविधान है और जिजीविषा का महाघमासान है। इसे कभी कालिदास गाते हैं तो कभी कबीरदास सुनाते हैं। इसे दर्शन में ढूंढा जाता है तो कभी अरविन्द और विवेकानन्द के इतिहास में पढ़ा जाता है। सूरदास और तुलसीदास भी साहित्य में मनुष्य के समय की नील जल सोई परछाइयों की तरह हैं। साहित्य वाणी को अर्थ देता है, ज्ञान को सामर्थ्य प्रदान करता है और अंधकार में प्रकाश का परिचालक बन जाता है।
यह साहित्य केवल शब्दों की जोड़नी भी नहीं है और न ही इसे समय का प्रलाप कहा जा सकता है। यह तो मनुष्य के मन और विचार का, विवेक और विस्तार का, आधार और व्यवहार का ऐसा नीर-क्षीर विवेचन है जिसे दादी कहती है और पोते सुनते हैं। साहित्य की अवधारणा मनुष्य मन की स्वायत्ता में जीवित है तथा इसे आचार्यों और प्राचार्यों की व्याख्याओं से बांधा नहीं जा सकता। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम साहित्य की सीमाएं तय नहीं कर सकते और मीडिया भी इसके प्रभाव को धूमिल नहीं बना सकता। परिवर्तन के सभी प्रभाव और दबाव साहित्य में भी ज्वार भाटा की तरह बोलते हैं तथा साहित्य इसीलिए मनुष्य और समय के बीच चेतन और अवचेतन तक मुखरित रहता है।
यह साहित्य क्या है और क्यों है तथा इसकी सार्थकता कौन तय करता है। इस तरह के प्रश्नों से कुछ बाहर निकलकर देखें तो हमें यह भी मालूम होगा कि साहित्य का उद्देश्य और अवधारणाएं भी निरन्तर बदलती रहती हैं। साहित्य कोई जड़ पदार्थ नहीं है तथा साहित्य में भी अंतिम सत्य का प्रादुर्भाव मनुष्य के मन की दिशाओं में लगातार बदलता रहता है। यह साहित्य मनुष्य के जीवन संसार का ही एक विस्तार है। छंद, सवैया, गीत, नवगीत, कविता, नई कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, आत्म-कथा, निबंध, रिपोर्ताज, नाटक, विधाएं इस साहित्य के सृजनघाट है जहां विचार और कल्पना विवेक और यथार्थ के कपड़े उतार कर नहाती हैं।
शेक्सपियर, मेक्सिम गोर्की, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पाब्लोनरुदा, नाजिम हिकमत, प्रेमचंद और फैज अहमद फैज जैसे सैकड़ों शब्द पुरुष इस साहित्य के सहयात्री हैं। परम्परा, सभ्यता और संस्कृति की सभी त्रिवेणियां इस संगम में समाहित है। यह साहित्य इतना निर्मम है और इतना निर्मल भी है कि कहीं यह महाभारत बन जाता है तो कहीं यह रामायण की चौपाइयों में बिखर जाता है। कहीं यह उपमा बनकर याद आता है तो कहीं यह अतिशयोक्ति के भेष में मिलता है। यह रस सिद्धांत भी है तो यह विचार का व्यावहारिक रूपांतरण भी है।
इस साहित्य को लेकर समय और इतिहास की चिंताएं भी हमने देखी हैं तो सुकरात, अरस्तु, गैलीलियो और आइंस्टीन के सत्य से साक्षात्कार भी हमें विरासत में मिले हैं। मनुष्य के मनोविज्ञान और पराज्ञान को जानने और उसका समानीकरण तय करने का एकमात्र पैमाना साहित्य ही है। यह साहित्य दुनिया की हजारों भाषाओं और बोलियों में प्रवास करता है, और यह साहित्य ही शब्द के रथ पर बैठाकर स्मृति के गर्भ में दुबक जाता है। यह जरूरी नहीं है कि लिखा जाय वही साहित्य है और यह भी सम्पूर्ण नहीं है कि बोला जाय वही साहित्य है, बल्कि साहित्य तो काल की तरह ऐसा अजर-अमर तत्व है जो चिंतन और मीमांसा के बीच और अद्धैत के सानिध्य में, भ्रम और यथार्थ के पास-पड़ौस में तथा इच्छा और आकांक्षाओं के सहवर्ती के रूप में हमें रोज जागते हुए भी और सोते समय सपनों में भी मिलता रहता है।
साहित्य इसीलिए समय और समाज की चौखट है तथा ज्ञान और विज्ञान ही इसकी खिड़कियां हैं। इसके गर्भगृह में कोई राम और रहीम नहीं रहता वरन् एकमात्र मनुष्य रहता है। यह मनुष्य न जो पूरब-पश्चिम में बंटा हुआ है और न ही इसे योग और भोग की तरह विभाजित किया जा सकता है। आदिम कबीलाई जीवन से लेकर अब मंगलग्रह की यात्रा तक के इसके सभी सरोकार केवल साहित्य, संगीत और कला के मेहंदी मांडणों में ही सुने जा सकते हैं। यह साहित्य ही बताता है कि सत्य का किस तरह लोकगमन हुआ और शब्द ने किस तरह बहेलिया बनकर क्रोंच पक्षी का वध किया। हम अक्सर कभी होमर, दांते, मार्क्स और एंजिल्स में साहित्य को ढूंढते हैं तो कभी शब्दों की चिताओं पर लग रहे मेलों में खोजते हैं जो शब्द की सत्यवेदी पर कुर्बान हो गए। राजपाट छोड़कर जो भर्तृहरि बन गए, घर-संसार छोड़कर सिद्धार्थ हो गए या फिर महावीर की तरह दिगम्बर में साकार हो गए। ईसा की तरह सूली पर लटक गए, महात्मा गांधी की तरह गोली खाकर है राम! में समा गए, मार्टिन लूथर किंग की तरह काले-गोरों का गीत बन गए अथवा मीरां बाई की तरह जहर का प्याला पीकर भी प्रेम की दीवानगी पर चलते रहे। इस सबके पीछे से कहीं मनुष्य की स्वतंत्रता, सह अस्तित्व और विकास की बहस ही सुनाई पड़ रही थी क्योंकि सत्य तो वही है जो देखा, सुना और समझा नहीं गया है साहित्य वही है जो अब तक खोजा नहीं गया है, मनुष्य वही है जो अब तक रचा नहीं गया है। शब्द वही है जो अब तक वर्णमाला से बाहर है तथा वाणी और स्मृति वही है जिसे हम आज तक किसी सुरताल में बांध नहीं पाए हैं।
साहित्य की यह सरस्वती सभी देशों में बहती है। कोई भी पूंजी और सामाजिक व्यवस्था इसके टुकड़े नहीं कर सकती। कोई भी शासन और तंत्र इसका गला नहीं घोट सकता। यह एक ऐसी आवाज है जो जितनी अधिक बंद की जाती है उतनी ही अधिक गूंजती है। लोक से लोकोत्तर बन जाती है और जंगल में मंगल की तरह, छवियों में आयाम की तरह, चेतना में उमर खैयाम की तरह, खेतों में बसंती परिधान की तरह, सत्ता और व्यवस्था के रू-ब-रू सम्मान की तरह, संवेदनाओं के उफान की तरह, सैनिक के प्रयाण की तरह, ऋषिपुत्रों के अभियान की तरह, सरोकार के धनुषबाण की तरह, नीति और सार के आख्यान की तरह, प्रकृति और मनुष्य के बीच सुगंध की तरह रम जाती है। साहित्य इसीलिए भक्ति, शक्ति और प्रेम की त्रिवेणी है, योग से भोग तक का सफर है तो मनुष्य और समाज की बदलती सभ्यताओं और संस्कृतियों का गवाक्ष है। यह साहित्य ही है जहां चेतना को काम, क्रोध, मद, लोभ और माया के दैत्य नहीं सताते और यह शब्द पुत्र ही है जो कालातीत और कालजयी रहता है।
हमारे देश में साहित्य और संस्कृति को एक दूसरे का परक पूरक माना गया है। दर्शन और चिंतन परम्परा का अनवरत यज्ञ कहा गया है तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं की तरह मनुष्य मन की लीलाओं का वृन्दावन भी समझा गया है। वीर गाथाकाल से लेकर आधुनिक काल तक जो कुछ लिखा-सुना गया केवल वही साहित्य नहीं है अपितु शब्द और साहित्य तो मनुष्य की प्रागैतिहासिक संरचना को समझने का भी पहला सूत्र है।
यह साहित्य संत, सती और सूरमाओं का ही खेल मैदान नहीं है, यह साहित्य किसी महाजनी सभ्यता का प्रस्थान भी नहीं है, यह साहित्य किसी आदि विद्रोही का जयगान भी नहीं है और यह साहित्य नौसिखिये शब्द जीवियों का मचान भी नहीं है। यह चिंतन और मनन का एक ऐसा गंभीर लोकाचरण है जिसकी इतिश्री एक मनुष्य के लिए नहीं होकर सदैव लोकमंगल में ही समाहित, संयोजित और विकसित होती है।
साहित्य में जहां मनुष्य और उसके समय का दिग्दर्शन होता है, वहां साहित्य में मन, वचन और कर्म की परछाईयों का भी दूध का दूध और पानी का पानी किया जाता है। समय के प्रभाव से साहित्य के स्वर भी बदलते हैं तथा सरोकार भी नया रूप और अवधारणाएं ग्रहण करते हैं, लेकिन साहित्य को समझना, देखना और परिभाषित करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इस साहित्य में सामाजिक न्याय तो है पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है। यहां स्वायत्तता तो है लेकिन सामाजिक सरोकार भी छोड़े नहीं जा सकते। यह एक साहित्य ही है जिसमें मनुष्य विरोधी और जनकल्याण के खिलाफ चलने या चलाने की पूरी रोक है।
हम साहित्य की इसी चौखट से मनुष्य, समाज और समय की सभी छोटी-बड़ी दस्तक को सुनेंगे। कुछ उनकी तो कुछ अपनी कहेंगे। कभी उनकी करवट को तो कभी अपनी करवट से बात करेंगे। हमारी चिंता बाजार की नहीं होगी अपितु एक शाश्वत मानवीय कल्याण और सृजन की होगी। सभी वाद-विवाद जारी रहेंगे और प्रतियोगिताएं भी चलेंगी लेकिन समय का सत्य ही हमारा निर्णायक मंडल रहेगा। अगली बार से यह ‘उल्लेखनीय‘ देश-देशांतर में ही नहीं अपितु वन-प्रान्तर में भी जाएगा। गद्य-पद्य के सभी उदाहरण लाएगा तथा साहित्य के समस्त सृजनात्मक सरोकारों की जाजम भी बिछाएगा। तेरी मेरी इस कहानी को पढ़ते रहिए, क्योंकि सृजन अभी और भी है।
(लेखक साहित्य मनीषी एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

सूर्य सिध्दांत ने खगोल शास्त्र और ज्योतिष के अध्ययन को एक नई पहचान दी

सूर्य सिद्धांत भारतीय खगोलशास्त्र का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे चौथी या पांचवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास लिखा गया माना जाता है, हालांकि कुछ विद्वान इसे और पुराना मानते हैं। यह संस्कृत में लिखा गया है और इसमें 14 अध्यायों में लगभग 500 श्लोक हैं। इस ग्रंथ में ग्रहों की गति, सौरमंडल की संरचना, समय की गणना, त्रिकोणमिति और खगोलीय घटनाओं जैसे सूर्य और चंद्र ग्रहण की गणना के तरीके बताए गए हैं। इसका नाम “सूर्य सिद्धांत” इसलिए है क्योंकि यह सूर्य को केंद्र में रखकर खगोलीय गणनाओं को समझाता है।

अल बेरुनी ने लिखा है कि सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रन्थ की रचना लटदेव ने की थी जो आर्यभट के शिष्य थे।

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका अनुमानित रचनाकाल चतुर्थ या पंचम शताब्दी ई० है। वर्तमान समय में जो सूर्यसिद्धान्त उपलब्ध है, वह १५वीं शताब्दी में ताड़पत्र पर लिखित पाण्डुलिपि तथा उससे भी नयी पाण्डुलिपियों पर आधारित ग्रन्थ है जिसमें १४ अध्याय हैं। इसमें ग्रहों एवं चन्द्रमा की गति की गणना की विधि, विभिन्न ग्रहों के ब्यास, तथा विभिन्न खगोलीय पिण्डों कक्षा (ऑर्बिट) की गणना करने की विधियाँ दी गयीं हैं।

सूर्यसिद्धान्त के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में श्लोक-१ से लेकर श्लोक-१० तक आख्यान शैली में काल के आधारभूत सूर्य का महत्त्व बताते हुए सूर्य को प्रत्यक्ष देवता कहा गया है (यानी वह देवता जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं)। कथा कुछ यों है- मय ने सूर्य की आराधना की । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे कालगणना का विद्वान होने का वरदान दिया था। मय उनसे कोई शक्ति प्राप्त नहीं करना चाहता था, वह केवल उनसे कालगणना और ज्योतिष के रहस्यों का जानना चाहता था । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य ने उसकी इच्छा पूरी की। लेकिन सूर्य कहीं ठहर नहीं सकते, सो उन्होंने अपने शरीर से एक और पुरुष की उत्पत्ति की और उसे आदेश दिया कि वो मय दानव को कालगणना और ज्योतिष के सारे रहस्यों को समझाए । सूर्य के प्रतिरूप से मिली शिक्षा के बाद मय दानव ने स्वयं भी ज्योतिष और वास्तु के कई सिद्धांत दिए जो आज भी प्रामाणिक हैं। सूर्य के प्रतिपुरुष और मयासुर के बीच की बातचीत को ही सूर्यसिद्धान्त का नाम दिया गया।

इस ग्रंथ की शुरुआत में कहा गया है कि इसे मय नामक एक विद्वान को सूर्यदेव ने स्वयं प्रकट होकर बताया था। यह एक पौराणिक कथा है, लेकिन यह दर्शाता है कि प्राचीन भारतीयों के लिए सूर्य न केवल एक ग्रह था, बल्कि ज्ञान और शक्ति का प्रतीक भी था। सूर्य सिद्धांत का उद्देश्य खगोलीय घटनाओं को समझना और उनका उपयोग समय मापन, कैलेंडर निर्माण और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए करना था।

सूर्य सिद्धांत में कई महत्वपूर्ण खगोलीय अवधारणाएँ हैं। यह पृथ्वी को एक गोलाकार पिंड मानता है और इसकी परिधि का अनुमान लगाता है, जो आधुनिक माप से बहुत करीब है। इसमें सूर्य से ग्रहों की दूरी, उनके व्यास और उनकी कक्षा का वर्णन है। उदाहरण के लिए, यह बताता है कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर नहीं घूमती, बल्कि सूर्य और अन्य ग्रह पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। यह भू-केंद्रित मॉडल है, जो उस समय की मान्यता थी। हालांकि यह आधुनिक सूर्य-केंद्रित मॉडल से मेल नहीं खाता, फिर भी इसकी गणनाएँ आश्चर्यजनक रूप से सटीक थीं।

इस ग्रंथ में समय की गणना का भी विस्तृत वर्णन है। यह दिन, मास, वर्ष और युग जैसे बड़े समय चक्रों को परिभाषित करता है। इसमें चतुर्युग की अवधारणा है, जिसमें चार युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) का कुल समय 43 लाख 20 हजार वर्ष बताया गया है। यह गणना भारतीय दर्शन और खगोलशास्त्र का मिश्रण है। इसके अलावा, सूर्य सिद्धांत में नक्षत्रों की स्थिति और उनकी गति का भी उल्लेख है, जो ज्योतिष और खगोलशास्त्र दोनों के लिए उपयोगी था।

सूर्य सिद्धांत की एक खास बात इसकी गणितीय तकनीकें हैं। इसमें ज्या, जो आज की sine फंक्शन है, और कोटिज्या, जो cosine के समान है, का प्रयोग किया गया है। यह त्रिकोणमिति के शुरुआती रूप को दर्शाता है। ग्रहों की स्थिति की गणना के लिए इसमें कोणों और चापों का उपयोग बताया गया है। ये तकनीकें बाद में अरब विद्वानों के माध्यम से यूरोप तक पहुँचीं और आधुनिक गणित के विकास में योगदान दिया।

सूर्य सिद्धांत का प्रभाव प्राचीन भारत में बहुत गहरा था। आर्यभट्ट जैसे खगोलशास्त्रियों ने इसके विचारों को अपनाया और आगे बढ़ाया। वाराहमिहिर ने इसे अपने ग्रंथ पंचसिद्धांतिका में शामिल किया। भास्कराचार्य ने सिद्धांत शिरोमणि में इसकी गणनाओं को और परिष्कृत किया। मध्यकाल में कई विद्वानों ने इस पर टीकाएँ लिखीं, जैसे रंगनाथ की गूढ़ प्रकाश टीका, जिसमें इसे आधुनिक संदर्भ में समझाने की कोशिश की गई।

यूरोपीय विद्वानों ने भी सूर्य सिद्धांत का अध्ययन किया। 19वीं शताब्दी में जॉन बेंटले और एबेनेजर बर्गेस ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया। बर्गेस का अनुवाद 1860 में प्रकाशित हुआ और इसे विलियम व्हिटनी ने संपादित किया। इन अनुवादों ने पश्चिमी दुनिया को भारतीय खगोलशास्त्र की गहराई से परिचित कराया। आधुनिक समय में वैज्ञानिकों ने इसकी गणनाओं को कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर की मदद से जाँचा है। उन्होंने पाया कि सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणियाँ आज की तकनीक से बहुत हद तक मेल खाती हैं।

आज यह ग्रंथ भारत की वैज्ञानिक विरासत का हिस्सा माना जाता है। इसे यूनेस्को जैसे संगठनों ने भी मान्यता दी है। शोधकर्ता अब भी इसके गणित, खगोलशास्त्र और दर्शन को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

यह ग्रंथ न केवल विज्ञान का दस्तावेज है, बल्कि भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का भी प्रतीक है। यह दिखाता है कि प्राचीन भारत में खगोलशास्त्र और गणित कितने उन्नत थे।

स्वामी विज्ञानानंद की पुस्तक ‘द हिन्दू मेनिफेस्टो’ का लोकार्पण 26 अप्रैल को मोहन भागवत करेंगे

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत 26 अप्रैल को नई दिल्ली में स्वामी विज्ञानानंद द्वारा लिखित बहुप्रतीक्षित पुस्तक ‘द हिन्दू मेनिफेस्टो’ का औपचारिक विमोचन करेंगे। यह पुस्तक न केवल एक बौद्धिक दस्तावेज है, बल्कि इसे हिंदू सभ्यता के नवजागरण का खाका भी माना जा रहा है।

‘द हिन्दू मेनिफेस्टो’ को लेखक ने वेद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र और शुक्रनीतिसार जैसे ग्रंथों से प्रेरणा लेकर तैयार किया है। इसका उद्देश्य एक ऐसा सामाजिक मॉडल प्रस्तुत करना है जो न्यायसंगत, समृद्ध और समरस समाज की स्थापना में सहायक हो।

पुस्तक में वर्णित आठ ‘सूत्र’ को लेखक ने एक मजबूत राष्ट्र और समाज की आधारशिला बताया है। पहले चार सूत्रों में आर्थिक समृद्धि, राष्ट्रीय सुरक्षा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और उत्तरदायी लोकतंत्र पर बल दिया गया है, जबकि शेष चार सूत्र संस्कृति और अध्यात्म से जुड़े हैं — महिलाओं के सम्मान, सामाजिक समरसता, पर्यावरणीय संतुलन और मातृभूमि के प्रति भक्ति को केन्द्र में रखते हैं।

पुस्तक में रामराज्य की आदर्श शासन व्यवस्था को प्रेरणा मानते हुए नैतिक प्रशासन, समान विकास, और नारी सशक्तिकरण की बात की गई है। साथ ही प्रकृति को पूजनीय मानते हुए पर्यावरण संरक्षण का आह्वान किया गया है।

स्वामी विज्ञानानंद ने समाज में वर्ण और जाति जैसी अवधारणाओं को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करने और समावेशिता को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता जताई है। उनका मानना है कि हिंदू दर्शन में सामाजिक एकता और वैश्विक कल्याण की गहन शक्ति निहित है, जिसे फिर से जाग्रत करने की जरूरत है।

स्वामी विज्ञानानंद न केवल एक सन्यासी हैं, बल्कि वे विश्व हिन्दू कांग्रेस और विश्व हिन्दू आर्थिक मंच जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों के माध्यम से हिंदू मूल्यों और वैश्विक नेटवर्किंग को नई दिशा दे रहे हैं। इस पुस्तक के माध्यम से वे प्राचीन ज्ञान और आधुनिक शासन व्यवस्था का संगम प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘द हिन्दू मेनिफेस्टो’ उन नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं, आध्यात्मिक गुरुओं और युवाओं के लिए विशेष महत्व रखती है जो हिंदू दृष्टिकोण से प्रेरित राष्ट्रीय पुनर्जागरण में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं।

संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा इस पुस्तक का विमोचन यह दर्शाता है कि ‘द हिन्दू मेनिफेस्टो’ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि संस्कृति और राष्ट्र निर्माण को लेकर एक वैचारिक आंदोलन की शुरुआत है। ऐसे समय में जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी पहचान को लेकर सजग है, यह पुस्तक हिंदू सभ्यता की पुनर्स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है।

एकादशी के व्रत का खगोलीय महत्व

एकादशी के व्रत का खगोलीय महत्व भारतीय ज्योतिष और वैदिक परंपरा से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह व्रत हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार हर माह की शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल पक्ष) और कृष्ण पक्ष (अंधेरे पक्ष) की ग्यारहवीं तिथि को मनाया जाता है। इसके पीछे खगोलीय घटनाओं और मानव शरीर पर उनके प्रभाव का सूक्ष्म संबंध माना जाता है। आइए इसे विस्तार से समझें:

एकादशी चंद्र मास की 11वीं तिथि होती है, जो चंद्रमा के बढ़ते (शुक्ल पक्ष) और घटते (कृष्ण पक्ष) चरणों में आती है। इस समय चंद्रमा पृथ्वी के सापेक्ष एक विशिष्ट कोण पर होता है, जो ज्वार-भाटा और प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित करता है।  – खगोलीय दृष्टि से, चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण मानव शरीर में जल तत्व (जो शरीर का लगभग 70% हिस्सा है) पर सूक्ष्म प्रभाव डालता है। एकादशी के दिन यह प्रभाव अपने चरम पर होता है, क्योंकि चंद्रमा पूर्णिमा (15वीं तिथि) या अमावस्या (30वीं तिथि) से ठीक चार दिन पहले होता है।

– वैदिक ज्योतिष में सूर्य और चंद्रमा को दो प्रमुख ग्रह माना जाता है। सूर्य आत्मा और ऊर्जा का प्रतीक है, जबकि चंद्रमा मन और भावनाओं का। एकादशी के दिन चंद्रमा की स्थिति ऐसी होती है कि यह मन पर विशेष प्रभाव डालती है।  – इस दिन सूर्य और चंद्रमा के बीच का कोणीय संबंध (लगभग 120 से 150 डिग्री) मानसिक और शारीरिक ऊर्जा में संतुलन बनाता है। व्रत के माध्यम से भोजन और पानी का त्याग इस संतुलन को और बढ़ाने में मदद करता है।

– खगोलीय गणनाओं के अनुसार, एकादशी के आसपास पृथ्वी की चुंबकीय क्षेत्र और सौर विकिरण (सोलर रेडिएशन) में सूक्ष्म बदलाव होते हैं। ये बदलाव मानव शरीर के पाचन तंत्र और तंत्रिका तंत्र पर असर डालते हैं।  – इस दिन उपवास करने से शरीर को इन खगोलीय प्रभावों से सामंजस्य बिठाने का मौका मिलता है, क्योंकि पाचन पर कम जोर पड़ता है और ऊर्जा आत्म-चिंतन या आध्यात्मिक कार्यों में लगती है।

– वैज्ञानिक दृष्टि से, चंद्र चक्र का मानव शरीर की जैविक घड़ी (circadian rhythm) पर प्रभाव पड़ता है। एकादशी के दिन चंद्रमा की स्थिति के कारण शरीर में जल और वायु तत्वों का दबाव बढ़ता है, जिससे पाचन धीमा हो सकता है। उपवास इस प्रभाव को संतुलित करता है।  – आयुर्वेद के अनुसार, एकादशी पर हल्का भोजन या उपवास करने से शरीर के दोष (वात, पित्त, कफ) संतुलित रहते हैं, जो चंद्र चक्र से प्रभावित होते हैं।

– ज्योतिष में एकादशी को भगवान विष्णु से जोड़ा जाता है, जो संरक्षण और संतुलन के देवता हैं। इस दिन ग्रहों की स्थिति को ध्यान और भक्ति के लिए शुभ माना जाता है। चंद्रमा की यह अवस्था मन को शांत और एकाग्र करने में सहायक होती है। – कुछ विद्वानों का मानना है कि एकादशी के दिन ग्रहों और नक्षत्रों की ऊर्जा आत्मा को भौतिक बंधनों से मुक्त करने में मदद करती है, जो व्रत के आध्यात्मिक लक्ष्य से मेल खाती है।

पद्म पुराण और विष्णु पुराण में एकादशी व्रत को “हरि वासर” (विष्णु का दिन) कहा गया है। यह माना जाता है कि इस दिन की खगोलीय ऊर्जा विष्णु की शक्ति से संनादति है।
महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को एकादशी के महत्व के बारे में बताया, जिसमें इसके शारीरिक और आध्यात्मिक लाभों का उल्लेख है।

एकादशी का खगोलीय महत्व चंद्र चक्र, ग्रहों की स्थिति और पृथ्वी की प्राकृतिक लय से जुड़ा है। यह दिन मानव शरीर और मन को ब्रह्मांड के साथ तालमेल में लाने का अवसर प्रदान करता है। उपवास के जरिए शरीर को विश्राम और मन को शुद्धि मिलती है, जो खगोलीय प्रभावों को संतुलित करने में सहायक है। यह वैदिक विज्ञान और आध्यात्मिकता का एक सुंदर संगम है।

भाई चारा वालों ने ईरान से पारसियों को कैसे भगाया ?

पारसियों का इतिहास प्राचीन फारस (आधुनिक ईरान) से शुरू होता है, जहाँ वे जोरोस्ट्रियन धर्म के अनुयायी थे। यह धर्म, जिसकी स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र (ज़ोरोस्टर) ने लगभग 1500-1200 ईसा पूर्व की थी, एक समय फारस का प्रमुख धर्म था, खासकर अकेमेनिद और सासानी साम्राज्यों के दौरान। जोरोस्ट्रियन धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित था, जिसमें अहुरा मज़्दा को सर्वोच्च ईश्वर माना जाता था और अग्नि पूजा इसका महत्वपूर्ण हिस्सा थी।

7वीं शताब्दी में अरबों के इस्लामी आक्रमण ने फारस के इतिहास को बदल दिया। 636 ईस्वी में कादिसिया के युद्ध और 642 ईस्वी में नहावंद के युद्ध में सासानी साम्राज्य की हार के बाद, इस्लाम ने फारस पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। नए मुस्लिम शासकों ने जोरोस्ट्रियनों पर कठोर नीतियाँ लागू कीं। इनमें शामिल था:
जजिया कर: गैर-मुस्लिमों पर लगाया जाने वाला विशेष कर, जो उनकी आर्थिक स्थिति को कमजोर करता था।
धर्मांतरण का दबाव: जोरोस्ट्रियनों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया। मना करने वालों को उत्पीड़न, संपत्ति जब्ती, या मृत्युदंड का सामना करना पड़ा।
सांस्कृतिक दमन: जोरोस्ट्रियन मंदिरों और अग्नि स्थलों को नष्ट किया गया, और उनकी धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाया गया।

इस उत्पीड़न के कारण कई जोरोस्ट्रियन अपने धर्म और जान बचाने के लिए फारस छोड़कर भाग गए। “किस्सा-ए-संजान” नामक पारसी ग्रंथ में वर्णित है कि कैसे एक समूह ने अपनी मातृभूमि छोड़ी। यह ग्रंथ, जो 16वीं शताब्दी में पारसी पुजारी बहमन के कोबाद संजाना द्वारा लिखा गया, इस ऐतिहासिक पलायन का प्राथमिक स्रोत है। इसमें बताया गया है कि इस्लामी शासन के तहत पारसियों को अपनी पहचान और आस्था को बनाए रखना असंभव हो गया था।

पारसियों का इतिहास क्या है?
पारसी समुदाय जोरोस्ट्रियन धर्म से जुड़ा है, जिसे विश्व के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक माना जाता है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन आर्य (ईरानी) संस्कृति से हुई, जो वैदिक धर्म से भी कुछ समानताएँ रखती है। जोरोस्ट्रियन धर्म में अच्छाई (अहुरा मज़्दा) और बुराई (अंग्रा मैन्यू) के बीच संघर्ष पर जोर दिया जाता है। यह धर्म सासानी काल (224-651 ईस्वी) तक फारस में फला-फूला, लेकिन इस्लामी विजय के बाद इसका पतन शुरू हुआ।

फारस में इस्लामी शासन के बाद, जोरोस्ट्रियनों की संख्या तेजी से घटी। जो इस्लाम में परिवर्तित नहीं हुए, वे या तो मारे गए या देश छोड़कर भाग गए। आज ईरान में उनकी आबादी बेहद कम (लगभग 25,000) रह गई है, जबकि एक समय यह वहाँ का राज्य धर्म था। भागने वालों में से एक समूह भारत की ओर बढ़ा, जो आगे के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

पारसी भारत कैसे आए?
पारसियों का भारत आगमन 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच माना जाता है, हालाँकि सटीक तारीख पर विद्वानों में मतभेद है। “किस्सा-ए-संजान” के अनुसार, इस्लामी आक्रमण के बाद एक छोटा समूह जहाजों में सवार होकर फारस से भागा। लगभग 19 वर्षों तक समुद्र में भटकने के बाद, वे भारत के पश्चिमी तट पर गुजरात के संजन (संजान) नामक स्थान पर पहुँचे। यह घटना संभवतः 716 ईस्वी या उसके आसपास की है।

हिंदू राजा द्वारा शरण: संजन पहुँचने पर, स्थानीय हिंदू राजा जादी राणा ने उन्हें शरण देने का फैसला किया। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, पारसी नेताओं ने राजा को दूध से भरा गिलास दिखाकर समझाया कि वे “दूध में शक्कर” की तरह घुल जाएँगे—अर्थात् वे स्थानीय संस्कृति में समाहित हो जाएँगे, बिना बोझ बने। राजा ने उन्हें पाँच शर्तों (जैसे स्थानीय भाषा सीखना, हथियार न रखना) के साथ रहने की अनुमति दी।

संजन में बसने के बाद, पारसियों ने अपनी अग्नि मंदिर (आतश बहराम) स्थापित की, जिसे बाद में ईरानशाह के नाम से जाना गया। यह अग्नि आज भी उदवाड़ा (गुजरात) में जल रही है। धीरे-धीरे वे गुजरात के अन्य हिस्सों जैसे सूरत, नवसारी और दीव में फैले।
16वीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने सूरत में व्यापार शुरू किया, पारसियों ने कारीगरों और व्यापारियों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में, वे बॉम्बे (मुंबई) में बस गए और वहाँ उद्योग, शिक्षा और व्यापार में योगदान दिया। टाटा, गोदरेज और वाडिया जैसे परिवार इसका उदाहरण हैं।

ईरान से पारसियों को इस्लामी आक्रमण और उत्पीड़न ने भगाया। उनका इतिहास जोरोस्ट्रियन धर्म के गौरव और पतन की कहानी है। भारत में, हिंदू शासकों की उदारता और बाद में ब्रिटिश अवसरों ने उन्हें नया जीवन दिया। आज भारत में उनकी आबादी लगभग 60,000 है, जिनमें से अधिकांश मुंबई में रहते हैं, और वे अपनी सांस्कृतिक पहचान को संजोए हुए हैं।

9चित्र  गुजरात में संजान के पास नारगोल में समुद्र तट पर स्थापित स्तंभ जो पारसियों ने भारत में शरण मिलने की स्मृति में स्थापित किया था 0