नाथद्वारा से कोटा लौटते हुए 6 जनवरी को कार का सफर, पांच घंटे तक पूरे सफर काव्य धारा के झरने का ऐसा श्रोत बहता रहा कि पता ही नहीं चला कब कोटा पहुंच गए। सफ़र तो सफ़र है। इसलिए आनंद बक्षी ने कहा —
जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम
वो फिर नहीं आते,वो फिर नहीं आते।
साहित्य मंडल नाथद्वारा का दो दिवसीय राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मेलन एवं भगवती प्रसाद देवपुरा स्मृति समारोह समाप्त हो गया था। हमने पांच बजे नाथद्वारा छोड़ दिया था। एक शेर याद आ ही गया –
तमाम उम्र कौन किसी का साथ देता है।
कठिन है रहगुजर थोड़ी देर साथ चलो।
जिंदगी के पड़ाव में कैफ़ भोपाली आनंद बक्षी इंदीवर रामावतार त्यागी,इंद्र जीत सिंह तुलसी भी आये। लेकिन सच तो यह है आपके आसपास के गीतकारों, गजलगो के गीत भी कम नहीं ।मीर से चली ग़ज़ल आज़ कहां खड़ी है सब जानते हैं। सांझ का धुंधलका होने चला था कि मैंने भाई साहब रामेश्वर शर्मा रामू भैया को छेड़ दिया। मैं ही उन्हें ग़ज़लों के क्षेत्र में लाया था और मैंने यह भी सिद्ध किया था केवल इस शेर से की वो प्रेम जी प्रेम के बाद लोक के सबसे बड़े गजलगो हैं –
घणी हूंस सूं चर्या भरी छी, गंगाजल की
लाता लाता पिंदा गळग्या कस्यां करां।
बंटवारा में पांती आई म्हा कै असी कड़ाई
मालपुआ ज्यूं म्हाई तलग्या कस्यां करां ।।
अदबी माहौल और सूझबूझ ग़ज़ल को बहुत कुछ देती है। गजलगो के पास मातृभाषा भी है, हिन्दी भी और उर्दू ज्ञान भी तो वो सभी मिजाज की ग़ज़ल लिखने लगता है। रामेश्वर शर्मा रामू भैया ने नयी कहानी कहते हुए। ताज़ा तरीन ग़ज़ल का एक मतला और एक शेर पढ़ा —
जबसे उस मछली ने मेरे,जाल में फंसना छोड़ दिया
हमने भी दरिया के भीतर रोज़ उतरना छोड़ दिया।
जबसे साकी हुआ मेहरबां गैरों के पैमानों पर
हमने भी मैखाने जाना और बहकना छोड़ दिया।
ग़ज़ल की कहन जब रवायत लेकर भाषा और शिल्प के समन्वय से सामने आती है।दिल में उतरती चली जाती है। मुझे शकील बदायूंनी,साहिर लुधियानवी,राजा मेंहदी अली खान याद आते जा रहे थे। ग़ज़ल का वो शेर सामने आ ही गया जिसकी जरूरत थी —
जब से उसने रुप हमारा बंद किया है पलकों में
हमने भी दर्पण के आगे रोज़ संवरना छोड़ दिया।
अब मजरुह सुलतानपुरी याद आ गये थे,
” तेरी आंखों के सिवा, दुनिया में रक्खा क्या है”।
जिंदगी के मायने बदल ही जाते,जब आप आंखों में उतर जाते हैं। हमारे वो दिन याद आ गये जब लड़के मोहब्बत का इजहार कर ही नहीं पाते। लड़कों की हिजाबी देखी नहीं जाती लड़कियां उनकी इस अदा की दिवानी होती थी।साठ का दशक फिल्मी गीतकारों की ग़ज़लों के हुनर का काल था। मुझे यकायक शकील बदायूंनी याद आ गये –
हम तो इज़हार ए हाल कर बैठे
बेखूदी में कमाल कर बैठे।
अब मैं भी खुलने लगा , रामेश्वर शर्मा जी को मैं ही समझ सकता हूं । उनसे कैसे प्रस्तुति करवानी है। सफ़र में डा. प्रभात सिंघल थे, उनकी खूबसूरत गाड़ी जिसमें हम आ रहे थे। ग़ज़ले रवानियत पर थी। गाड़ी चला रहे सुरेश को भी मज़ा आ रहा था । सफ़र मुसलसल चल रहा था। एक खामोशी सी आ गई और भाई साहब रामेश्वर शर्मा जी ने कहा ” संत जी यह नहीं चलेगा,आप उर्दू अदब से बहुत करीब बावस्ता रहे हो ,उनको याद करते हुए कुछ सुनाओ”।
समां सुहाना था। महफ़िल रंग में थी सिंघल कह रहे थे ” भाई साहब देखा जाए तो हम एक दूसरे को करीब से जानते ही नहीं, आज़ रामेश्वर जी को सुन रहूं हूं। कोटा में एक प्रोग्राम जी भर कर सुनो रखेंगे और इन्हें सुनेंगे”! भाई साहब रामेश्वर शर्मा जी के कहते ही आप सुनाओ। मैं अपना मानस बनाने लगा और कालेज के दिनों की एक कता ( मुक्तक) याद हो आया। पढ़ने लगा –
यूं धीरे धीरे खोलो ना अपने नक़ाब को
निखर निखर के आने दो शोख ए शबाब को
ठहरो तो ज़रा बादलों से पूछ लूं सवाल
पहलू में कैसे रख लिया था अफताब को ।
शायरी की जब समझ हो तो सुनाने में भी मज़ा आता है। भाई साहब रामेश्वर जी कहने लगे ” लाज़वाब नक़ाब के पीछे आफताब निराली उपमा है”। यह मुक्तक उन दिनों सैंकड़ों युवाओं को याद हो गया था।जब बात आफताब की आई तो फिर मुझे मेहताब भी याद आ ही गया –
उदय सूरज की जाना लालिमा कहां क़ैद रखी है
सुना है लाजवंती तो तेरे बचपन की सखी है
तुझे उस रोज़ देखकर मैंने रोकड़ में लिख दिया
तेरी कुछ रश्मियां चंदा ने लेके क़र्ज़ रखी है।
मैंने भाई साहब रामेश्वर शर्मा जी से कहा ” भाई साहब यह वह दौर था जब लड़कियां सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत चाहती थी। आज़ की तरह गाड़ी बंगला ऐशो आराम नहीं”. वो बोले ठीक कह रहे हैं आप । मैंने उस दौर की महबूबा की ख्वाहिश बताई –
अगर तुमको मोहब्बत है तो सनम मुझको ग़म दे दो”.
एकदम मैं फिर अतीत में लौट आया राजा मेंहदी अली खान के गाने उनकी मदन मोहन के साथ जोड़ी फिर सत्तर के दशक का वह दौर जब फिल्म” पाकीज़ा ” हिट हो गई थी और कैफ़ भोपाली हाड़ौती क्षेत्र के प्रवास में थे। जिनके लिए राहत इंदौरी ख़ुद कहते थे” कैफ़ सा मेरे गुरु थे मैं उनके जूते सर पर रख कर घूम सकता था “!
प्रेम मयूर जी का आवास गर्ल्स हायर सेकेण्डरी स्कूल कैफ़ भोपाली वहां ही ठहरते थे जहां पीने पिलाने को मिले बूंदी का एक हिस्सा मदन मदिर जी ने जो सुनाया याद आ रहा है। खैर फिर कभी गिने चुने लोग एक शानदार नशिस्त जो हमेशा याद रहेगी, हमारे भी यौवन के दिन फरमाइश कैफ़ और मयूर सा कर रहे हैं और मैं सुना रहा हूं —
सरुर ए मय में मैं चला मैखाने से
झूमकर लौट कर आया ही था बुतखाने से
सुराही खोलकर जो रुबरु तुझको देखा
छलक कर मय गिरी बाहर जरा पैमाने से।
आज़ पता लग रहा है शायरी के माने क्या होते हैं और शायर के पीने पिलाने का शौक क्या!
एक महफ़िल में मैं ओम पुरी से बिल्कुल दूर जा बैठा था।उस महफ़िल में हाड़ा सा भी थे वो भी समझते थे मैं पीने वाले लोगों को दूर से ही सलाम करता हूं। लेकिन यक़ीनन वो दिन बहुत पाकीज़ा था कैफ़ भोपाली जी के किस्से मैंने सुने वो इंसानियत की मिसाल थे। खैर वो महफ़िल और बहक कर कैफ़ सा और मयूर सा का कहना वाह वाह। मैंने फिर एक मुक्तक प्रस्तुत किया –
बेहिजाबी हिजाब तक पहुंची
ये तजल्ली नक़ाब तक पहुंची
देखकर तेरी मस्त नज़रों को
मेरी तबियत शराब तक पहुंची
कैफ़ सा बोले ” अरे वाह पंडित जी खूब बिना दो घूंट लिए ऐसा लिख देते हो, हमने खूब पी पर ऐसा नहीं लिख सकते”. मैं जानता था यह हौसला अफजाई थी पहले के लोग ऐसे ही हुआ करते थे। क्या लोग थे वो। मैंने कैफ़ सा से फिल्म “पाकीज़ा” के दौरान कुछ लिखा तो पढ़ने की इल्तज़ा की,वो बोले लो एक शेर जिंदगी में याद करोगे –
फूल से लिपटी हुई तितली को हटाकर देखो
आंधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा।
गाड़ी आगे बढ़ रही थी । कलाम भी उरूज़ पर थे हम एक दूसरे को सुनते सुनाते घर आ गए थे। आलेख देश के बहुत बड़े बाल साहित्यकार और साहिर लुधियानवी के जबरदस्त फैन गाज़ियाबाद के रजनी कान्त शुक्ला जी को उनकी चाहत पर।
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जितेंद्र निर्मोही
वरिष्ठ साहित्यकार, कोटा