भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद हिंसा का असर दिखने लगता है। इससे सबसे नुकसान केन्द्र और राज्य सरकारों के घाटी में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की कोशिशों को हुआ है। प्रधानमंत्री के पैकेज के तहत 2010 से कश्मीर में तैनात 1,673 पंडितों में से जान का खतरा बताकर करीब 200 वापस जम्मू लौट चुके हैं।
जम्मू के राहत कमिश्नर आरके पंडित ने ऐसे पंडितों की सटीक संख्या से अनभिज्ञता जताई, मगर यह माना कि ‘उनमें से कुछ वापस आ गए हैं।’ उन्होंने कहा, ”यह अस्थायी चरण है।” इस बात पर जोर देते हुए कि एक कर्मचारी को अपनी पोस्टिंग की जगह पर ही काम करना होगा। उन्होंने कहा, ”सरकारी नौकरी कबूल करते वक्त, सभी ने घाटी में काम करने की इच्छा जाहिर करता बॉन्ड दिया है।”
जम्मू में पाेस्टिंग की मांग करते कर्मचारियों में से कोई भी वापस लौटने को तैयार नहीं दिखता। वे बताते हैं कि जब उन्होंने ड्यूटी ज्वाइन की थी, तब स्थानीय मुस्लिमों ने उन्हें बताया कि जगमोहन (पूर्व गवर्नर) की वजह से उनके पूर्वजों को घाटी छोड़नी पड़ी। कर्मचारियों ने कहा, ”वहां काम करने के बाद, अब हम जानते हैं कि उन्हें कश्मीर से बाहर किसने निकाला।” वित्त मंत्रालय में अकाउंट्स असिस्टेंट के तौर पर काम करने वाले हरीश भारती बताते हैं, ”लोगों ने हर जगह टायर जलाकर और बिजली के खंभे गिराकर बैरिकेड्स बना रखे हैं। हमने मट्टान कस्बे में ही आधा दर्जन से ज्यादा बैरियर तोड़े ताकि यहां आ सके। जम्मू आने के लिए हमें 4-700 रुपए की बजाय 2,500 रुपए किराया देना पड़ा।”
घाटी में अपने घर वापस लौटने की इच्छा रखने वाले विस्थापित कश्मीरी पंडितों के बच्चों के लिए 2008-09 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 6,000 पदों की घोषणा की थी। इनमें से राज्य सरकार अब तक 1,673 पद ही भर सकी है।