राजनांदगांव। डॉ. चन्द्रकुमार जैन ने कहा है कि हिंदी कविता के महानतम हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध का छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव शहर से गहरा नाता रहा है। याद रहे कि सन 1958 से मृत्यु पर्यन्त वे राजनांदगांव दिग्विजय कालेज में अध्यापन करते रहे। यहीं उनके तत्कालीन आवास स्थल को मुक्तिबोध स्मारक के रूप में यादगार बनाकर वहां हिंदी के दो अन्य साहित्यकार डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और डॉ.बलदेव प्रसाद मिश्र की स्मृतियों को संजोते हुए सन 2005 में एक सुन्दर संग्रहालय की स्थापना भी की गई, जिसे समग्र हिंदी जगत ने सदी की अनोखी उपलब्धि निरूपित किया है।
बहरहाल मुक्तिबोध की जन्म शती जयन्ती पर उनके स्मारक की स्थापना के एक सक्रिय स्तम्भ रहे डॉ. चन्द्रकुमार जैन ने एक चर्चा में कहा कि राजनांदगांव में मुक्तिबोध ने अपने रचनात्मक जीवन के सर्वाधिक उल्लेखनीय वर्ष बिताए। मुक्तिबोध आदमी को पहचानने में माहिर थे। कोई चमक-दमक दिखाकर या अतिरिक्त आत्मप्रदर्शन से उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता था। दिखावे की प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तियों का उन पर कोई असर नहीं था। इसी तरह वह प्रायः अपने स्तर से बातें करते थे, जिससे नीचे उतारकर मिलना उनके लिए संभव नहीं था। सन 1957 में अनेक महानुभावों सहयोग से राजनांदगांव में दिग्विजय कालेज की स्थापना करने में सफलता मिल गई थी। कालेज की मैनेजिंग कमेटी ने उनके अभिन्न मित्र स्व. शरद कोठारी जी की विशेष पहल पर मुक्तिबोध जी को लेक्चरर नियुक्त कर लिया था।
डॉ. जैन ने इतिहास की मिसालें पेश करते हुए बताया कि मुक्तिबोध के जीवन का अंतिम अध्याय, राजनांदगांव के साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण में बिताया । उनके सृजन की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है। यहाँ आकर उन्होंने सुरक्षा की सांस ली और उन्हें राहत मिली । उनके भीतर स्थायित्व की भावना का उदय हुआ। यहाँ उनका ज्यादातर समय लेखन कर्म में बीता। वह स्वयं कहा करते थे – राजनांदगांव को छोड़कर अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा।
डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने कहा कि मुक्तिबोध वह सिर से पाँव तक कवि थे। उनका व्यक्तित्व ही काव्यमय था। रानीसागर में पाल पर ढलती सांध्य बेला में जो बत्तियां जलतीं उनकी परछाइयों को मुक्तिबोध ज्योतिस्तंभ कहते थे। उस पूरे परिवेश को काव्यमय कहा करते थे। वास्तव में मुक्तिबोध सफलता के दोयम दर्ज़े के तौर तरीकों से पूरी तरह दूर रहे। कभी कोई कपटजाल नहीं रचा। चालाकी और छल-छद्म से जिंदगी की ऊंची मंज़िलों तक पहुँचने का कोई ख़्वाब तक भी नहीं देखा। तभी तो 1960 में राजनांदगांव में लिखी एक कविता में वह दो टूक लहज़े में कह गए – असफलता का धूल कचरा ओढ़े हूँ /इसलिए कि सफलता /छल-छद्म के चक्करदार जीनों पर मिलती है / किन्तु मैं जीवन की / सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ / जीवन की।
डॉ. जैन ने बताया यह भी कि मुक्तिबोध की सही की तलाश उनकी कभी ख़त्म नहीं हुई। तलाश की यह बेकली दिन-रात उनकी आँखों में वह तैरती रही और उन्होंने यहां कह दिया – और, मैं सोच रहा कि /जीवन में आज के / लेखक की कठिनाई यह नहीं है कि / कमी है विषयों की / वरन आधिक्य उनका ही / उसको सताता है / और, वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है। रचनात्मक दबाव को झेलने की अदम्य क्षमता के चलते मुक्तिबोध के कवि को विषयों की कमी कभी नहीं रही। जैसे सारी दिशाओं से पूरी कायनात उन्हें सदैव पुकारती रही कि बहुत कुछ कह देने के बाद भी अभी कुछ तो ऐसा है जो अनकहा रह गया है। और अपने राजनांदगांव में रची गई एक अन्य कविता में मुक्तिबोध ने ऐलान ही कर दिया – नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती /कि वह आवेग-त्वरित काल यात्री है /व मैं उसका नहीं कर्ता /पिता-धाता / कि वह कभी दुहिता नहीं होती /परम-स्वाधीन है, वह विश्व-शास्त्री है /
प्राध्यापक डॉ. चन्द्रकुमार जैन का मानना है कि मुक्तिबोध की कविता और उनकी कीर्ति अनंत काल तक आबाद रहेंगी।