दो टूक : कहते हैं अपराध एक ऐसा कानूनी पेंच हैं जो किसी अपराधी को रास्ता भी देता और उसे अपनी गिरफ्त में भी ले लेता है। यही नहीं वो पूछता भी नहीं कि कोई क्यों अपराध की दुनिया से जुड़ा है। बस उसे तो उसे अपनी ताकत बतानी होती है। य़े अलग बात है कि इसके बावजूद कुछ लोग उसे चुनौती देकर उसके सामने आ खड़े होते हैं। निर्देशक राम गोपाल वर्मा की नयी फ़िल्म सत्या टू भी एक युवक के क़ानून को धता बताकर खुद को उसका प्रतिद्वंदी बना देने की कहानी से जुडी है। फ़िल्म में पुनीत सिंह रत्न ,अनायिका सोती , आराधना गुप्ता , महेश ठाकुर , राज प्रेमी , अमल सेहरावत , कौशल कपूर और विक्रम सिंह की भूमिकाएं हैं।
कहानी : फ़िल्म की कहानी सत्या [पुनीत सिंह] के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपने गांव से मुंबई आता है। नक्सली बताकर उसके पिता की ह्त्या उसे मुम्बई में संगठित अपराद का एक गिरोह यानि कम्पनी बनाने की और अगरसर करती है और मुंबई में वह अपने बचपन के दोस्त नारा[अमृतियाँ ] के साथ वो बिल्डर पवन लहोटी [महेश ठाकुर] के जरिए वह पूर्व गैंगस्टर आर.के. [राज प्रेमी ] में और दूसरे बिल्डर संघी के संपर्क में आता है। उसका परिवार ,सत्या का दोस्त नारा, उसकी प्रेमिका चित्रा [अनायिका सोत ] और नारा की प्रेमिका [आराधना गुप्ता ] सत्या की हकीकत से अंजान है। लेकिन धीरे धीरे जब हकीकत खुलती है, तब शुरू होता है खून™खराबे और रिश्तों में भारी उथल™पुथल का सिलसिला। फ़िल्म में अशोक समर्थ , कौशल कपूर और विक्रम सिंह की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
गीत संगीत : फ़िल्म में संजीव और दर्शन राठौड़ के साथ नितनी रायकवार, श्री डी और कार्य अरोरा माँ संगीत और कुमार , नितिन, मोदी इल्हाम , सोनि रावण के साथ श्री डी और कार्य अरोरा का गीत हैं लेकिन साथी रे साथी जैसे गीत को छोड़ दिया जाए तो सबसे भारी जैसी बोलों वाले गीतों में भी कोई खास दम नहीं है।
अभिनय : फ़िल्म के केंद्र में पुनीत सिंह हैं। उन्होंने मेहनत तो की है पर सत्या जैसे चरित्र के लिए वो एक कमजोर अभिनेता हैं। हाँ उनका आत्मविश्वास दिखाई देता है। अनायिका सोती के लिए करने को कुछ नहीं था वो बस हंसती और होंटो को दबाती रही। जबकि उनके साथ स्पेशल के नाम से फ़िल्म में सहनायिका बनी आराधना गुप्ता अच्छी लगती हैं। . महेश ठाकुर ने पहली बार नेगेटिव भूमिका की है पर वो निराश नहीं करते। हाँ अशोक समर्थ को रामू ने व्यर्थ कर दिया जबकि पुरुषोतम के नाम से जिस अभिनेता को ज्यादा फूटेज दिया गया वो कुछ ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ते। नारा के पात्र को अभिनीत करने वाले अभिनेता अमित्रियाँ ठीक लगते हैं। राज प्रेमी जाने पहचाने हैं और उनके बेटे बने अमल सेहरावत अतिरेकता के शिकार रहे।
निर्देशन : राम गोपाल वर्मा को गैंगस्टर फिल्मों का उस्ताद कहा जाता है लेकिन सत्या, कम्पनी और सरकार जैसी फ़िल्में बनाने वाले रामू में अब वो रचनाशीलता नहीं रही। इस फ़िल्म में भी वो कुछ नया नहीं कर पाये हैं। उनकी फ़िल्म अपनी ही कुछ फिल्मों का दोहराव लगती है और अपनी बात कहने में समर्थ नहीं लगती। फ़िल्म में कोई जिज्ञासा भी नहीं है और न ही अपने पात्रों के लिए कोई नया रचाव और विस्तार। फ़िल्म उनकी ही तेलगु फ़िल्म का हिंदी संस्करण है और नबे के दशक में आयी सत्या के मुकाबले कमजोर भी। पर वो एक स्टइलिस्ट गैंगस्टर फ़िल्म है जो किसी आदर्शवाद की बात नहीं करती और अपराध को संगठित तरीके से कम्पनी बनाकर उसे जारी रखने लेकिन आम आदमी के साथ जबर्दस्ती ना करने की पैरवी करती है। फ़िल्म में तेज संगीत है और पात्रों में कोई आकर्षण भी नहीं है पर रामू की फ़िल्म है तो एक बार जरुर देखिये।
फ़िल्म क्यों देखें : रामू की फ़िल्म है।
फ़िल्म क्यों न देखें : रामू और पहली सत्या से कोई मेल नहीं खाती।