Wednesday, November 13, 2024
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हिन्दी संस्थाओं की पतनगाथाः राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा

महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव, काका कालेलकर, सेठ जमनालाल बजाज, ब्रिजलाल बियाणी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, बाबा राघवदास, वियोगी हरि, हरिहर शर्मा, श्रीमन्नारायण अग्रवाल, श्रीनाथ सिंह, नर्मदा प्रसाद सिंह तथा शंकरराव देव जैसे मनीषियों द्वारा 4 जुलाई 1936 को सेवाग्राम स्थित गाँधी जी के आवास पर हुई बैठक में गठित, “भारत जननी एक हृदय हो” का मूलमंत्र अपनाकर राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से सारे देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली, दो करोड़ से भी अधिक हिन्दीतर क्षेत्र के लोगों को हिन्दी सिखाने वाली, दुनिया के 23 देशों में हिन्दी की परीक्षाओं का केन्द्र संचालित करने वाली, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा आज अपने 70 कर्मचारियों और अधिकारियों को 6 हजार से लेकर 10 हजार तक वेतन दे पाने में भी सक्षम नहीं है. पुस्तकालय और मुद्रणालय आधुनिकीकरण की बाट जोह रहे हैं, ज्यादातर भवन जर्जर हो चुके हैं, छात्रावास में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं.

देश- विदेश में हिन्दी की परीक्षाएं लेकर प्रमाण पत्र और उपाधियाँ देने वाली इस संस्था के संचालन का मुख्य आर्थिक स्रोत परीक्षाओं से मिलने वाला शुल्क तथा सरकारी संस्थाओं से मिलने वाला अनुदान है. पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न मदों में मिलने वाली अनुदान की राशि 18 लाख के आस-पास होती है जो कोरोना काल के बाद से ही अनियमित है. समिति के खर्च को देखते हुए यह अनुदान ऊँट के मुँह में जीरा जैसा है.

परीक्षाओं से मिलने वाले शुल्क की दशा और भी खराब है. आज इस संस्था द्वारा दी जाने वाली ज्यादातर उपाधियों और प्रमाण- पत्रों की मान्यताएँ देश की दूसरी सरकारी तथा स्वायत्त संस्थाओं द्वारा अमान्य की जा चुकी हैं या उपेक्षित की जा रही हैं जिसके कारण परीक्षार्थियों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है.  पहले जहाँ समिति द्वारा आयोजित परीक्षाओं में तीन लाख से भी अधिक परीक्षार्थी शामिल होते थे वहाँ आज संख्या घटकर कुछ हजार में सिमट गई है. सरकारों द्वारा दिन प्रतिदिन की जा रही हिन्दी की उपेक्षा भी इसका एक प्रमुख कारण है. इन विपरीत परिस्थितियों में भी आज यहाँ के कर्मचारी किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट काटकर हिन्दी की सेवा में लगे हैं तो इसके पीछे गाँधी का आदर्श, त्याग और उनका अपना संस्कार ही प्रेरक है.

हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का 25वाँ अधिवेशन 24-26 अप्रैल 1936 को नागपुर में हुआ था जिसकी अध्यक्षता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने की थी. इसी अधिवेशन में दक्षिण भारत को छोड़कर शेष हिन्दीतर प्रदेशों तथा विदेशों में भी हिन्दी का प्रचार करने के उद्देश्य से एक अलग संस्था गठित करने का निर्णय लिया गया था. इसे अमली जामा पहनाया गया 4 जुलाई 1936 को गाँधी के निवास स्थान पर.

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का संचालन एक कार्यसमिति करती है जिसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, प्रधान मंत्री, कोषाध्यक्ष, लेखा परीक्षक तथा चार मनोनीत सदस्य होते हैं. समिति की एक व्यवस्थापिका समिति भी होती है जो स्थायी होती है. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सोलह सदस्य इस व्यवस्थापिका समिति के भी सदस्य होते हैं. इतना ही नहीं, सम्मेलन का प्रधान मंत्री ही इस समिति का पदेन उपाध्यक्ष होता है. इस तरह समिति पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का एक सीमा तक वर्चस्व बना रहता है. इस समय प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित समिति के अध्यक्ष हैं और डॉ. हेमचंद्र बैद्य इसके प्रधान मंत्री.

इस समिति का नामकरण भी हिन्दी या हिन्दुस्तानी की जगह राष्ट्रभाषा के नाम पर रखने के पीछे एक रणनीति रही है. दरअसल अभी वर्धा समिति को कार्य करते ढाई वर्ष ही हुए थे कि गाँधी जी की ‘हिन्दुस्तानी’ और टंडन जी की ‘हिन्दी’ का विवाद शुरू हो गया था. काका कालेलकर जैसे मनीषी भी ‘हिन्दुस्तानी’ के पक्ष में थे और उन्होंने ‘सबकी बोली’ का संपादन किया तो उसमें हिन्दुस्तानी का जोर शोर से समर्थन किया. ऐसी दशा में प्रत्येक मुद्दे पर बहुत सोच समझ कर कदम उठाने की जरूरत थी. समिति के मंत्री श्रीमन्नारायण ने लिखा, “शब्दों के झगड़े में बिना पड़े ‘राष्ट्रभाषा’ कहकर ही हम अपना काम चलाते आए हैं.

अगर जिस भाषा को सम्मेलन ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ कहता है, उसी भाषा को ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाए तो हम उसका विरोध नहीं करते. हाँ, अगर ‘हिन्दुस्तानी’ का मतलब अरबी-फारसी से लदी हुई ठेठ उर्दू हो तो हम उसे कबूल नहीं कर सकते, क्योंकि हम जानते हैं कि हिन्दुस्तान की तमाम प्रान्तीय भाषाओं में संस्कृत से निकले हुए ( तद्भव) शब्द ही अधिक पाए जाते हैं. अरबी और फारसी के जो शब्द हिन्दी और हिन्दुस्तान की अन्य भाषाओं में घुल मिल गए हैं उनका बहिष्कार करना तो हम स्वप्न में भी नहीं सोचते.

भाषा- शास्त्र की दृष्टि से यह झगड़ा टिक नहीं सकता. हम ऐसी भाषा का प्रचार करें, जिसको हिन्दुस्तान के अधिक से अधिक लोग आसानी से समझ सकें. इस भाषा में ज्यादातर संस्कृत से निकले हुए देशज शब्दों को तो रखना ही होगा, लेकिन अरबी, फारसी और धीरे- धीरे प्रान्तीय भाषाओं  के भी कुछ सुन्दर शब्द आ ही जाएंगे. हम शुद्ध राष्ट्रीय दृष्टि से काम करते जाएं और शब्दों के झगड़े में न पड़ें.” ( उद्धृत, हिन्दी की विकास यात्रा, केशव प्रथमवीर, पृष्ठ-40)

निस्संदेह,  ‘हिन्दी’ और ‘हिन्दुस्तानी’ के झगड़े से बचने के लिए ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का इस्तेमाल निरापद था क्योंकि आजाद भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर उस भाषा को आसीन करने के मुद्दे पर लगभग सभी गाँधीवादी सहमत थे. इसके बावजूद हिन्दुस्तानी के समर्थन में कुछ संगठन भी बने और इस झगड़े का अंत तब हुआ जब देश का बँटवारा हो गया. दरअसल गाँधी जी हर कीमत पर हिन्दू- मुस्लिम एकता स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि उसी के बल पर राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाया जा सकता था. अंत में जब उनकी इच्छा के विरुद्ध देश बँट गया तो फारसी लिपि और हिन्दुस्तानी का मुद्दा कमजोर पड़ गया. इन्हीं दिनों हिन्दुस्तानी की समर्थक और गाँधी जी की प्रिय सहयोगी रेहाना बहन तैयब जी ने गाँधी जी को लिखा,

“15 अगस्त के बाद दो लिपि के बारे में मेरे ख्याल बिल्कुल बदल गए और अब पक्के हो गए हैं. मेरे ख्याल से अब वक्त आ गया है कि इस दो लिपि के सवाल पर खुल्लम खुल्ला और आमतौर से साफ- साफ चर्चा हो. इसलिए अगर आप ठीक समझें तो इस खत को ‘हरिजन’ में छापकर उसपर चर्चा करें. जब तक हिन्दुस्तान अखण्ड था और उसे अखण्ड रखने की उम्मीद थी, तब तक नागरी लिपि के साथ उर्दू लिपि को चलाना मैं उचित बल्कि जरूरी मानती थी.

आज हिन्दुस्तान, पाकिस्तान दो  अलग राज्य बन गए हैं. ‘हिन्दुस्तानी’ हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा और नागरी हिन्दुस्तान की खास और मान्य लिपि- फिर नागरी के साथ उर्दू के गठबंधन की क्या जरूरत है ? इस सवाल पर मैं बराबर विचार करती रही हूँ और अब मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि हिन्दुस्तान पर उर्दू लिपि लादने में इतना ही नहीं कि कोई फायदा नहीं, बल्कि सख्त नुकसान है. मैं मानती हूँ कि……. मुसलमानों को अगर आप वफादार हिन्दुस्तानी बनाना चाहते हैं तो उनमें बाकी के हिन्दुस्तानियों में अब कोई फर्क नहीं करना चाहिए.  अगर वे हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं तो और हिन्दुस्तानियों की तरह रहें, हिन्दुस्तानी सीखे, नागरी सीखें. ………..  हम हिन्दुस्तानियों का यही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी, हमारी राष्ट्रलिपि देवनागरी. बस.” ( उद्धृत, उपर्युक्त, पृष्ठ-51-52)

कहना न होगा, गाँधी जी ने रेहाना बहन तैयबजी का वह पूरा पत्र अपने ‘हरिजन सेवक’ के 9 नवंबर 1947 के अंक में प्रकाशित किया था. क्या इससे पत्र के प्रति गाँधी जी की सहमति प्रमाणित नहीं होती ?

बाद में जब हमारा संविधान लागू हुआ तो उसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली ‘हिन्दी’ को संघ की राजभाषा घोषित कर दिया गया और इसके बाद हिन्दी-हिन्दुस्तानी तथा नागरी-फारसी का झगड़ा गौण हो गया.

गठन के बाद समिति के पदाधिकारी, जिनमें आचार्य काका कालेलकर, मोटूरि सत्यनारायण, श्रीमन्नारायण अग्रवाल, पं. हरिहर शर्मा तथा दादा धर्माधिकारी आदि प्रमुख थे, ने विभिन्न प्रदेशों में व्यापक दौरे किए. परिणामस्वरूप गठन के आरंभिक तीन-चार वर्षों में ही विभिन्न प्रान्तों में उसके संगठन खड़े हो गये जिससे आगे का मार्ग आसान हो गया. समिति के पूर्व प्रधान मंत्री अनंतराम त्रिपाठी के अनुसार आज जोरहाट ( असम), कोलकाता (प. बंगाल), कटक ( उड़ीसा), नागपुर ( विदर्भ), जयपुर ( राजस्थान), मुंबई ( महाराष्ट्र), अहमदाबाद (गुजरात), पुणे ( महाराष्ट्र), शिलांग (मेघालय), बेलगाँव (कर्नाटक), औरंगाबाद, (महाराष्ट्र) भोपाल( मध्य प्रदेश), इंफाल ( मणिपुर ), मडगाँव (गोवा), उत्तर लखीमपुर( असम), नई दिल्ली, दीमापुर (नागालैंड), जम्मू ( जम्मू-कश्मीर), गुड़गाँव ( हरियाणा), उत्तर 24 परगना ( प. बंगाल), रागना-धर्म नगर ( त्रिपुरा), लुंगलेई ( मिजोरम), रायपुर ( छत्तीसगढ़) में समिति की प्रान्तीय समितियाँ हैं. इस तरह समिति का मुख्यालय तो वर्धा में है किन्तु हिन्दी के प्रचार का सुचारु संपादन के लिए 23 प्रान्तीय समितियाँ कार्य कर रही हैं. इनमें अनेक समितियों के अपने- अपने भवन भी हैं.

1938 में समिति ने हिन्दी की परीक्षाएं लेने का काम दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अवकाश प्राप्त प्रधान मंत्री पं. हरिहर शर्मा के नेतृत्व में शुरू किया. आज भी समिति का सबसे बड़ा विभाग, परीक्षा विभाग ही है. वर्ष में दो बार फरवरी -अप्रैल तथा सितंबर में परीक्षाएं ली जाती हैं.

हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए समिति ने परीक्षाएं तो अनेक चलायीँ, किन्तु जिन परीक्षाओं का विशेष प्रचार हुआ, वे हैं, ‘राष्ट्रभाषा प्राथमिक’, ‘राष्ट्रभाषा प्रवेश’, ‘राष्ट्रभाषा परिचय’ और ‘राष्ट्रभाषा कोविद’. ‘राष्ट्रभाषा कोविद’ समिति की पहली उपाधि परीक्षा है. आगे चलकर दो अन्य उच्च स्तरीय परीक्षाएं आरंभ की गईं- ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ परीक्षा शुरू करने के पीछे उद्देश्य था कि योग्य हिन्दी प्रचारक तथा योग्य हिन्दी शिक्षक तैयार हो सकें. ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’, समिति की सर्वोच्च उपाधि परीक्षा है. ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ परीक्षा 1944 से आरंभ हुई और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’ 1960 से. इन परीक्षाओं में ‘कोविद’ इंटर के समकक्ष, ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ बी.ए. के समकक्ष और ‘राष्ट्रभाषा आचार्य’ एम.ए. के समकक्ष मान्यता प्राप्त है. किन्तु अब धीरे- धीरे इन परीक्षाओं का महत्व बहुत घट गया है और इसीलिए परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घट रही है.

हिन्दी शिक्षक और हिन्दी प्रचारक तैयार करने के लिए समिति ने 1937 में ‘राष्ट्रभाषा अध्ययन मंदिर’ की स्थापना की. 18 जनवरी 1951 को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने ‘राष्ट्रभाषा भवन’ का शिलान्यास किया तथा 1952 में ‘राष्ट्रभाषा महाविद्यालय’ की स्थापना की गई. इस महाविद्यालय में ‘राष्ट्रभाषा रत्न’ तथा ‘अध्यापन-विशारद’ की पढ़ाई की व्यवस्था की गई. समिति के परिसर में हिन्दी माध्यम से किशोर भारती, उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा राष्ट्रभाषा माध्यमिक विद्यालय भी संचालित हैं जिसे राज्य शासन की मान्यता हासिल है.

समिति ने ‘भारत भारती’ नामक 13 भाषाओं की 13 छोटी- छोटी पुस्तकें प्रकाशित की हैं. सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया है. इन पुस्तकों के द्वारा इन तेरह भाषाओं में से किसी भी भाषा का सामान्य ज्ञान आसानी से अर्जित किया जा सकता है. इसके अलावा समिति की ओर से सभी परीक्षाओं में संपूर्ण भारत में प्रथम व द्वितीय स्थान पाने वाले परीक्षार्थियों को सम्मानित व पुरस्कृत भी किया जाता है.

अपने आरंभिक काल में लोगों तक अपनी बात पहुँचाने तथा संपर्क सूत्र के लिए समिति ने ‘सबकी बोली’ पत्रिका निकाली थी. 1941 में ‘सबकी बोली’ के स्थान पर ‘राष्ट्रभाषा समाचार’ निकाला जाने लगा, जिसने 1943 में ‘राष्ट्रभाषा’ का आकार ले लिया. ‘राष्ट्रभाषा’ पत्रिका आज भी नियमित रूप से निकल रही है.

समिति के पास एक अतिथि भवन भी है जिसे पहले ‘रोहित कुटी’ कहते थे. भदंत आनंद कौसल्यायन इसमें लंबे समय तक रहे .इसीलिए इसे आज ‘आनंद कुटी’ कहा जाता है. समिति का एक सभा भवन है जिसमें बैठकें और विविध आयोजन होते रहते हैं.

प्रकाशित पुस्तकों को विद्यार्थियों तथा सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए 1937 में पुस्तक बिक्री विभाग खोला गया था. हिन्दी के प्रचार- प्रसार में इस विभाग की भी ऐतिहासिक भूमिका रही है. यह विभाग आज भी मंथर गति से चल रहा है.

1946 में समिति ने अपना प्रेस खोला. आरंभ में हैंड कंपोजिंग की व्यवस्था थी. बाद में बढ़ते हुए काम के दबाव में स्वचालित मोनो टाइप एवं सुपर कास्टर मशीन खरीदी गई. छपाई में तकनीकों के विकास के साथ ही समिति प्रेस को यथासंभव आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही है.

समिति के पास 30 हजार से भी अधिक पुस्तकों का एक समृद्ध ‘राष्ट्रभाषा पुस्तकालय’ है. 1937 में ही इसका शुभारंभ हुआ था. महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के शोधार्थी भी इस पुस्तकालय का लाभ उठाते हैं. वर्धा शहर में सेठ जमनालाल बजाज ने 1929 में ‘हिन्दी मंदिर पुस्तकालय’ के नाम से एक पुस्तकालय की स्थापना की थी. 1954 में इस पुस्तकालय की देख- रेख का दायित्व समिति को सौंप दिया गया. तबसे समिति ही इसका भी देखभाल करती है. इस पुस्तकालय में भी लगभग दस हजार पुस्तकें हैं.

1949 में समिति ने अपने हिन्दी प्रचारकों और शिक्षकों का एक सम्मेलन वर्धा में आयोजित किया था. सम्मेलन बहुत सफल रहा और हिन्दी प्रचारकों ने अपने अनुभव साझा किये. उन्होंने प्रचार कार्य में आने वाली कठिनाइयों के विषय में भी आपस में विचार विमर्श किया. इसके बाद से लगभग हर वर्ष अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन के आयोजन की कोशिश होती रही है और 2010 तक समिति की ओर से बीस सम्मेलन हो चुके थे.

समिति की ओर से प्रतिवर्ष ऐसे किसी हिन्दीतर भाषी विद्वान को “महात्मा गाँधी पुरस्कार” भी दिया जाता है जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा हिन्दी की उल्लेखनीय सेवा की हो.  जिन विद्वानों को यह पुरस्कार मिल चुका है उनमें आचार्य क्षितिमोहन सेन, महर्षि श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, बाबूराव विष्णु पराड़कर, विनोबा भावे, काका कालेलकर, अनंतगोपाल शेवड़े, रांगेय राघव, दादा धर्माधिकारी, पाँडुरंग शास्त्री आठवले आदि प्रमुख हैं.

हमारा देश 14 सितंबर को जो ‘हिन्दी दिवस’ मनाता है उसके प्रस्ताव और क्रियान्वयन का श्रेय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति को ही है. समिति का पाँचवाँ राष्ट्रभाषा सम्मेलन 10-11 नवंबर 1953 को नागपुर में हुआ था. इसी सम्मेलन में पारित प्रस्ताव संख्या-6 इस तरह है,

“यह सम्मेलन निश्चय करता है कि स्वतंत्र भारत के संविधान ने जिस दिन हिन्दी को राजभाषा तथा देवनागरी को राष्ट्रलिपि स्वीकार किया है, उस दिन अर्थात्14 सितंबर को संपूर्ण भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाए.”

उक्त प्रस्ताव के अनुसार राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रधान मंत्री श्री मोहनलाल भट्ट ने 14 सितंबर 1954 को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाने के लिए दिनांक 30.11.1953 को एक पत्र प्रान्तीय समिति, जिला समिति, नगर समितियों के अतिरिक्त देश के तमाम कार्यालयों तथा विशिष्ट व्यक्तियों के पास भेजा. इस पत्र को उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा’ के दिसंबर 1953 के अंक में प्रकाशित भी किया. उनकी इस अपील का व्यापक असर हुआ और 14 सितंबर 1954 को पहला ‘हिन्दी दिवस’ संपूर्ण भारत में बड़े उत्साह के साथ मनाया गया. इस अवसर पर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर देश के तमाम गणमान्य व्यक्तियों, साहित्यकारों तथा हिन्दी प्रेमियों के शुभ संदेश प्राप्त हुए. तभी से ‘हिन्दी दिवस’ मनाने की परंपरा चल पड़ी.

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के प्रांगण में इस दिन प्रभात फेरी होती है, जुलूस निकाले जाते हैं तथा विभिन्न साहित्यिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. इस दिन समिति के प्रांगण में निम्नलिखित प्रतिज्ञा भी करायी जाती है-

1.      हम अपना प्रतिदिन का कार्य मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा हिन्दी में करेंगे.

2.      हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गौरवशालिनी भाषा बनाएंगे.

3.      राष्ट्रभाषा हिन्दी और देवनागरी लिपि का संदेश घर-घर पहुँचाकर राष्ट्रीय एकता की भावना को दृढ़ करेंगे.

4.      राष्ट्रभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के विकास को एक-दूसरे का पूरक मानकर दोनों का विकास करेंगे.

5.      “एक हृदय हो भारत जननी” के मूल मंत्र को राष्ट्रभाषा के प्रचार द्वारा सफल बनाएंगे.

इसी तरह विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन के पीछे भी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की ही केन्द्रीय भूमिका है. समिति की 29 सितंबर 1973 की बैठक में विश्व हिन्दी सम्मेलन को मूर्त रूप देने का निर्णय लिया गया. उन दिनों मधुकरराव चौधरी समिति के अध्यक्ष थे. जनवरी 1974 के प्रथम सप्ताह में समिति की ओर से एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से मिला और उनके सामने विश्व हिन्दी सम्मेलन की योजना को औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया. मई 1974 में भारत सरकार की ओर से इस योजना को स्वीकृति मिली और नागपुर में 10-14 जनवरी 1975 को पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के तत्वावधान में सम्पन्न हुआ. इस सम्मेलन का उद्घाटन किया था तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने और अध्यक्षता की थी मारीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने.

इस सम्मेलन में तीन ऐतिहासिक निर्णय लिए गये-

1.      राष्ट्रसंघ में हिन्दी को मान्यता प्रदान की जाय.

2.    विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की कर्मभूमि वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के तत्वावधान में हो.

3.   विश्व हिन्दी सम्मेलन का कार्य आगे बढ़ाने की दृष्टि से विश्व हिन्दी अंतररराष्ट्रीय सचिवालय स्थापित किया जाय ताकि जो उपलब्धियाँ इस सम्मेलन के माध्यम से प्राप्त हुई हैं उन्हें  कुछ स्थायित्व मिले और जो वातावरण बना है, वह अधिक दृढ़ और अनुकूल बनता जाए.

उक्त निर्णयों के फलस्वरूप ही महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना वर्धा में हुई और मारीशस में अंतरराष्ट्रीय हिदी सचिवालय की. हाँ, संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को आधिकारिक दर्जा मिलना अभी बाकी है.

निस्संदेह हिन्दी की प्रतिष्ठा और विकास में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की भूमिका ऐतिहासिक है, किन्तु आज उसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है. समिति के प्रधान मंत्री हेमचंद्र बैद्य ने एक बात-चीत में बताया कि उनके आग्रह पर कुछ वर्ष पहले उद्योगपति राहुल बजाज ने समिति को एक करोड़ रूपये की धनराशि अनुदान के रूप में दिया था जिससे मेस तथा कुछ अन्य भवनों का पुनरुद्धार हो सका. उल्लेखनीय है कि समिति के पहले कोषाध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज थे. उन्हीं की प्रेरणा से कानपुर के सेठ पद्मपत सिंहानिया ने इसका प्राथमिक व्यय भार उठाया.  उन दिनों उन्होंने किश्तों में पचहत्तर हजार रूपए प्रदान किए थे जिससे समिति का कार्य आगे बढ़ा. किन्तु आज हिन्दी के लिए राहुल बजाज जैसे दाता कितने हैं ? सरकार से हमारी गुजारिश है कि समिति की स्वायत्तता बरकरार रखते हुए उसके लिए यथोचित और नियमित अनुदान की व्यवस्था करे ताकि ऐतिहासिक महत्व की यह संस्था आगे भी अपनी  भूमिका निभा सके.

समिति जहाँ स्थित है उसे ‘हिन्दी नगर’ कहा जाता है. समिति के वर्तमान अध्यक्ष प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने बताया कि समिति के पास सेठ जमनालाल बजाज की कृपा से प्राप्त 17 एकड़ भूमि है.

देश के राष्ट्रभाषा प्रेमियों से भी अपील है कि वे इस ऐतिहासिक महत्व की संस्था के उद्धार के लिए आवाज उठाएं और यथासंभव सहयोग करें.

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)       


एमएल गुप्ता- वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई द्वारा प्रेषित
vaishwikhindisammelan@gmail.com 

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