Wednesday, May 8, 2024
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन का चुनावी माँग-पत्र

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’

राष्ट्र केवल कोई भूमि का टुकड़ा नहीं होता। राष्ट्र बनता है उसकी सभ्यता और संस्कृति से, वहाँ के ज्ञान – विज्ञान, धर्म आध्यात्म और मौलिक चिंतन से। भाषा के माध्यम से ये निरंतर आगे बढ़ते हैं। यह भी कह सकते हैं कि भाषा एक बहती हुई नदी की तरह है, जिनके किनारों पर सभ्यताएँ जन्म लेती और बढ़ती हैं। जिस प्रकार किसी नदी में विभिन्न प्रकार के जीव पलते और बढ़ते हैं, वैसे ही भाषा रूपी नदी में वहाँ का ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, धर्म-आध्यात्म, विचार-चिंतन, समय और स्थान के साथ-साथ अपना स्वरूप बदलते हुए पलते और आगे बढ़ते है। भाषा रूपी नदी सूखी तो इनमें से कुछ न बचेगा। इसीलिए विश्व के सभी विद्वानों, चिंतकों, शिक्षाविदों एवं दार्शनिकों ने मातृभाषा को श्रेष्ठतम भाषा माना है।

अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो यह माना जाता रहा है और बार- बार यह हुआ है कि किसी देश को मिटाना हो तो उसकी भाषाएँ मिटा दीजिए, उनका अपना तो कुछ भी है स्वत: मिट जाएगा. स्वाभिमान तक भी न बचेगा। जब कोई भाषा मिटती है या सिमटती है तो उसके साथ-साथ उसकी पूरी संस्कृति और हजारों वर्ष की विरासत भी बह जाती है। भाषा जाएगी तो उसका मौलिक ज्ञान – विज्ञान उसकी संस्कृति और हजारों वर्षों से अर्जित उसकन ज्ञान-विज्ञान सब मिटता जाएगा।

इतिहास गवाह है, जब कोई आक्रांता या विदेशी शासक आता है तो पहले वहाँ की भाषा-संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। जब भाषा जाएगी तो उसमें निहित समग्र ज्ञान-विज्ञान को भी बहा कर ले जाएगी। फिर जो भाषा आएगी वह अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाएगी, और वहाँ के लोगों के दिलो-दिमाग को उसके माध्यम से मानसिक गुलाम भी बनाएगी।

यहाँ यह बताना अनुचित न होगा कि समाज को अपने धर्म और आध्यात्म से मिटा कर अपना लाने के लिए भी भाषा को मिटाया जाता है। यदि हम लॉर्ड मैकॉले द्वारा अपने पिता को लिखे गए पत्रों को देखें तो उससे साफ समझ में आता है कि भारत के अंग्रेजीकरण के पीछे उसका एक उद्देश्य भारत के लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने, अपने स्वाभिमान तथा आत्म गौरव के साथ-साथ धर्मांतरण का मार्ग प्रशस्त करना भी था।

यदि हम विश्व की बात करें तो भी हम पाते हैं कि किसी भी देश में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा अपना शासन अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए स्थानीय भाषा अथवा भाषाओं को मिटाते हुए वहाँ पर उन्होंने अपनी भाषाओं का आधिपत्य स्थापित किया। इंग्लैंड ही नहीं फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड आदि अनेक देश जिन्होंने अनेक देशों पर शासन किया और उन्हें अपना उपनिवेश बनाया, वहाँ आज भी कमोबेश उनकी भाषा का आधिपत्य है। आज भी वहाँ के लोगों को अपनी भाषा, अपनी विरासत और अपने ज्ञान-विज्ञान से अधिक उस देश की भाषा-संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान पर गर्व है, जिन्होंने उन पर शासन किया था, जिन्होंने उन पर अत्याचार किए और जिन्होंने उन पर तरह-तरह के जुल्म किए थे।

अगर भारत की बात की जाए तो भारत पर करीब 1300 वर्ष विदेशी शासन रहा। लगभग सभी आक्रांताओं ने हम पर लगातार अनेक जुल्म किए। इस्लामी आक्रांता कभी लूट के लिए या कभी सत्ता के लिए भारत पर आक्रमण करते रहे और उन सब ने लूट के अलावा तलवार की नोक पर बड़े पैमाने पर भारत के लोगों का धर्मांतरण भी किया। भारत पर इस्लामी आक्रांता अलग- अलग समय में किसी एक जगह से नहीं बल्कि अलग-अलग दिशाओं से आते रहे। जो आया उसने अपनी भाषा चलाने की कोशिश की।

इनमें से कुछ ने भारत के अलग-अलग हिस्सों पर अपना शासन भी कायम किया। इसीका परिणाम था कि कभी अरबी, कभी फ़ारसी और कभी इनके मिश्रित रूप शासन, प्रशासन, न्याय और रोजगार का माध्यम बने रहे। इस्लामी शासन के दौर की कुछ कहावतें आज भी इनकी पुष्टि करती दिखाई देती हैं। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?’ एक और कहावत है, ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’ यानी उस दौर में पढ़ा-लिखा, विद्वान और बड़े पदों का दावेदार उसे ही माना जाता था जो उनकी भाषा यानी ‘फ़ारसी’ जानता था।

क्योंकि विदेशी आक्रांता तो मुट्ठी भर थे, बाकी उनकी पालकी ढोने वाले और उनके शासन-प्रशासन और लश्कर में शामिल लोग तो स्थानीय ही थे। इसलिए आगे चलकर स्थानीय भाषाओं में अरबी, फारसी के शब्द मिलकर एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू के लिए फारसी लिपि को अपनाया गया। अगर लिपि की बात छोड़ दें तो यह भाषा, अरबी फारसी आदि के शब्दों से लदी हिंदी ही तो है। यदि इसमें जबरन ठूँसे गए अरबी-फारसी के कुछ जटिल शब्दों को कम कर दें तो यह सरल हिंदी या हिंदुस्तानी ही तो है।

मुगल साम्राज्य के पतन के दौरान ही भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों का आगमन शुरू हो गया था, जो भारत के विभिन्न भागों में अपनी सत्ता कायम करते जा रहे थे। सभी ने जनभाषा की उपेक्षा करते हुए स्थानीय भारतीय भाषाओं को मिटा कर शासन-प्रशासन और व्यवस्था में अपनी भाषा को स्थापित किया। आगे चलकर उनके बीच भारत में सत्ता के लिए संघर्ष भी हुआ। अंततः जब इस संघर्ष में अंग्रेज विजयी रहे तो भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य छाने लगा।

स्वतंत्रता पूर्व के समय तक भी गोवा, दमण-दीव और दादरा नगर हवेली में पुर्तगाली शासन कायम रहा और पुडुचेरी में फ्रांसीसियों का शासन रहा। आज भी आपको बड़ी संख्या में वहाँ ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने स्थानीय भाषा कोंकणी के बजाय पुर्तगाली भाषा यानी पोर्तगीज़ पर गर्व करते मिलेंगे। पुडुचेरी जो की भाषा संस्कृति की दृष्टि से तमिल क्षेत्र है, वहां भी फ्रेंच पर गर्व करने वालों की कमी नहीं है। शेष भारत पर अंग्रेजी की वर्चस्व आज भी है। कारण साफ है कि विदेशी भाषा मौलिकता के बजाए विदेशी-गुलामी, विदेशी-सोच की ओर ले जाती है।

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, सेठ गोविंद दास, पुरुषोत्तम दास टंजन, सरोजिनी मायडू, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के विचारों और प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी-परस्तों की अच्छी खासी संख्या थी। संविधान सभा में भी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजी के प्रयोग की छूट केनल 15 वर्ष के लिए ही दी थी। स्वतंत्रता के समय पूरे देश की आकांक्षा थी कि अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी की सत्ता को भी हटाया जाए और देश का काम देश की भाषाओँ में हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हुआ इसके ठीक उलट। स्वतंत्रता के समय भी देश में 99% से अधिक आबादी मातृभाषा में ही पड़ती थी लेकिन आगे चलकर जिस प्रकार की नीतियां अपनाई गई गांव-गांव तक और उच्च शिक्षा नहीं नर्सरी स्तर तक अंग्रेजी माध्यम को पहुंचा दिया गया व्यवस्था की रग-रग में अंग्रेजी को बसा दिया गया।

पूरे भारत में एक ऐसा वातावरण बना गया है कि ज्ञान-विज्ञान का मतलब अंग्रेजी है, शिक्षा रोजगार का मतलब अंग्रेजी है। संपन्नता और महत्वपूर्ण होने का मतलब अंग्रेजी है। एक प्रसिद्ध पुराना फिल्मी गाना है, ‘जाना था जापान पहुंच गए चीन, समझ गए ना।’ भारतीय भाषाओं के साथ यही हुआ। कहा तो यह गया था कि भारतीय भाषाओं को बढ़ाया जाएगा और अंग्रेजी को धीरे-धीरे हटाया जाएगा। देश की व्यवस्था देश की भाषाओं में चलेगी, लेकिन हुआ उसकी ठीक विपरीत।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर लोग नाचते रहे, गाते रहे, धूम मचाते रहे, भाषा के दिवस मनाते रहे, सम्मेलन रचाते रहे, खाते और कमाते रहे। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को बहुत ही कमजोर कर दिया गया। तत्कालीन सरकारों ने हर क्षेत्र में अंग्रेजी को पुरजोर ढंग से बढ़ाया। आज भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का नहीं अंग्रेजी का वर्चस्व है। जबकि सच्चाई तो यह है कि विश्व के सभी संपन्न और विकसित देश वही है जहाँ अपनी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई होती है और काम होता है। उन देशों की समग्र व्यवस्था और विधि व न्याय-प्रणाली उनकी भाषा में ही है। लाकिन भारत में इसके ठीक विपरीत धारणा विकसित की गई है।

नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाती हुई दिख तो रही है लेकिन इस मामले में कोई ठोस प्रगति अभी धरातल पर नजर नहीं आती। यहाँ भी न्यायपालिका अंग्रेजी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। शासन-प्रशासन में भी भारतीय भाषाओं को ले कर कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं देता।

ऐसी में हमारी तो सभी राजनीतिक दलों से यह माँग है कि वे वादा करें कि वे भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाएंगे, कम से कम स्कूली स्तर पर इस शिक्षा का माध्यम बनाएंगे। नई शिक्षा नीति के अनुसार स्कूलों में दो भारतीय भाषाएं कम से कम पढ़ने की व्यवस्था करेंगे। जब पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश में सभी स्तरों पर जनभाषा में न्याय मिलता है तो हमारे यहां यह अन्याय क्यों है? नौकरी पाने के लिए विषय के ज्ञान की बजाए अंग्रेजी के ज्ञान पर जोर क्यों है ? लोगों को अपनी भाषा में नौकरी क्यों न मिले ? क्या कोई राजनीतिक दल इसके लिए अपनी बात कहेगा।

विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाई जाए, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं। अंग्रेजी ही नहीं, किसी विशेष उद्देश्य के लिए यदि कोई विद्यार्थी कोई अन्य विदेशी भाषा भी यदि विद्यार्थी सीखना चाहे तो विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा विभागों के माध्यम से उसकी व्यवस्था भी की जाए। हमारा मानना स्पष्ट है कि ज्ञान का कोई भी द्वारा कहीं से भी बंद न किया जाए। लेकिन अपनी भाषा की जगह विदेशी भाषा को ना लादा जाए। किसी देश में ज्ञान-विज्ञान का विकाल मौलिक चिंतन से ही होता है और मौलिक चिंतन अपनी भाषा में ही संभव है।

महात्मा गांधी का नाम और उनकी विरासत की राजनीति करने वालों को इस संबंध में महात्मा गांधी को पढ़ना भी चाहिए। उन्होंने कहा था ति यदि भारत में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा से दी जाती तो आज जो हम भारत के तीन-चार आविष्कारकों के नाम लेते हैं, हमारे यहाँ इतने आविष्कारक होते कि हम इन्हें याद तक न करते। लेकिन अंग्रेजी-परस्ती के इतिहास ने मौलिक-चिंतन के माध्यम, यानी मातृभाषा में शिक्षा के मार्ग को पूरी तरह बंद कर दिया।

देश के करोड़ों विद्यार्थी, प्रतिभाशाली और मेधावी विद्यार्थी केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए और पीछे रह जाते हैं क्योंकि सारी व्यवस्थाएं अंग्रेजी में है और अंग्रेजी की बड़े-बड़े विद्यालय उनकी पहुंच से दूर हैं। केवल अंग्रेजी के बल पर काम योग्य लोग भी आगे बढ़ रहे हैं और मेधावी पीछे छूट रहे हैं। यदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की शिक्षा और संपूर्ण व्यवस्था चलने लगे तो कुछ करोड़ ही नहीं बल्कि 140 करोड लोग तेजी से आगे बढ़ने लगेंगे और निश्चित ही भारत अति शीघ्र विश्व की महान शक्ति बन सकेगा।

हमारा चुनावी माँग-पत्र बहुत ही सपष्ट है। हमें चाहिए जनभाषा में विधि- न्याय, व्यापार,-व्यवसाय, सभी स्तरों पर सरकारी या गैर सरकारी आवश्यक सूचनाएँ (जो कानूनी रूप से दी जानी आवश्यक हैं। ) जनभाषा में शिक्षा ही नहीं रोजगार भी देने की व्यवस्था की जाए। सरकारी कार्यालयों और कंपनियों में ही नहीं निजी स्तर पर भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों के लिए रोजगार की व्यवस्था करवाई जाए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संकृति को शिक्षा में समुचित स्थान दिया जाए। अंग्रेजी के नक़लतंत्र के स्थान पर मौलिक चितंन और मौलिक आविष्कारों का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

(लेखक भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सेवानिवृत्त क्षेत्रीय उपनिदेशक तथा ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन संस्था’ के संस्थापक व निदेशक हैं।)

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आर्य नरेश राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज कोल्हापुर नरेश

 6 मई को पुण्यतिथि पर विशेष
महाराष्ट्र के बाहर बहुत कम लोग जानते है कि वह एक कट्टर ‘आर्य समाजी राजा थे ।1902 मे जब वह इंग्लैंड जा रहे थे तब उनकी मुलाकात जोधपुर के नरेश सर प्रतापसिंह महाराज से हुई। जोधपुर नरेश से उनका आर्य समाज से प्रारंभिक परिचय हुआ। भारत वापिस आने के बाद उनका वडोदरा के महाराज श्री श्याजीराव गायकवाड़ और उनके आर्य समाज प्रचारक मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी से परिचय हुआ। इस परिचय का परिणाम यह निकला कि शाहुजी महाराज कट्टर आर्य समाज बन गए।
शाहु महाराज जी ने अपने राज्य में सुधार कार्य प्रारम्भ किया। उनका संकल्प था कि ‘आर्य धर्म विश्व धर्म बने ‘! इस इच्छा से आपने कोल्हापूर नगर में आर्य समाज का डंका जोर-शोर से बजाया ।उन्होनें शिवाजी वैदिक विद्यालय कि स्थापना की। शाहु दयानंद नाम से कॉलेज खुलवाया। स्वामी श्रद्धानंद नाम का आर्य मंदिर बनाया। गो हात्या प्रतिबंधक कानुन को लागु किया। उस काल की सबसे प्रभावशाली बात। उन्होंने कोल्हापूर में 1918 से 1935 तक के काल में 26000 ‘ सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रंथ छपवाए। आपने राज्य में जितने भी वरिष्ठ अधिकारी आदि होते थे। उनको ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘का अध्ययन और परिक्षा अनिवार्य किये।
उन्होनें शूद्रों को उपनयन और वेद के शिक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने शूद्रों के सभी धार्मिक कृत्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने शूद्रों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए छात्रवृति दी। उसी छात्रवृति से डॉ. भीमराव अंबेडकर को विदेश जाकर पीएचडी करने का अवसर प्राप्त हुआ। ध्यान दीजिये डॉ अम्बेडकर को यह छात्रवृति मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी के सहयोग से मिली थी।
डॉ भीमराव अम्बेडकर कहते है कि शाहु महाराज जी की जयंती को एक वृहद् त्योहार के रुप मे मनाया जाये। स्वामी दयानन्द के अटूट शिष्य एवं दलितोद्धार के संदेशवाहक आर्य नरेश श्री साहू जी महाराज के महान व्यक्तित्व को नमन।
उपरोक्त अंश के लेखक महेश आर्य हैं।
दिनांक 8 मार्च 1920 को सौराष्ट्र के भावनगर में अखिल भारतीय आर्यसभा (आर्यसमाज) की परिषद हुई। इस सभा के प्रमुख अतिथि राजर्षि शाहू महाराज[i] ने भाषण किया। महाराज ने भाषण में स्वामी दयानंदजी के जीवन कार्य बताकर उन्होंने दिखाया हुवा वैदिक धर्म ही देश को जागृत कर सकता है, ऐसा विश्वास प्रकट किया। इस कारण वैदिक धर्म को अधिक महत्व है। इस वैदिक धर्म का मैंने स्वीकार किया ऐसे उन्होंने जाहिर किया था। स्वामी दयानंद जी का बताया हुआ यह धर्म विश्वव्यापी बनेगा ऐसा आशीर्वाद उन्होंने प्रकट किया। संदर्भ पुस्तक “राजर्षि शाहू महाराज आणि आर्य समाज”
सज्जनों,
हम थोड़ा भारतवर्ष के इतिहास पर नजर डालते हैं। हजार वर्ष पूर्व के भारतवर्ष और आज के भारतवर्ष में जमीन और आसमान का अंतर है। आज पराक्रम, ज्ञान, धर्मशिलता, उदारता सद्गुण लुप्त हो गये हैं। हजारों कुसंस्कार और रूढी परंपराओं से भरा हुवा भारतवर्ष देखकर आश्चर्य नहीं होता। बालविवाह, बहुविवाह, मद्यपान, स्त्रियों को शिक्षा पर पाबंदी, वर्णश्रम धर्म कि अव्यवस्था ऐसे अनेक समाज को घातक रूढीयों से निर्जिव सा बना दिया है।
उदाहरण – वर्णव्यवस्था लिजिए। सम्पूर्ण भारत में विशेष रुप से महाराष्ट्र के दक्षिण प्रांत में ब्राह्मणोत्तर जातियों की अवस्था बहुत विकट है। इन जातियों को आगे बढ़ाने के लिये, अपनी प्रगती करने के लिये कोई अवसर ही नहीं दिया जाता है। आज 20 वीं सदी में भी अस्पृश्य में जीवन जीनेवाले लोग हैं। इन लोगों का अपराध इतना ही है कि उनका जन्म एक विशिष्ट जाति में नही हुआ। आज भारतवर्ष में एकता, प्रेम, सत्कार कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इनका कारण हमारी स्वयं की मूर्खता है।
भारतवर्ष में ही ऐसे मनुष्य है, अपने ही बंधू का अपने शरीर पर छाया भी पड़ने नहीं देते। स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले व्यक्ति जाति के नशे में चूर है, और नीच मानव वाले जाति (पिछड़ा समाज) पर अन्याय-अत्याचार करते हैं।
नए मनुष्य को उसकी योग्यता के अनुसार उच्च-नीच वर्ण देने का एक आदर्श होता था।
मुनि ने लोगों ने-
धर्मचर्या जघन्यो वर्ण:
छू्र्व पूर्व वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।
अधर्मचर्याया पूर्वो वर्ण: जघन्य:
जघन्य वर्णमापद्यते जाति परवृत्तौं।
ऐसे उपदेश किया। उसी जगह पौराणिक लोगों ने ब्राह्मण: न जाते: ब्राह्मण: यह व्युत्पत्ति करके ब्राह्मणवादी जन्म से अर्थ लगाना प्रारंभ हो गया।[ii]
स्त्रीशुद्रौ नाधीयाताम् यह वेदमंत्र ही कंठश्च किया। इसका परिणाम यह हुआ कि, स्त्री और शूद्रों का ज्ञान का मार्ग ही बंद हो गया। बहुत काल तक यह स्थिति रहने के कारण शूद्र लोग स्वयं को अस्पृश्य समझने लगे। इससे ब्राह्मण लोगों को लाभ हुआ और ब्राह्मणत्व का ठेका अपनी तरफ लिया।[iii]
ब्राह्मणों का जीवन पारमार्थिक जीवन है। जब से योग्यता के अनुसार उच्च-नीचता की परख नष्ट हो गई, तब से नाममात्र गुरुवर्ग का महत्व बढ़ा। जन्म से लेकर – मृत्यु तक लूटते ही रहे, परंतु उसके बाद श्राद्ध जैसी विधि में भी ढोंगी प्रवृत्ति बढ़ती गई।
सज्जनवृंद! जब से देश नौका के कर्णधार ब्राह्मण स्वार्थी बन चुके थे, तब से अष्टवर्षा भवते गौरी यह वैदिक पाठ उच्च स्वर में बोले जाने लगे तब राष्ट्रीयत्व नष्ट हो चुका था। आणिबाणी के समय इसी काठोवाडी प्रांत में जहां हमारी परिषद् (सभा) भरी है, उस भवसागर समीप मोरवी गांव में अपनी स्वदेशी की जागृती के लिए और अखिल भूमण्डल का जागृतिकरण करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ। उन्होंने तपश्चर्या की तथा वेदों का अध्ययन किया। भारत खंड के अवगत स्थिती का परिक्षण किया है। नि:स्वार्थ बनकर मत मतांतरो का जो अग्नि भारत में प्रज्वलित था, उसमें खुद को झोंक दिया। पथभ्रष्ट ऋषि मुनियों को पुन: सम्मान के मार्ग पर लाकर छोड़ दिया है। चारों ओर जागृति की है। लोगों ने उन्हें गाली प्रदान की। उन पर पत्थरों की वृष्टि की और हो सके उतनी नफरत की, परंतु इन सभी मान अपमान की परवाह न करते हुए महर्षि तपस्वी, त्यागी दयानंद जी ने वैदिक धर्म का ढिंढोरा पीटा। इस बात से ब्राह्मण बेचैन हो गये। उन्होंने दयानंद सरस्वती जी की गति में रूकावट डालने का पूरा प्रयत्न किया, पर जिस पर ईश्वर कि कृपा हो तो उसे कौन-सी शक्ति नष्ट कर सकती है?[iv]
उनके केवल दस वर्ष के कार्यों से ही पंजाब, संयुक्त प्रांत, राजपुत, बंगाल, बिहार जागृत हो चुके। लाखों लोग उनके अनुयायी (शिष्य) बने। उत्तर भारत वर्ष में ही नहीं तो सम्पूर्ण भारत खंड में अवैदिकीय पाठ को बदल वैदिक पाठ शुरु किया। जैसे-
ब्राह्मचर्चेण कन्या युवानं विदते पतिम्।[v]
शुद्रों ब्राह्मणतमिति ब्राह्मणों यति शुद्रनाम्।[vi]
आर्य समाज का कार्य पूरे विश्व में विदित है। स्पृश्यास्पृश्यता के बंधन तोड़कर आर्य समाज ने युद्ध में भी बहुत मदद की है। परदेश गमन मनुष्य को अपवित्र समझा जाता था, वही आज गौरव-अभिमान की बात समझी जाती है। आर्य धर्म पूर्णत: मानव समाज के हित के लिये है। खुशी की बात तो यह है कि, बहुत ही युरोपियन स्त्री पुरूषों ने इस आर्य धर्म का स्वीकार किया है और कर रहे हैं। सच कहा जाए तो लॉर्ड किचनेर, सर हेग, लॉर्ड फ्रेंच प्रभूति की गिनती पहले से ही आर्य समाज में ही हो सकती है। क्योंकि इन योद्धाओं ने क्षत्रिय धर्म का ही पालन किया है। मेरे विचार से यही धर्मशासित शाला में प्रेम रुझाने से एकता निर्माण करने का प्रयत्न कर रहा है। मुझे पूरा भरोसा है कि, इस धर्म के अनुयायी प्रतापसिंह और सज्जनसिंह जैसे नरेश है और थे, यह हमारे लिए अभिमान-गर्व की बात है। हमें भी इसी बात का अनुकरण करना चाहिए। यह भी बड़ी संतोष की बात है कि, आज भी अगर स्वार्थी लोग इधर उधर हाथ पाँव पटक रहै हैं, तथापि सच्चे ब्राह्मण और शिक्षित जनता ये सभी हमें अनुकूल है। परंतु, दक्षिण प्रांत में आज भी बहुत से कर्तव्य करना बाकी है। आर्यों का यह कर्तव्य है कि, इस देश में मातृभाव जागृत करना चाहिए।[vii]
अगर सत्यशोधक समाज जैसे समाजों ने कुछ सुधार किया है, तथापि इस संस्था के कारण विशेष रूप से बहुत कुछ हो नहीं सकता, क्योंकि, शतं प्रति भाठ्यं। इस तत्व पर ही चली आ रही है। परंतु, देश को जागृत करने के लिये रामबाण मात्रा वैदिक धर्म ही है। क्योंकि, हिन्दूमात्र के अंतःकरण में वेदाभिमान विराजमान है और आर्य समाज वेदानुकुल रहने में ही हमारा धर्म समझ जाता है। आर्यसमाज का धर्म सारे विश्व पर (उपकार) एहसान करनेवाला धर्म है।[viii]
सज्जनो! वैदिक धर्म का महत्त्व अन्य विचारों से अधिक है, यह सोचकर ही मैंने इस धर्म का स्वीकार किया है। राजाराम कॉलेज, हाईस्कूल, गुरूकुल, अनाथालय, सरदार बोर्डिंग जैसे सभी संस्था मैंने आर्य प्रसारक सभा, संयुक्त प्रांत इन्हीं के अधीन इसी उद्देश्य से कर दिया है, कि लोगों का मानसिक परिवर्तन हो। यह परिवर्तन ज्ञान के द्वार से ही मुमकीन है, इसिलिए ज्ञान का सूत्र मैंने आर्यसमाज के हाथों सौप दी है। मुझसे जो हो सका वह मैंने कर दिया। मेरी यह इच्छा है कि मेरे जोतिबा, पंढरपुर जैसे क्षेत्रो में भी गुरूकूल, हाईस्कूल, की स्थापना करे। मेरा जो फर्ज था वह मैंने पूरा किया है। आगे का जो भी फर्ज पूरी तरह से आपके हाथों में सौंपा है। अगर इससे भी वैदिक धर्म का प्रसार नहीं हुआ तो इसमें आर्य प्रचारक और आप सभी दोषी होंगे। मेरी इच्छा है कि, कुछ सच्चे कर्मवीर मेरी तरह इस कार्य के लिये अपना समय देंगे।
आर्य बंधुओ! हमसे आज भी कर्महीनता नष्ट नहीं हुई है। ऋषियों की प्रेरणा, शिक्षित समुदाय में दृष्टिगोचर हो रही है। देश की सभी समाज, सभा, सोसायटी वैदिक सिद्धांत के अनुसार अपना फर्ज निभा रही है।
यथेमां वाचं कल्याणिम्।[ix] इस वेद की आज्ञा के अनुसार आर्य समाज ने गुरुकुल, अनाथालय, कॉलेज जैसी संस्था स्थापित करके भेदभावरहित सभी जाति व्यवस्था में वेद वाणी का प्रचार किया है। फिर भी हम आज भी ऋषियों के बहुत से लोग कर्मवीर नहीं बने हैं। अकर्म का यह समय नहीं तो कर्म करने का है।
उदाहरण के तौर पर पटेल बिल लिजिये![x] इस तरह हमें अपना वर्तन करने के लिये प्रारंभ करना चाहिये। वेद प्रतिपादित गुण कर्म के अनुसार हम कृति से वर्ण व्यवस्था का पालन कर रहे हैं, यह सिद्ध करने का समय आ गया है।
मैंने आपका बहुत समय लिया है। परंतु आप सभी ने ध्यानपूर्वक, उत्साह के साथ मेरा भाषण सुन लिया, इसलिये मैं आप सभी का फिर से तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूं। और अंत में आप सभी को सच्चे मन सें बड़ी विनय (नम्रता) पूर्वक बताना चाहता हूं कि, ऋषि दयानंद के कार्य का अपनी मन-दिल में प्रकाश पड़ा हो तो याद रखिए कि इस काठियावाड़ी भूमि में बाल मूलशंकरजी ने कठिन प्रतिज्ञा कर के गृहत्याग किया था, तो हम भी इस तीर्थस्थान से वापस जाते समय कठिन प्रतिज्ञा करेंगे कि वैदिक सिद्धांत और विचार हम कृति में लाने के लिये बिल्कुल भी पीछे नहीं हटेंगे।
बंधुओ! आखिर सत्य का ही विजय होता है, यह ध्यान में रखते हुए ऋषियों के इस कार्य को प्रसारित करने का प्रयत्न करो और इसी कार्य में लगे रहो। परमात्मा आपको शक्ति देगा क्योंकि जो कर्मवीर होते हैं, उन्हें सहायता करनेवाला वही ईश्वर है।
[i] राजर्षि शाहू महाराज (26 जून 1874 –6 मई 1922) भोंसला वंश के कोहलापुर नरेश थे। आप प्रगतिशील विचारों के वैदिकधर्मीशासक थे। आपने अपना प्रेरणास्रोत्र स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को बताया है। आपने दलित छात्रों को छात्रवृति विदेश पढ़ने हेतु भेजा। डॉ अम्बेडकर उन्हीं छात्रों में से एक थे जिनके जीवन निर्माण में शाहू जी महाराज का अप्रतिम योगदान है।
[ii] वर्णव्यवस्था गुणों पर आधारित थी जबकि जातिवाद जन्मना कुल पर आधारित है। इस भेद ने जातिवाद रूपी विषवृक्ष को जन्म दिया। वैदिक काल में ब्राह्मण संज्ञा बहुत आदर्श, ज्ञानी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती थी जो कालांतर में विकृत होकर एक अभिमानी जातिवादी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने से दूषित हो गई।
[iii] चारों वेदों में एक भी मंत्र स्त्री और शूद्र को शिक्षा से वर्जित नहीं रखता। इसलिए इस वेद विरुद्ध कथन को असत्य और मिथक कहा जायेगा।
[iv] महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-“वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जनश्रुति शूद्र ने भी वेद ‘रैक्यमुनि’ के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।”
[v] अथर्ववेद 11/6/18 में स्पष्ट सन्देश हैं की ब्रह्मचर्य का पालन कर कन्या वर का ग्रहण करे। यहाँ पर ,ब्रह्मचर्य का अर्थ हैं ब्रह्म अर्थात वेद में चर अर्थात गमन, ज्ञान या प्राप्ति करना।
[vi] वेदों में शूद्रों के लिए प्रिय वचनों का प्रयोग है। जैसे प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें [अथर्ववेद 19/62/1]
हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। [यजुर्वेद 18/46]
हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे। [अथर्ववेद 19/32/8 ]
[vii] स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज को भारत में जातिवाद उन्मूलन और दलितोद्धार के लिए महान तप करने वालों में शिरोमणि माना जाना चाहिए। ध्यन्तव्य यह है कि आर्यसमाज द्वारा तैयार की गई उर्वरा भूमि में ही डॉ अम्बेडकर सरीखे समाज सुधारकों का निर्माण हुआ था।
[viii] शाहू जी की आर्यसमाज और वैदिक धर्म के समर्थन में दी गई टिप्पणी को भी राजनेता किसी मंच से कभी स्मरण नहीं करता। क्यों?
[ix] इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि वेदों के पढ़ने-पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है- यजुर्वेद २६/२,स्वामी दयानन्द भाष्य
[x] पटेल एक्ट अनिवार्य शिक्षा हेतु विट्ठल भाई पटेल द्वारा 1917 में पास करवाया गया प्रथम कानून था। स्वामी दयानन्द ने 1875 में सत्यार्थ प्रकाश में संतानों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान शासक द्वारा हो। ऐसा उपदेश दिया था।
(लेखक राष्ट्रीय व वैदिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं) 
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नसीब (1981) फिल्म बनने की 15 रोचक और अनसुनी कहानियां…

अमरनाथ मिश्रा

जब अमिताभ बच्चन के एक गाने के लिए जमा हो गई लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री। तस्वीर देखकर आप समझ ही गए होंगे कि ये किस फिल्म के और कौन से गीत की बात हो रही है। नसीब फिल्म के जॉन जानी जनार्दन गीत के पिक्चराइज़ेशन के लिए फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े स्टार्स जमा हो गए थे। आज नसीब फिल्म को रिलीज़ हुए 43 साल पूरे हो गए। 1 मई 1981 को नसीब रिलीज़ हुई थी। मनमोहन देसाई द्वारा निर्देशित नसीब ने बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त प्रदर्शन किया और सुपरहिट रही। फिल्म के गीत बहुत हिट हुए थे। सभी गीत लिखे थे आनंद बक्षी जी ने और गीत कंपोज़ किए थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने। चलिए नसीब फिल्म से जुड़ी कुछ रोचक बातें जानते हैं।

01- नसीब 1981 की दूसरी सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। पहले नंबर पर थी मनोज कुमार की क्रांति। और तीसरे नंबर पर थी जितेंद्र-हेमा मालिनी की मेरी आवाज़ सुनो। चौथे नंबर पर थी अमिताभ बच्चन की लावारिस और पांचवे नंबर पर थी कुमार गौरव की लव स्टोरी। संजय दत्त की डेब्यू फिल्म रॉकी भी उस साल टॉप 10 फिल्मों की लिस्ट में जगह बनाने में कामयाब रही थी। रॉकी कमाई के मामले में 10वें पायदान पर थी।

02- मनमोहन देसाई चाहते थे कि नसीब में वो एक बार फिर से अमर अकबर एंथोनी की मशहूर तिकड़ी को दोहराएं। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर तो ईज़िली अवेलेबल हो गए। लेकिन विनोद खन्ना से नसीब फिल्म के लिए बात नहीं बन सकी। क्योंकि उस वक्त विनोद खन्ना फिल्मों से ब्रेक लेने की तैयारी कर चुके थे। तब वो रोल जिसमें मनमोहन देसाई विनोद खन्ना को लेना चाहते थे, वो शत्रुघ्न सिन्हा को मिला।

03- नसीब आखिरी फिल्म है जिसमें अमिताभ बच्चन ने शत्रुघ्न सिन्हा के साथ काम किया था। कहा जाता है कि शत्रुघ्न सिन्हा की लेट-लतीफी अमिताभ बच्चन को बिल्कुल भी पसंद नहीं आती थी। क्योंकि अमिताभ बच्चन ठहरे वक्त के एकदम पाबंद। और शत्रुघ्न सिन्हा शूटिंग पर पहुंचते थे काफी लेट। वैसे साल 2008 में ‘यार मेरी ज़िंदगी’ नाम से इन दोनों की एक फिल्म ज़रूर आई थी। लेकिन वो बहुत साल पहले की फिल्म थी जो बहुत देर से रिलीज़ हुई थी। वो फिल्म तो नसीब से भी काफी पहले बननी शुरु हुई थी।

04- नसीब पहली फिल्म थी जिसका ट्रेलर दूरदर्शन पर दिखाया गया था। उससे पहले अपकमिंग फिल्मों के ट्रेलर्स सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी फिल्मों के साथ ही नज़र आते थे। लेकिन नसीब पहली भारतीय फिल्म बनी जिसका ट्रेलर टीवी पर दिखाया गया था। वैसे, सिनेमाघरों में ट्रेलर दिखाने की परंपरा तो आज भी जारी है। और ये एक अच्छी परंपरा है।

05- नसीब फिल्म के गीत ‘रंग जमाके जाएंगे’ से एक दिलचस्प कहानी जुड़ी है। अब जब आप इस गाने को देखेंगे तो नोट कीजिएगा कि शत्रुघ्न सिन्हा के अधिकतर क्लॉज़ शॉट्स इस गाने में नज़र आते हैं। वो इसलिए क्योंकि शत्रुघ्न सिन्हा सही से डांस नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में उनके एक बॉडी डबल को लॉन्ग शॉट्स में रखा गया था। और उनके सभी शॉट्स क्लॉज़ लिए गए थे।

06- ‘रंग जमाके जाएंगे’ गीत को मनमोहन देसाई एक एक्चुअल रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट में पिक्चराइज़ करना चाहते थे। लेकिन उस वक्त मुंबई में मौजूद जो भी रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट्स थे उन सभी के घूमने की स्पीड उससे कहीं ज़्यादा थी जितनी की मनमोहन देसाई चाहते थे। इसलिए उन्हें बाकायदा एक सेट बनवाना पड़ा और वहां वो गीत फिल्माना पड़ा।

07- नसीब फिल्म के सॉन्ग जॉनी जॉनी जनार्दन को पूरी तरह शूट करने में एक सप्ताह का वक्त लग गया था। और एक सप्ताह तक हर वो आर्टिस्ट स्टूडियो आया था जो उस गाने में दिखाई देता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि सभी आर्टिस्ट्स को मैनेज करने का काम राज कपूर जी को सौंपा गया था। हालांकि मुझे इस पर यकीन नहीं होता। लेकिन फिलहाल मैं इस बात को पूरी तरह से नकारने कहने की स्थिति में भी नहीं हूं।

08- नसीब में ऋषि कपूर के अपोज़िट पहले नीतू सिंह थी। नीतू सिंह ने एक सीन भी शूट कर लिया था। लेकिन फिर उन्होंने फिल्म छोड़ दी। उनकी जगह एक्ट्रेस किम को साइन किया गया। और जानते हैं नीतू सिंह ने नसीब क्योंं छोड़ी थी? क्योंकि ऋषि कपूर संग उनकी शादी हो गई थी। वैसे, किम से पहले एक्ट्रेस रंजीता से भी उस रोल के बारे में बात चली थी। लेकिन वो बात बनी नहीं।

09- नसीब में अभिनेता यूसुफ खान ज़िबिस्को भी दिखाई दिए थे। वास्तव में यूसुफ खान को ज़िबिस्को नाम मनमोहन देसाई ने ही दिया था। मनमोहन देसाई की फिल्म अमर अकबर एंथोनी में यूसुफ खान के कैरेक्टर का नाम ज़िबिस्को रखा गया था। उस फिल्म के बाद से ही यूसुफ खान फिल्म इंडस्ट्री में ज़िबिस्को के नाम से मशहूर हो गए थे।

10- मनमोहन देसाई ने पहले इस फिल्म की तीन रील्स ही शूट की और उन्हें अच्छे से एडिट करके डिस्ट्रीब्यूटर्स को दिखाया। इसलिए ताकि डिस्ट्रीब्यूटर्स को अंदाज़ा हो सके कि फिल्म पर कितना खर्च होगा। डिस्ट्रीब्यूटर्स ने फिल्म देखी और उन्हें फिल्म पसंद आई। उन्होंने मनमोहन देसाई को ये फिल्म बनाने की हरी झंडी दिखा दी।

11- इस फिल्म में आपने जीवन साहब को भी देखा होगा। जीवन साहब इस फिल्म में स्कूल प्रिंसिपल प्रोफेसर प्रेमी के किरदार में दिखे थे। और ये बात भी बड़ी अनोखी है कि जीवन साहब का रोल विलेनियस नहीं, बल्कि एक कॉमिक रोल था। बहुत कम ऐसी फिल्में हैं जिनमें जीवन जी ने विलेनियस किरदार नहीं निभाए हैं।

12- नसीब में रीना रॉय शत्रुघ्न सिन्हा के अपोज़िट दिखी हैं। पहले ये रोल एक्ट्रेस परवीन बॉबी निभाने वाली थी। लेकिन किन्हीं कारणों से परवीन बॉबी ने फिल्म छोड़ दी। रीना रॉय और अमिताभ बच्चन ने कभी किसी फिल्म में हीरो-हीरोइन की तरह काम नहीं किया। पूरे करियर में अमिताभ बच्चन ने रीना रॉय संग दो ही फिल्मों में काम किया था। एक तो थी नसीब जिसमें रीना रॉय अमिताभ बच्चन की बहन बनी थी। और दूसरी थी अंधा कानून जिसमें रीना रॉय और अमिताभ बच्चन का साथ में कोई सीन नहीं था।

13- एक्टर शक्ति कपूर को मनमोहन देसाई ने फिरोज़ खान की सिफारिश पर कास्ट किया था। शक्ति कपूर ने फिरोज़ खान की कुर्बानी फिल्म में अच्छा काम किया था। फिरोज़ खान शक्ति कपूर से काफी इंप्रैस थे। उन्होंने उस वक्त कई लोगों से शक्ति कपूर की सिफारिश की थी। मनमोहन देसाई उनमें से एक थे।

14- शक्ति कपूर ने साल 1997 में आई गोविंदा की फिल्म नसीब में भी एक छोटा सा विलेनियस रोल निभाया था। गोविंदा वाली नसीब में कादर खान भी थे। और कादर खान ने मनमोहन देसाई वाली नसीब में भी काम किया था। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान शक्ति कपूर के बाप के रोल में थे। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान के बड़े बेटे के रोल में अभिनेता प्रेम चोपड़ा नज़र आए थे। जबकी असल जीवन में कादर खान उम्र में प्रेम चोपड़ा से छोटे थे।

15- कुछ लोग कहते हैं कि एक्ट्रेस किम को नसीब में इसलिए काम मिला था क्योंकि उनका अफेयर मनमोहन देसाई के बेटे केतन देसाई से चल रहा था। हालांकि किम इन बातों को बकवास बताती हैं और कहती हैं कि वो और केतन सिर्फ अच्छे दोस्त थे। हालांकि ये बात सच है कि नसीब में उन्हें केतन की वजह से काम मिला था। नसीब के बाद किम को उम्मीद थी कि उनके पास फिल्मों के खूब ऑफर्स आएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

साभार-https://www.facebook.com/amarnath.mishra1

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उस बच्चे ने मन की बात न्यायालय के सामने कह दी

जस्टिस लीला सेठ हाईकोर्ट की पहली महिला चीफ जस्टिस थीं. पहले वह दिल्ली हाईकोर्ट में नियुक्त हुईं, फिर साल 1991 में उनका बतौर चीफ जस्टिस हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ट्रांसफर हो गया. अपने कार्यकाल में उन्होंने तमाम महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई की. ऐसे ही एक दिलचस्प किस्से का जिक्र वह अपनी आत्मकथा ‘घर और अदालत’ में करती हैं. लीला सेठ लिखती हैं कि शब्द और भाषा, लेखक या वकीलों का हथियार होती है, पर बचपन में इन दोनों की बहुत अहम भूमिका होती है. यह बात मुझे तब समझ में आई जब मैं एक मुकदमे की सुनवाई कर रही थी. एक बच्चे के माता-पिता एक-दूसरे से अलग हो गए थे और उसकी कस्टडी के लिए झगड़ रहे थे. पिता, बच्चे की कस्टडी की डिमांड लेकर कोर्ट आया.

एक दिन सुनवाई के दौरान वह बच्चा भी कोर्ट आया. मैं उसे लेकर अपने चैंबर में गई ताकि यह सुनिश्चित कर सकूं कि वाकई में उसके लिए क्या उचित है. मैंने उससे पूछा, ‘तुम किसके साथ रहना चाहते हो ?’ उसने अंग्रेज़ी में जवाब दिया- ‘अपने पिता के साथ..’ ‘जब मैंने यह पूछा कि वह अपने पिता के साथ ही क्यों रहना चाहता है तो उसका कहना था, ‘क्योंकि वे मुझे बेहद प्यार करते हैं.’ मैंने कहा, ‘तुम्हारी मां तुम्हें प्यार नहीं करती हैं?” उसने चुप्पी साध ली.

सेठ लिखती हैं कि इसके बाद मैंने आगे पूछा, ‘क्या तुम्हें अपने पिता का घर पसंद है?’ जवाब था, ‘हां, हां, मैं पिता के साथ रहना चाहता हूं.” क्या तुमने अच्छी तरह सोच लिया है ?’ तो उसने कहा, ‘ हां, मैं अपने पिता को प्यार करता हूं और उनके साथ ही रहना चाहता हूं…’

लीला सेठ लिखती हैं इस सवाल-जवाब के क्रम में मैंने नोटिस किया कि बच्चा काफी तनाव में नजर आ रहा है. थोड़ी देर बाद मैंने अचानक हिंदी में सवाल-जवाब शुरू कर दिया और उससे पूछा, ‘अच्छी तरह सोचकर बताओ कि तुम कहां रहना चाहते हो?’ तो उसने तपाक से जवाब दिया, ‘मैं अपने नाना-नानी के साथ रहना चाहता हूं. वो मुझे बहुत चाहते हैं और मैं भी उन्हें बेहद प्यार करता हूं. फिर मैं अपनी मां से भी मिल सकूंगा जो कभी-कभार वहां आती रहती है.

बच्चे ने आगे कहा, ‘मैं कई साल तक अपने नाना-नानी के साथ रहा हूं, लेकिन जब मां को दूसरे शहर में नौकरी मिल गई तो पिता मुझे अपने साथ ले आए..’ यह कहकर वह रोने लगा.

इसके बाद मुझे अहसास हुआ कि अब वह बच्चा अपनी सच्ची भावनाएं अभिव्यक्त कर रहा है और पहले जो कुछ भी वह अंग्रेजी में कह रहा था, वो सब उसे तोते की तरह रटाकर लाया गया था. जाहिर है कि यह जानते हुए कि हाईकोर्ट की भाषा अंग्रेज़ी है और बच्चे से अंग्रेजी में ही सवाल किए जाएंगे, उसके पिता ने उसे जवाब रटाकर भेजे थे, लेकिन उसकी मातृभाषा हिंदी में बात करते ही सच्चाई सामने आ गई. लेकिन अब उसे यह डर सता रहा था कि उसने जो कुछ भी कह दिया है उस पर उसके पिता नाराज होंगे.

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पद्म पुरस्‍कार-2025 के लिए नामांकन शुरू

गणतंत्र दिवस, 2025 के अवसर पर घोषित किए जाने वाले पद्म पुरस्‍कार-2025 के लिए ऑनलाइन नामांकन/सिफारिशें आज से शुरू हो गया है। पद्म पुरस्‍कारों के नामांकन की अंतिम तारीख 15 सितंबर, 2024 है। पद्म पुरस्‍कारों के लिए नामांकन/सिफारिशें राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार पोर्टल https://awards.gov.in पर ऑनलाइन प्राप्‍त की जाएंगी।

पद्म पुरस्‍कार, अर्थात पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री देश के सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मानों में शामिल हैं। वर्ष 1954 में स्‍थापित, इन पुरस्‍कारों की घोषणा प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर की जाती है। इन पुरस्‍कारों के अंतर्गत ‘उत्‍कृष्‍ट कार्य’ के लिए सम्‍मानित किया जाता है। पद्म पुरस्‍कार कला, साहित्य एवं शिक्षा, खेल, चिकित्सा, समाज सेवा, विज्ञान एवं इंजीनियरी, लोक कार्य, सिविल सेवा, व्यापार एवं उद्योग आदि जैसे सभी क्षेत्रों/विषयों में विशिष्‍ट और असाधारण उपलब्धियों/सेवा के लिए प्रदान किए जाते हैं। जाति, व्यवसाय, पद या लिंग के भेदभाव के बिना सभी व्यक्ति इन पुरस्कारों के लिए पात्र हैं। चिकित्‍सकों और वैज्ञानिकों को छोड़कर अन्‍य सरकारी सेवक, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में काम करने वाले सरकारी सेवक भी शामिल है, पद्म पुरस्‍कारों के पात्र नहीं हैं।

सरकार पद्म पुरस्‍कारों को “पीपल्स पद्म” बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। अत:, सभी नागरिकों से अनुरोध है कि वे नामांकन/सिफारिशें करें। नागरिक स्‍वयं को भी नामित कर सकते हैं। महिलाओं, समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, दिव्यांग व्यक्तियों और समाज के लिए निस्वार्थ सेवा कर रहे लोगों में से ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों की पहचान करने के ठोस प्रयास किए जा सकते हैं जिनकी उत्कृष्टता और उपलब्धियां वास्तव में पहचाने जाने योग्य हैं।

नामांकन/सिफारिशों में पोर्टल पर उपलब्ध प्रारूप में निर्दिष्ट सभी प्रासंगिक विवरण शामिल होने चाहिए, जिसमें वर्णनात्मक रूप में एक उद्धरण (citation) (अधिकतम 800 शब्द) शामिल होना चाहिए, जिसमें अनुशंसित व्यक्ति की संबंधित क्षेत्र/अनुशासन में विशिष्ट और असाधारण उपलब्धियों/सेवा का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया हो।

इस संबंध में विस्‍तृत विवरण गृह मंत्रालय की वेबसाइट (https://mha.gov.in) पर ‘पुरस्‍कार और पदक’ शीर्षक के अंतर्गत और पद्म पुरस्‍कार पोर्टल (https://padmaawards.gov.in) पर उपलब्‍ध हैं। इन पुरस्‍कारों से संबंधित संविधि (statutes) और नियम वेबसाइट पर https://padmaawards.gov.in/AboutAwards.aspx लिंक पर उपलब्‍ध हैं।

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ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का क्रमिक निर्माण

ब्रह्म देव जी की उत्पत्ति
भारतीय दर्शन शास्त्र में ब्रह्मा जी का नाम के पीछे निर्गुण निराकार और सर्वव्यापी चेतन शक्ति के लिए ‘ब्रह्मा’ शब्द का प्रयोग बताया गया है। सभी गुणों से पूर्ण होने के कारण उन्हें ब्रह्मा नाम से पुकारा जाता है। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी को) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया।

इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ। इसी से माना जाने लगा कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की उत्पत्ति नाभि से हुई थी। जब इनकी उत्पत्ति हुई को उन्होंने चारों ओर देखा जिसकी वजह से उनके चार मुख हो गए। ये चारो वेद के प्रतीक हैं।शुरू में उनके पांच सिर थे, जिनमें से एक को शिव जी ने क्रोध में आकर काट दिया था। पांचवा मुख भगवान शिव ने भैरव रूप में काट दिया क्योंकि ब्रह्मा जी द्वारा असत्य बोला गया था तब भैरव को ब्रह्महत्या का दोष भी लगा था यह मुख भैरव से काशी में गिरा और आज वहाँ कपाल मोचन भैरव का मंदिर है।

ब्रह्मा ने सृजन के दौरान ही एक चौंकाने और बेहद ही सुंदर महिला को बनाया था। हालांकि, उनकी यह रचना इतनी सुंदर थी कि वे उसकी सुंदरता से मुग्ध हो गये और ब्र्ह्मा उसे अपनाने की कोशिश करने लगे। ब्रह्मा जी अपने द्वारा उत्पन्न सतरूपा के प्रति आकृष्ट हो गए तथा उन्हें टकटकी बांध कर निहारने लगे। सतरूपा ने ब्रह्मा की दृष्टि से बचने की हर कोशिश की किंतु असफल रहीं। कहा तो ये भी जाता है कि सतरूपा में हजारों जानवरों में बदल जाने की शक्ति थी और उन्होंने ब्रह्मा जी से बचने के लिए ऐसा किया भी, लेकिन ब्रह्मा जी ने जानवर रूप में भी उन्हें परेशान करना नहीं छोड़ा. इसके अलावा ब्रह्मा जी की नज़र से बचने के लिए सतरूपा ऊपर की ओर देखने लगीं, तो ब्रह्मा जी अपना एक सिर ऊपर की ओर विकसित कर दिया जिससे सतरूपा की हर कोशिश नाकाम हो गई।

भगवान शिव ब्रह्मा जी की इस हरकत को देख रहे थे। शिव की दृष्टि में सतरूपा ब्रह्मा की पुत्री सदृश थीं, इसीलिए उन्हें यह घोर पाप लगा। इससे क्रुद्ध होकर शिव जी ने ब्रह्मा का सिर काट डाला ताकि सतरूपा को ब्रह्मा जी की कुदृष्टि से बचाया जा सके।

ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का विधान : मेदिनी की सृष्टि
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार ब्रह्माजी ने सबसे पहले मधु और कैटभ के मेदे से मेदिनी की सृष्टि की। ब्रह्माजी ने आठ प्रधान पर्वत (सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन) और अनेकों छोटे-छोटे पर्वत बनाए। फिर ब्रह्माजी ने सात समुद्रों (क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोद, घृत, दधि तथा सुस्वादु जल से भरे हुए समुद्र) की सृष्टि की व अनेकानेक नदियों, गांवों, नगरों व असंख्य वृक्षों की रचना की। सात समुद्रों से घिरे सात द्वीप (जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोधद्वीप तथा पुष्करद्वीप) का निर्माण किया। इसमें उनचास उपद्वीप हैं।

चौदह भुवनों की रचना
तदनन्तर ब्रह्माजी ने उस पर्वत के ऊपर सात स्वर्गों (भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक) की सृष्टि की। पृथ्वी के ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर स्वर्ण की आभा वाला ब्रह्मलोक है, उससे ऊपर ध्रुवलोक है। मेरुपर्वत के नीचे सात पाताल (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल) हैं जो एक से दूसरे के नीचे स्थित हैं, सबसे नीचे रसातल है।

सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्माजी के अधिकार में है। ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे महाविष्णु के रोमकूपों में स्थित हैं। श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु व महेश, देवता, ग्रह, नक्षत्र, मनुष्य आदि स्थित हैं। पृथ्वी पर चार वर्ण के लोग और उसके नीचे पाताललोक में नाग रहते हैं। पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है। उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्ड से बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तार वाला गोलोक है। कृत्रिम विश्व व उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएं हैं वे अनित्य हैं। वैकुण्ठ, शिवलोक और गोलोक ही नित्यधाम हैं।

मानवी-सृष्टि की रचना
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर ब्रह्माजी ने मानवी-सृष्टि की रचना की। ब्रह्मा जी ने आदि देव भगवान की खोज करने के लिए कमल की नाल के छिद्र में प्रवेश कर जल में अंत तक ढूंढा। परंतु भगवान उन्हें कहीं भी नहीं मिले। ब्रह्मा जी ने अपने अधिष्ठान भगवान को खोजने में सौ वर्ष व्यतीत कर दिये। अंत में ब्रह्मा जी ने समाधि ले ली। इस समाधि द्वारा उन्होंने अपने अधिष्ठान को अपने अंतःकरण में प्रकाशित होते देखा। शेष जी की शैय्या पर पुरुषोत्तम भगवान अकेले लेटे हुए दिखाई दिये। ब्रह्मा जी ने पुरुषो त्तम भगवान से सृष्टि रचना का आदेश प्राप्त किया और कमल के छिद्र से बाहर निकल कर कमल कोष पर विराजमान हो गये। इसके बाद संसार की रचना पर विचार करने लगे।

अनेक ऋषियों महर्षियों का निर्माण
ब्रह्मा जी ने उस कमल कोष के तीन विभाग भूः भुवः स्वः किये। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प लिया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओंठ से लोभ, लिंग से समुद्र तथा छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्मा जी के मन और शरीर से उत्पन्न हुये। एक बार ब्रह्मा जी ने एक घटना से लज्जित होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके उस त्यागे हुये शरीर को दिशाओं ने कुहरा और अन्धकार के रूप में ग्रहण कर लिया।

वेद उपवेदो का विधान
इसके बाद ब्रह्मा जी के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद, पश्चिम वाले मुख से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकलीं। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व आदि उप-वेदों की रचना की। उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किया और फिर योग विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्द आदि तथा क्रीड़ा से सात सुर प्रकट हुये।

कायिक सृष्टि का विधान
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को ‘ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:’ ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे। इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम ‘का’ और स्त्री का नाम ‘या’ रखा। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। मनु और शतरूपा ने मानव संसार की शुरुआत की।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)

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लोकसभा चुनावों में धराशायी विपक्ष के टूलकिट आधारित मुद्दे!

स्वतंत्रता के बाद भारत में अभी तक जितने भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं उनमें पहली बार कांग्रेस के नेतृत्व में बना गठबंधन हर दृष्टि से कमजोर नजर आ रहा है । जब से लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस व इंडी गठबंधन के नेताओं ने प्रचार आरम्भ किया है तभी से कांग्रेस नेता राहुल गांधी व उनके प्रवक्ता मीडिया एजेंसियों व टीवी चैनलो पर बैठकर केवल एक ही बहस कर रहे हैं कि अगर मोदी जी तीसरी बार 400 सीटों के साथ प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो फिर भाजपा संविधान को फाड़ कर फेंक देगी, दोबारा चुनाव नहीं होंगे क्योंकि इनके पास कोई मुद्दा नहीं है मोदी जी को घेरने का। इसके अतिरिक्त मोदी जी और अमित शाह के ए.आई. द्वारा बनाए गए डीप फेक वीडियो या फिर सम्पादित/ डॉक्टर वीडियो को आधार बनाकर झूठ फैला रहे हैं ।

पिछले दिनों अमित शाह के ऐसे ही एक वीडिओ के साथ आरक्षण के सम्बन्ध में दुष्प्रचार किया गया हालांकि अब इस पर दिल्ली पुलिस ने कार्यवही आरम्भ कर दी है और कई लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं । उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस फर्जी वीडियो प्रकरण को कोअपने पक्ष में मोड़कर मुद्दा बनाने मे कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली है साथ ही वे संविधान और आरक्षण के नाम पर विगत 70 साल में पिछली सरकारों ने जो किया उसे भी बेनकाब कर रहे हैं।

वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार आने के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ आरक्षण विरोधी होने का दावा कर अभियान चलाया जा रहा है। बिहार में 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच गठबंधन हुआ था तब इन दलों ने पांचजन्य साप्ताहिक में प्रकाशित एक साक्षात्कार के आधार पर संघ के खिलाफ विषवमन किया था। बसपा नेत्री मायावती ने एक पुस्तक प्रकाशित करवा के घर घर तक बनवाई थी और बताया गया था कि संघ किस प्रकार से आरक्षण विरोधी है।

अब समय बदल चुका है यह 2024 की बदली हुई भाजपा और संघ है जो दुष्प्रचार के प्रति पूरी तरह सतर्क और सशक्त है। इस बार कांग्रेस नेताओं का यह दांव जमीनी धरातल पर नहीं उतर पा रहा है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ.मोहन भागवत ने कहा कि संघ हमेशा संविधान सम्मत आरक्षण का पक्षधर रहा है।संघ का मानना है कि जब तक सामाजिक भेदभाव रहेगा या आरक्षण देने के कारण बने रहेंगे तब तक आरक्षण जारी रहे।संघ प्रमुख ने कहा कि उन्होंने एक वीडियो के बारे में सुना है जिसमें कहा गया है कि संघ आरक्षण के खिलाफ है। संघ आरक्षण का कभी विरोधी नहीं रहा है किंतु यह उसके खिलाफ विमर्श स्थापित किया जा रहा है क्योंकि कांग्रेस को लगता है कि संघ व भाजपा को आरक्षण व संविधान विरोधी साबित कर वह चुनावी किला फतह कर सकती है।

राहुल गांधी आजकल भाजपा को संविधान विरोधी साबित करने में दिन-रात एक किये हुए है जबकि वास्तविकता यह है कि अगर आज आम नागरिक अपने संविधान को जान रहा है, पढ़ राहा है और उसके अनुरूप आचरण करना चाह रहा है और उसके पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास ही हैं क्योंक अब हर वर्ष 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाया जा रहा है। भारतीय संविधान को अब वेबसाइट पर आसानी से पढ़ा जा सकता है। नए संसद भवन के उद्घाटन और सेंगोल स्थापना के अवसर पर सदन के सदस्यों को भी संविधान की मूल प्रति दी गई ।

कांग्रेस जो आज संविधान – संविधान का राग अलाप रही है संविधान का सत्यानाश कांग्रेस ने ही किया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए संविधान में मूल भूत परिवर्तन करके उसमें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्द जोड़कर उसकी आत्मा ही नष्ट कर दी, आपातकाल लगाकर अपनी विकृत तानाशाही मानसिकता का परिचय दिया और मनमर्जी से विपक्षी दलों की प्रदेश सरकारों को गिराया । कांग्रेस के कार्यकाल में संविधान एक परिवार का बंधक हो गया था व एक धर्म विशेष का तुष्टीकरण कर रहा था।

इसी प्रकार कांग्रेस अयोध्या में प्रभु राम की जन्मभूमि और उस पर बन रहे भव्य मंदिर के प्रति भी नकारात्मक रही है।जन जन के आराध्य प्रभु राम को काल्पनिक कहने वाली कांग्रेस ने पहले तो मुद्दे को लटकाने, लटकाने, भटकाने के लिए जी जान लगा दी फिर भी असफल रहने पर अपने मुस्लिम तुष्टीकरण को मजबूती प्रदान कनने के लिए प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार किया। उसके बाद राहुल गांधी व विपक्ष के नेता जनसभाओं में बयान देने लगे कि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में दलित आदिवासी होने के कारण राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नहीं बुलाया गया। यह भी बयान दिए जाने लग गये कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह में केवल और केवल बड़े उद्योगपति और बड़े घरानो के लोग ही उपस्थित रहे आम जनता को कोई भाव नहीं दिया गया। पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अयोध्या में रामलला के दर्शन करके ने राहुल गांधी के इस झूठ का करारा उत्तर दे दिया। राम मंदिर के गर्भगृह में राष्ट्रपति की उपस्थिति ने कांग्रेस नेता के आरोप को बुरी तरह से धो डाला।राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गर्भगृह में पहुंचकर रामलला का विधिवत पूजन किया। आराध्य को निकट से देखकर राष्ट्रपति बहुत भावुक दिखीं और उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने अनुभव भी साझा किए।

इस बीच श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने बयान जारी कर राहुल गांधी के सभी आरोपों को मिथ्या बताया। महासचिव चंपत राय ने बताया कि राहुल गांधी को स्मरण कराना चाहूंगा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू एवं पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वय को रामलला के मूल विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर आमंत्रित किया गया था। उन्होंने बताया कि इस अवसर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग समाज से जुड़े हुए संत, महापुरुष गृहस्थजन औेर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यश प्राप्त करने वाले भारत का गौरव बढ़ाने वाले लोगों को भी आमंत्रित किया गया था। मंदिर में सेवारत श्रमिक और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी कार्यक्रम में उपस्थित रहे।

राहुल गांधी अपनी जनसभाओं मे यह आरोप भी लगा रहे हैं कि वहां कोई गरीब, महिला, किसान युवा दर्षन नहीं करने गया अब यह भी झूठ हो गया है क्योकि अब तक दो करेड़ से अधि्े लोग राम मंदिर के दर्षन कर चुके हैं और इसमें समाज के सभी वर्गो की आम जनता ही षामिल है।किंतु कांग्रेस के प्रवक्ता अभी भी बाज नहीं आ रहे हैं और अयोध्या मंदिर व दर्षन कार्यक्रम को इवेंट बताकर उसका अपमान कर रहे है।

इसके अलावा हताश कांग्रेस और विपक्ष बार -बार अपनी पराजय का बहाना खोजने के लिए ईवीएम मशीनों पर ही संदेह पैदा कर रही है किंतु ईवीएम का उसका दांव सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो चुका है अभी जब दो चरणों का मतदान संपन्न हुआ और मत प्रतिशत कम निकलता तब उसके बाद विरोधी दलों ने सोशल मीडिया पर हल्ला मचाना प्रारम्भ कर दिया कि कम मतदान का मतलब होता है मोदी जी हार गये, हार गये। किन्तु जब चार दिन बाद चुनाव आयोग ने मतदान प्रतिशत के सही आंकड़े सार्वजनिक किये तो यही विपक्ष एक बार फिर ईवीएम और चुनाव आयोग पर संदेह करने लग गया। विपक्षी दलों के नेता सोशल मीडिया पर आकर ईवीएम -ईवीएम करने लग गये और एक बार फिर फर्जी वीडियो बनाकर कहने लग गए कि चुनाव आयोग ने खेल कर दिया- खेल कर दिया।

वहीं इतनी राजनैतिक गहमागहमी के बीच एस्ट्राजेनेका ऑक्सफोर्ड की कोरोना वैक्सीन कोविषील्ड को लेकर आ रही कुछ खबरों को आधार मानकर विपक्ष ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को खराब करने का अभियान प्रारम्भ कर दिया है और एक टूलकिट की तरह इन आभासी मुददों को बार- बार सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर उठाया जा रहा है । कोल्ड के प्रकरण में जनहित याचिका दायर करने वाले दलाल भी सक्रिय हो गये हैं और सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये हैं जबकि वास्तविकता यह भी है कि कोविषील्ड से नुकसान बहुत ही कम हुआ है जबकि लाभ अधिक हुआ है। कोविषील्ड को लेकर उठ रहे सभी विवाद पूरी तरह से भ्रामक खबरों पर आधारित हैं। विषेषज्ञों का मत है कि हर वैक्सीन के साइड इफेक्ट होते ही हैं। वह वैक्सीन लगाने के 21 दिन या एक महीने के भीतर ही हो सकता था। कोविड काल में दो वर्ष पूर्व लगे इस वैक्सीन से कोई नुकसान नहीं अपितु लाभ ही हुआ है।

आज का विपक्ष पूरी तरह से हताश और निराष हो चुका है और यही कारण है कि वह किसी न किसी प्रकार से अपने झूठे नैरेटिव की नई -नई टूलकिट बनाकर उसे जनता के समक्ष परोस रहा है जिसमें वह खुद एक गहरे दलदल में फंसता जा रहा है।

अभी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लातूर की जनसभा में कहा कि 2014 के पहले एक समय था जब खबर आती थी कि, “सडक पर पड़ी कोई भी लावारिस वस्तु को आप लोग न छुएं यह बम हो सकता है किंतु अब एक ऐसी खबरें आनी बंद हो गयी है” ठीक उसके अगले ही दिन सुबह -सुबह दिल्ली के स्कूलों को बम से उड़ाने की धमकी आती है और तब यही विरोध्ी दल उस पर भी अपनी विकृत राजनीति प्रारम्भ कर देता है किंतु बाद वह फर्जी अफवाह निकलती है हालांकि अभी जांच चल रही है। कुछ ऐसी ही विकृत राजनीति कर्नाटक के एक सैक्स स्कैंडल को लेकर देखने को मिल रही है विरोधी दल उसमें भी प्रधानमंत्री मोदी की छवि को खराब करने की कोषिष कर रहे थे।कर्नाटक के सैक्स स्कैंडल की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका ख्ुलासा भाजपा के एक स्थानीय नेता ने ही किया है। इसमें यह भी महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक में लव जिहाद की बर्बर घटना होने जाने के बाद जब भाजपा नेहा हत्याकांड को लेकर आगे बढ़ रही थी उसके बाद ही रेंवन्ना प्रकरण का लासा हुआ, आखिर क्यों।

आज की भाजपा अब 2014 के पहले वाली भाजपा नहीं रही कि उसे झूठे नैरेटिव अभियानसे डराया और धमकाया जा सकता है। अब भजपा नेता व कायकता्र बहुत ही सषक्त व हर प्रकार से सतर्क रह रहे हैं । अभी गुजरात के एक सांसद रूपाला के बयान के कारण नैरेटिव चलाया गया कि राजपूत और क्षत्रिय भाजपा से नाराज हो गये हैं किंतु गुजरात में मेदी व भाजपा नेताओं की की जनसभाओं में जिस प्रकार से भीड़ आ रही है उससे लग रहा है कि अब राजपूत व क्षत्रियों की भाजपा से नाराजगी का नैरेटिव भी कुछ हद तक नियंत्रित हो चुका है।

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लोक संस्कृति ने हमारी सभ्यता और परंपराओं को जीवित रखा है

लोक संस्कृति अत्यंत ही व्यापक अवधारणा है! अनेक तत्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध प्रवृत्तियों से संबंधित है! अतः विविध अर्थो व भावों में उसका प्रयोग होता है! वास्तव में संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है! मानव मन की बाह्य प्रवृत्ति मूलक प्रेरणा से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहेंगे,और उनकी अंतर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ बना है उसे संस्कृति कहेंगे!

लोक संस्कृति दो शब्दों के योग से जानी जाती है “लोक” और “संस्कृति ” यानी लोक की संस्कृति! लोक संस्कृति, लोकगीतों लोक कथाओं तथा लोक साहित्य का वह संचित कोष है जिसमें ग्रामीण अंचल के हर उस चरित्र की आवाज है, जो दैनिक दिनचर्या में भूमिका निभाता है! पितृसत्तात्मक सत्ता से लेकर महिलाओं की स्थिति तक, राजा- महाराजाओं के शौर्य के यशोगान और चरित्र की प्रेरणाओं से लेकर भीरु, कायरों की निंदा तक, विषयों को बेबाक एवं बेधड़क भाव से गीतों में सहेजे हुए है!

कहना गलत ना होगा कि’ लोकगीतों का इतिहास यदि विशाल है, तो इसका श्रेय भी ग्रामीण अंचल की महिलाओं को जाता है जिन्होंने गीतों की रचना की, विभिन्न अवसरों पर उन्हें गाए और अपने आने वाली पीढियां को हस्तांतरित कर दिए!’ इन लोकगीतों में से ज्यादातर गीतों के वास्तविक रचनाकार किसी को पता नहीं है लेकिन उनके भाव बताते हैं कि उनमें महिलाओं ने अपना कलेजा निकाल कर रख दिया है! भाव की जो अभिव्यक्ति उन गीतों में है जो बड़े-बड़े संगीतज्ञों के नहीं होते! गीतों के लिखने से लेकर गाए जाने तक, भावों की अभिव्यक्ति इतनी मनोरम और वास्तविक होती है की सुनते ही रोम- रोम पुलकित हो उठते हैं! इतना ही नहीं, इन गीतों में समाज, धर्म, राष्ट्र, पितरों, पूर्वजों, तथा देवताओं के प्रति कर्तव्य-बोध भी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ दिखाई पड़ता है! यही कारण है कि हमारी संस्कृतियों कभी गुलाम नहीं हुईं! भारत के एकता तथा अखंडता की जब भी बात की जाए, सांस्कृतिक चेतना मेरुदंड की भांति दिखाई देती है!

लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है उल्टे शिष्ट समाज लोकसंस्कृति से प्रेरणा अवश्य ही प्राप्त करता रहा है! लोक संस्कृति की एक रूपरेखा हमें भावाभिव्यक्ति की शैलियों में भी मिलती है, जिसके द्वारा लोक मानस की मंगल भावना से ओत -प्रोत होना सिद्ध होता है! लोक में व्यक्तिवादी कथनों से अभिव्यक्ति नहीं होती बल्कि सदैव समूह की बात की जाती है! वहां कोई अपरिचित नहीं होता! सभी समुदाय वाले एक रिश्ते या संबंधों में अभिव्यक्त होते हैं इसीलिए समूह के कल्याण की बातें करते हैं!

लोक से अभिप्राय, उस सर्वसाधारण जनता से है,जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है! दिन-हीन, दलित, शोषित ,वंचित, पिछड़ी, जंगली जातियां, कोल -भील, गोंड, संथाल, नाग ,कीरात, हुड, शक, यवन, खस ,पुक्कस आदि समस्त समुदाय का मिला-जुला रूप “लोक ” कहलाता है और इन सभी समुदायों की मिली- जुली संस्कृति “लोक संस्कृति “कहलाती है ! यद्यपि देखने में सबके रहन-सहन, वेशभूषा, बोलचाल, खानपान, कला-कौशल आदि सब कुछ अलग-अलग दिखाई देते हैं किंतु एक ऐसा सूत्र है जिससे यह सभी एक माला में पिरोई हुई मणियों की भांति दिखाई देते हैं ! जो सभी एकजुट है,इन्हें अलग करना संभव नहीं है! इनकी पहचान भी संयुक्त रूप से होती है! इन सभी समुदायों की मिली-जुली संस्कृति लोक संस्कृति है!

लोक संस्कृति, लोक कल्याण की बात करती है,मानव कल्याण की नहीं !लोक उत्थान की बात करती है, व्यक्ति के विकास की नहीं! यही कारण है की लोकमानस मांगलिक भावना की बात करता है! वह दीपक के बुझने की कल्पना से ही सिहर उठता है इसीलिए वह दीपक बुझाने की बात नहीं करता बल्कि “दीपक बढ़ाने” को कहता है! इसी प्रकार वह दुकान बंद करने की कल्पना से सहम जाता है इसीलिए “दुकान बढ़ाने” को कहता है!

लोक जीवन की जैसी नैसर्गिक सरलतम अनुभूतिमई, अभिव्यंजना का चित्र लोकगीतों व लोक कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है! विडंबना यह है कि लोक संस्कृति का बहुतायत पक्ष आज भी अलिखित( मौखिक) ही है! यद्यपि की विभिन्न लोकगीतों, लोक कथाओं, लोक श्रुतियों को संचित करने का प्रयास आज किया जा रहा है, फिर भी ‘लोक साहित्य’ अभी भी न के बराबर या अल्प मात्रा में ही प्राप्त होता है!लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है! प्रकृति स्वयं गाती है! भंवरे गुनगुनाते हैं! चिड़ियां चहचहाती हैं! गायें रम्भाती हैं ! इस प्रकार लोक जीवन के पग- पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं! इसीलिए लोक साहित्य भी उतना ही पुराना है, जितना मानव का इतिहास!

जन जीवन की प्रत्येक अवस्था ,हर वर्ग ,हर समय और संपूर्ण प्रकृति , लोक साहित्य में सब कुछ समाहित है ! अतः आज लोक संस्कृतियों का चित्रण, श्रुतियों और कथाओं को, परंपराओं और रीति रिवाज को लिपिबद्ध करने की परम आवश्यकता है ! आने वाली पीढ़ी के लिए वास्तविक भारतीयता का बोध कराने के लिए लोक में व्याप्त त्याग की भावना और सामूहिक उत्थान की संस्कृतियों का प्रतिदर्श दिखाने की आवश्यकता है!लोक कथाओं में वर्णित एकजुटता,मानवप्रेम, त्याग और बंधुत्व का रूप प्रदान करने की अति आवश्यकता है जो राष्ट्रीय एकीकरण के प्राण तत्व है!लोक संस्कृतियों का वास्तविक दर्शन लोक में जाकर ही संभव है! उन्हें देखकर, सुनकर, समझकर सीखने की आवश्यकता है जो किताबों में नहीं देखी जा सकती है!

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं डॉक्टर सत्येंद्र ने लोक संस्कृतियों पर अपने-अपने विचार प्रदान किए हैं जिसका सर यह है कि-“” लोक संस्कृति, वह संस्कृति है जो अनुभवों, श्रुतियों ,परंपराओं तथा रीति-रिवाजों से चलती है! इसके ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती! भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा भारतीय साधारण जनता है ,जो नगरों से दूर गांवों तथा वन- प्रांतों में निवास करती है! ”

(लेखिका अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ, नई दिल्ली से जुड़ी हैं।)

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हमारे इतिहास से ये पुस्तकें कहाँ गायब हो गई 

भारत में कई सदियों पहले एक किताब (मेरुतुंगाचार्य रचित प्रबन्ध चिन्तामणि) आई थी जिसमें महान लोगों के बारे में कई हस्तलिखित कहानियाँ थी। कोई कहता है किताब १३१० के दशक में आई तो कोई उसे १३६० के दशक का मानता है, १३१० वाले ज़्यादा लोग हैं। खैर मुद्दा वो नहीं है, किताब का १४ वीं सदी का होना ही काफी है। उसमें राजा भोज पर भी कई कहानियाँ है जिसमें से एक ये है, जिसे थोड़ा ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।

एक रात अचानक आँख खुल जाने से राजा भोज ने देखा कि चाँदनी के छिटकने से बड़ा ही सुहावना समय हो रहा है, और सामने ही आकाश में स्थित चन्द्रमा देखने वाले के मन मे आल्हाद उत्पन्न कर रहा है। यह देख राजा की आँखें उस तरफ अटक गई और थोड़ी देर में उन्होने यह श्लोकार्ध पढ़ा –
यदेतइन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते।
तदाचष्टे लेाकः शशक इति नो सां प्रति यथा॥

अर्थात् – “चाँद के भीतर जो यह बादल का टुकड़ा सा दिखाई देता है लोग उसे शशक (खरगोश) कहते हैं। परन्तु मैं ऐसा नहीं समझता।”
संयोग से इसके पहले ही एक विद्वान् चोर राज महल मे घुस आया था और राजा के जाग जाने के कारण एक तरफ छिपा बैठा था। जब भोज ने दो तीन बार इसी श्लोकार्ध को पढ़ा और अगला श्लोकार्ध उनके मुँह से न निकला तब उस चोर से चुप न रहा गया और उसने आगे का श्लोकार्ध कह कर उस श्लोक की पूर्ति इस प्रकार कर दी-
अहं त्विन्दु मन्ये त्वरिविरहाक्रान्ततरुणो।
कटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुम्॥
अर्थात् – “मै तो समझता हूं कि तुम्हारे शत्रुओ़ की विरहिणी स्त्रियो के कटाक्ष रूपी उल्काओं के पड़ने से चन्द्रमा के शरीर में सैकड़ों घाव हो गए हैं और ये उसी के दाग़ हैं।”

अपने पकड़े जाने की परवाह न करने वाले उस चोर के चमत्कार पूर्ण कथन को सुनकर भोज बहुत खुश हुये और सावधानी के तौर पर उस चोर को प्रातःकाल तक के लिये एक कोठरी मे बंद करवा दिया। परंतु उस समय विद्वता की पूछ परख ज्यादा थी सो अगले दिन प्रातः उसे भारी पुरस्कार देकर विदा किया गया।

लगभग 250 साल के लंबे अंतराल के बाद, गेलेलियों ने ३० नवंबर सन १६०९ को पहली बार टेलिस्कोप से चंद्रमा देखा और अपनी डायरी में नोट किया कि, “चंद्रमा की सतह चिकनी नहीं है जैसी कि मानी जाती थी (क्योंकि केवल आंखो से वह ऐसी ही दिखती है), बल्कि असमतल और ऊबड़-खाबड़ है।” वहाँ उन्हे पहाड़ियाँ और गढ्ढों जैसी रचनाएँ नज़र आई थी। उन्होने टेलिस्कोप से खुद के देखे चंद्रमा एक स्केच भी अपनी डायरी में बनाया।

कहानी का सार बस इतना है कि जिस समय चर्च यह मानता था कि रात का आसमान एक काली चादर है, जिसमें छेद हो गए और उसमे से स्वर्ग का प्रकाश तारों के रूप में दिख रहा है, उस समय भारत के एक चोर को भी ये पता था कि चंद्रमा की सतह समतल नहीं है और उस पर जो दाग हैं वो उल्काओं के गिरने से बने हैं। बात खतम।

अब ये अलग बात है कि स्वयंभू वामपंथी इतिहासकारों, सेक्युलरता के घातक रोग से पीड़ित लिबरलों, और खुद पर ही शर्मिंदा कुछ भारतीय गोरों को यह बात आज भी नहीं पता, क्योंकि ना तो उन्हे इतिहास का अध्ययन करना आता है और ना ही उनमें इतनी क्षमता ही है।

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इतिहास की किताबों को स्वाहा करो… सब मनगढ़ंत पढ़ा रहे हैं

विश्वनाथ सिंह सिकरवार

इतिहासकारों ने हमारे इतिहास को केवल 200 वर्षों में ही समेट कर रख दिया है जबकि उन्होंने हमें कभी नहीं बताया कि एक राजा ऐसा भी था जिसकी सेना में महिलाएं कमांडर थी और जिसने अपनी विशाल नौकाओं वाली शक्तिशाली नौसेना की मदद से पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया पर कब्जा कर लिया था

राजेन्द्र चोल प्रथम (1012-1044) — वामपंथी इतिहासकारों के साजिशों की भेंट चढ़ने वाला हमारे इतिहास का एक महान शासक

राजेन्द्र चोल, चोल राजवंश के सबसे महान शासक थे उन्होंने अपनी विजयों द्वारा चोल सम्राज्य का विस्तार कर उसे दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था । राजेंद्र चोल एकमात्र राजा थे जिन्होंने न केवल अन्य स्थानों पर अपनी विजय का पताका लहराया बल्कि उन स्थानों पर वास्तुकला और प्रशासन की अद्भुत प्रणाली का प्रसार किया जहां उन्होंने शासन किया।

सन 1017 ईसवी में हमारे इस शक्तिशाली नायक ने सिंहल (श्रीलंका) के प्रतापी राजा महेंद्र पंचम को बुरी तरह परास्त करके सम्पूर्ण सिंहल(श्रीलंका) पर कब्जा कर लिया था ।

जहाँ कई महान राजा नदियों के मुहाने पर पहुँचकर अपनी सेना के साथ आगे बढ़ पाने का हिम्मत नहीं कर पाते थे वहीं राजेन्द्र चोल ने एक शक्तिशाली नेवी का गठन किया था जिसकी सहायता से वह अपने मार्ग में आने वाली हर विशाल नदी को आसानी से पार कर लेते थे ।

अपनी इसी नौसेना की बदौलत राजेन्द्र चोल ने अरब सागर स्थित सदिमन्तीक नामक द्वीप पर भी अपना अधिकार स्थापित किया यहाँ तक कि अपने घातक युद्धपोतों की सहायता से कई राजाओं की सेना को तबाह करते हुए राजेन्द्र प्रथम ने जावा, सुमात्रा एवं मालदीव पर अधिकार कर लिया था ।

एक विशाल भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद उन्होंने (गंगई कोड़ा) चोलपुरम नामक एक नई राजधानी का निर्माण किया था, वहाँ उन्होंने एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण कराया जो सोलह मील लंबी तथा तीन मील चौड़ी थी। यह झील भारत के इतिहास में मानव निर्मित सबसे बड़ी झीलों में से एक मानी जाती है। उस झील में बंगाल से गंगा का जल लाकर डाला गया।

एक तरफ आगरा मे शांहजहाँ के शासन के दौरान भीषण अकाल के बावजूद इतिहासकार उसकी प्रशंसा में इतिहास के पन्नों को भरने में लगे रहे दूसरी तरफ जिस राजेन्द्र चोल के अधीन दक्षिण भारत एशिया में समृद्धि और वैभव का प्रतिनिधित्व कर रहा था उसके बारे में हमारे इतिहास की किताबें एक साजिश के तहत खामोश रहीं ।

यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी जो कि दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी है इसका प्राचीन नाम चोला झील था, यह सदियों तक अपने नाम से चोल की महानता को बयाँ करती रही, बाद में यह कलिंग सागर में बदल दिया गया गया और फिर ब्रिटिशर्स द्वारा बंगाल की खाड़ी में परिवर्तित कर दिया गया, वाम इतिहासकारों ने हमेशा हमारे नायकों के इतिहास को नष्ट करने की साजिश रची और हमारे मंदिरों और संस्कृति को नष्ट करने वाले मुगल आक्रांताओं के बारे में पढ़ाया, राजेन्द्र चोल की सेना में कमांडर के पद पर कुछ महिलाएं भी थी, सदियों बाद मुगलों का एक ऐसा वक्त आया जब महिलाएं पर्दे के पीछे चली गईं ।

हममें से बहुत से लोगों को चोल राजवंश और मातृभूमि के लिए उनके योगदान के बारे में नहीं पता है। मैंने इतिहास के अलग-अलग स्रोतों से अपने इस महान नायक के बारे में जाने की कोशिश की और मुझे महसूस हुआ कि अपने इस स्वर्णिम इतिहास के बारे में आपको भी जानने का हक है।

साभार – https://www.facebook.com/share/p/oiZkDpdpnFx8tjq3/?mibextid=xfxF2i

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