व्यक्ति अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने के लिये समाज से जुड़कर जीता है, इसलिए समाज की आंखों से वह अपने आप को देखता है। साथ ही उसमें यह विवेक बोध भी जागृत रहता है ‘मैं जो भी हूं, जैसा भी हूं’ इसका मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। उसके अच्छे बुरे चरित्र का बिम्ब समाज के दर्पण में तो प्रतिबिम्बित होता ही है, उसका स्वयं का जीवन भी इसकी प्रस्तुति करता है। हमारी जिंदगी उतार-चढ़ावों से भरी होती है। और हम सब सोचते हैं कि यदि अवसर मिलता तो एक बढि़या और नेक काम करते। लेकिन हमारी बढि़या या नेक काम करने की इच्छा अधूरी ही रहती है क्योंकि अक्सर जब हम जिंदगी के बुरे दौर से गुजरते हैं, तब उससे निकलने में और जब अच्छे दौर में होते हैं, तब उस स्थिति को बरकरार रखने में जिन्दगी बिता देते है।
हमारे संकल्प और हमारे आदर्श सांसारिक जीवन के बंधनों में बंधे रहने के बजाय उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बढ़ना चाहते हंै, लेकिन मन की इच्छाएं इसके विपरीत होती हैं। इन दोनों में लगातार संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में जीत अक्सर मन की इच्छाओं की ही होती है। इसका कारण यह है कि इच्छाओं की मांगें पूरी करने में मनुष्य को तुरंत सुख और आनंद मिलता है। इसके विपरीत आदर्श को जीने या आदर्श की अपेक्षाओं को पूरा करने में मनुष्य को शुरुआती दौर में अपने सुख और आनंद का बलिदान करना होता है। इसलिए लोग सामान्यतया ऐसा करने से बचते हैं। अगर यही स्थिति लंबे समय तक बनी रहे और आदर्श की अपेक्षाओं को दबाया जाता रहे, तो धीरे-धीरे आदर्श की उड़ान समाप्त होने लगती है। महान और आदर्श काम करने के लिए अक्ल से ज्यादा दिलेरी की जरूरत होती है और यह दिलेरी लुप्तप्राय होती जा रही है। आज लगभग देश और दुनिया इसी आदर्शहीनता के स्थिति से ही मुखातिब है। इसीलिये हेलन केलर ने प्रेरणा देते हुए कहा है कि कभी अपने सिर को झुकने मत दो। अपना सिर हमेशा ऊंचा उठाये रखो। दुनिया की आंखों में आंखें डाल कर देखो।
मैंने अपने जीवन में आदर्श एवं नैतिकता की आदर ओढ़कर अपने जीवन को सार्थक करते हुए लोगों को भी देखा है और ऐसे लोगों को भी देखा है जिनका मानना है कि आदर्श एवं नैतिकता से कोरी झोपडि़या बनायी जा सकती है, महल खड़े नहीं हो सकते हंै। इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज जो-जो विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यो-त्यो आदर्श धूल-धूसरित होे रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, हर दौर में अच्छे, ईमानदार और आदर्शवादी व्यक्ति मौजूद होते हैं। अपने जीवन में जब भी हम ऐसे गुणों का निर्वाह करते हैं, तो इससे न केवल हमारे चेहरे पर संतुष्टि का भाव झलकने लगता है, बल्कि हमारे व्यक्त्तिव में भी उसकी गरिमा दिखाई पड़ती है। जैसा कि किसी ने कहा है-‘‘जीवन बस एक दर्पण है और बाहर की दुनिया अंदर की दुनिया का प्रतिबिम्ब है।’’ एक बार अपने अंदर सफलता प्राप्त कर लें, बाहर खुद-ब-खुद वह प्रतिबिम्बित होगा।
प्रश्न उठता है कि अच्छाई, ईमानदारी और आदर्श आदि उदात्त गुणों के निर्वाह से हमारे चेहरे पर सकारात्मक भाव क्यों और कैसे प्रकट हो जाते हैं? क्या इन भावों का हमारे स्वास्थ्य और विचारों से भी कोई संबंध है? अपने बीते हुए दिनों और घटनाओं पर जरा नजर डालिए। आपने भी अपने जीवन में कई बार इन अच्छाइयों का परिचय दिया होगा। उस समय आपकी मनोदशा कैसी थी और उस मनोदशा का आपके स्वास्थ्य और विचारों पर क्या प्रभाव पड़ा था? निश्चित ही आपका उत्तर सकारात्मक होगा क्योंकि आप या तो इस बात पर सिर धुन सकते हैं कि गुलाब में कांटे हैं या इस पर खुश हो सकते हैं कि कांटों से भी गुलाब खिलते हैं। जब भी हम ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, किसी की मदद करते हैं अथवा कोई अच्छा कार्य करते हैं, तो उससे अपने भीतर हम अपार संतोष महसूस करते हैं। तब वही भाव हमारे चेहरे और विचारों पर भी झलकने लगता है। इससे हमारे पूरे व्यक्तित्व में एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। संतुष्टि और आनंद की अवस्था में व्यक्ति तनावमुक्त रहता है और इसलिए स्वस्थ रहता है। यह अवस्था मनुष्य के अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ एक सफल एवं सार्थक जीवन की परिचायक है। इलेनोर रूजवेल्ट के ये शब्द मार्मिक लगेंगे-‘‘आखिरकार जीवन का उद्देश्य उसे जीना और इष्टतम अनुभवों को हासिल करना, नए और समृद्ध अनुभवों को उत्सुकता से और निर्भर होकर आजमाना है।’’ इसलिए अपने लिए एक नई राह बनाएं, ताकि अपने जीवन को भरपूर जी सकें।
आजकल भगवान की आराधना का रिश्ता केवल मतलब का होता है जब कभी कुछ चाहिए दौड़कर भगवान के आगे हाथ फैलाकर मांग लिया। मांगने से भगवान देनेवाला नहीं है। भगवान उन्हीं को देता है जो एकाग्रता और पवित्रता के साथ अपना कर्म करते है, जिसमें परोपकार की भावना होती है। कहीं दूर जा अगरबत्तियां जलाकर पूजा करने से बेहतर है कि अपने आसपास वालों से रहमदिली से पेश आएं, उनके दुःखों को दूर करने में सहयोगी बने। यही आध्यात्मिक सोच आसपास विश्वास की जोत जगाती है। जहां इस तरह का विश्वास सच में, प्यार में, व्यवस्था में, कर्म में, लक्ष्य में होता है, वहां आशा जीवन बन जाती है। इसके वितरीत जब कभी इंसान के भीतर द्वंद्व चलता है तो जिंदगी का खोखलापन उजागर होने लगता है।
अक्सर आधे-अधूरे मन और निष्ठा से हम कोई भी कार्य करते हैं तो उसमें सफलता संदिग्ध हो जाती है। सफलता या ऊंचाइयों आप तभी पा सकते हैं, जब अपना काम करते हुए इस बात को नजरअंदाज कर दें कि इसकी वाहवाही किसे मिलेगी? हम तो मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च में जाकर भी अपने धनबल, बाहुबल या सत्ताबल के आधार पर लम्बी-लम्बी लाइनों के बजाय वीआईपी दर्शन करके लौट जाते हैं। क्या हमारा ईश्वर से मिलने का यह तरीका परिणामकारी हो सकता है? हम हमारी आस्था या भगवान के प्रति निष्ठा को सस्ता न बनने दें। हमें अपना हर काम इस तरह करना चाहिए, जैसे हम सौ साल तक जीयेंगे, पर ईश्वर से रोजाना प्रार्थना ऐसे करनी चाहिए, जैसे कल हमारी जिंदगी का आखिरी दिन हो। जब हम ईश्वर के प्रति इतने पवित्र एवं परोपकारी बनकर प्रस्तुत होंगे तभी जीवन को सार्थकता तक पहुंचा सकेंगे। वैसे भी अमीर वह नहीं है, जिसके पास सबसे ज्यादा है, बल्कि वह है, जिसे और कुछ नहीं चाहिए। सच्चाई तो यही है कि जिसे और कुछ नहीं चाहिए वही सच्चे रूप में ईश्वर से साक्षात्कार की पात्रता अर्जित करता है।
जिन्दगी तो सभी जीते हैं, लेकिन यहां बात यह मायने नहीं रखती कि आप कितना जीते हैं, बल्कि लोग इसी बात को ध्यान में रखते हैं कि आप किस तरह और कैसे जीते हैं। जीवन में आधा दुख तो इसलिए उठाते फिरते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते हैं कि सच में हम क्या हैं? क्या हम वही है जो स्वयं को समझते हैं? या हम वो हैं जो लोग समझते हैं।
जिंदगी का कोई लम्हा मामूली नहीं होता, हर पल वह हमारे लिए कुछ-न-कुछ नया पेश करता रहता है-जब हमारी ऐसी सोच बनती है तभी हम अपने आप से रूबरू होते। स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के बिना हमारी लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में हम औरों के मुहताज बनते हैं, औरों का हाथ थामते हैं, उनके पदचिन्ह खोजते हैं। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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