गूगल ने आज डूडल के जरिए महाराष्ट्र के नासिक में जन्मी कार्नेलिया सोराबजी को 151वीं जयंती पर याद किया. डूडल में एक अदालत का चित्र दिखाई दे रहा है जिसके आगे सोराबजी की वकील की पोशाक पहने हुए तस्वीर दिखाई दे रही है. डूडल पर क्लिक करने पर यूट्यूब पर उनकी एक वीडियो दिखाई देती है जिसमें उनके जीवन के बारे में बताया गया है. कार्नेलिया सोराबजी को भारत की पहली महिला बैरिस्टर होने का श्रेय प्राप्त है. वे एडवोकेट होने के साथ ही समाज सुधारक और लेखिका भी थीं. कार्नेलिया सोराबजी के नाम कई उपलब्धियां हैं. वे न सिर्फ भारत और लंदन में लॉ की प्रेक्टिस करने वाली पहली महिला थीं, बल्कि वे बॉम्बे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने वाली पहली युवती, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला और ब्रिटिश यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय भी थीं.
15 नवम्बर 1866 को एक पारसी परिवार में जन्मीं कार्नेलिया को बंबई विश्वविद्यालय में डिग्री कार्यक्रम में दाखिला दिलवाने के लिए उनके पिता ने काफी अहम भूमिका निभाई. काफी कोशिशों के बाद कार्नेलिया को एडमिशन मिल सका. 1892 में नागरिक कानून की पढ़ाई के लिए विदेश गईं और 1894 में भारत लौटीं. उस समय समाज में महिलाएं मुखर नहीं थीं और न ही महिलाओं को वकालत का अधिकार था. ऐसे वातावरण में भी कार्नेलिया ने वकालत करते हुए एडवोकेट बनने की ठानी.
उन्होंने वकालत का काम शुरू करते हुए महिलाओं को कानूनी परामर्श देना आरंभ किया और महिलाओं के लिए वकील का पेशा खोलने की मांग उठाई. आखिरकार 1907 के बाद कार्नेलिया को अपनी इस लड़ाई में जीत हासिल हुई. उन्हें बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम की अदालतों में सहायक महिला वकील का पद दिया गया. कॉर्नेलिया सोराबजी के कई शैक्षिक और करियर संबंधी फैसलों पर उनकी मां का प्रभाव रहा, जो एक प्रभावशाली महिला थीं.
एक लम्बी जद्दोजहद के बाद 1924 में महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को शिथिल कर उनके लिए भी यह पेशा खोल दिया गया. 1929 में कार्नेलिया हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील के तौर पर सेवानिवृत्त हुईं. कार्नेलिया को आदर्श मान प्रेरणा लेते हुए महिलाएं आगे आईं और वे वकालत को एक पेशे के तौर पर अपनाकर अपनी आवाज मुखर करने लगीं. 1954 में कार्नेलिया का 88 की उम्र में निधन हो गया, पर आज भी उनका नाम वकालत जैसे जटिल और प्रतिष्ठित पेशे में महिलाओं की बुनियाद है. उनको सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि ब्रिटेन में भी सम्मान के साथ देखा जाता था.
समाज सुधार और कानूनी कार्य के अलावा उन्होने अनेकों पुस्तकों, लघुकथाओं एवं लेखों की रचना भी कीं. उन्होंने दो आत्मकथाएं- इंडिया कॉलिंग (1934) और इंडिया रिकॉल्ड (1936) भी लिखी हैं. 2012 में, लंदन के प्रतिष्ठित ‘लिंकन इन’ में उनके नाम को शामिल किया गया.