Sunday, November 24, 2024
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‘चे’ गेवारा ः अकेला आदमी जिसने अमरीकी सत्ता को हिला दिया था

एर्नेस्तो ‘चे’ गेवारा. वह शख्स जो कुछ लोगों के लिए हीरो था तो कुछ के लिए हत्यारा. उस पर आरोप लगता था कि वह तीसरा विश्वयुद्ध करवाना चाहता है. अमेरिका और अमेरिकी स्पेशल फोर्सेज उसे ख़त्म करना चाहती थीं, हालांकि उसकी मौत आज भी एक रहस्य है. उसके शव को और भी रहस्यमय तरीके से किसी अनजान जगह पर दफ़नाया गया था. पर जिस व्यक्ति का नामोनिशान अमेरिका और पूंजीवादी ताक़तें मिटा देना चाहती थीं, वह आज एक किंवदंती बन चुका है.

फ्रांस के महान दार्शनिक और अस्तित्ववाद के दर्शन के प्रणेता ज्यां-पॉल सार्त्र ने ‘चे’ गेवारा को ‘अपने समय का सबसे पूर्ण पुरुष’ जैसी उपाधि दी थी. इसके पीछे गेवारा की भाईचारे की भावना और सर्वहारा के लिए क्रांतिकारी लड़ाई का वह आह्वान था जो उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लिए किया था. उनके ये विचार उस ‘नए पुरुष’ के जन्म का सपना थे जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए मेहनत करता है.

अर्जेंटीना में जन्मे एर्नेस्तो गेवारा ने क्यूबा की क्रांति में अहम योगदान दिया था. गेवारा ने ग़ैर साम्राज्यवादी और ग़ैर-पूंजीवादी समाज की कल्पना की थी. इसमें हर कोई बराबर का भागीदार था. उनके इस सपने ने जाने कितने ही युवाओं को सशस्त्र क्रांति की राह पर चलने की प्रेरणा दी.

गेवारा की असल ज़िंदगी वहां से शुरू होती है जब उन्होंने अपने दोस्त, अल्बेर्तो ग्रेनादो के साथ दक्षिण अमेरिका को जानने के लिए तकरीबन दस हज़ार किलोमीटर की यात्रा की. तब उनकी उम्र तकरीबन 23 साल थी. मोटरसाइकल पर की गई यही यात्रा उनकी जिंदगी का वह महत्वपूर्ण पड़ाव थी जिसने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया. इस दौरान उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लोगों को जीने के लिए विषम परिस्थितियों से जूझते हुए देखा. उन्होंने देखा कि कैसे पूंजीवाद ने लोगों को अपने अस्तित्व से अलग कर दिया था. कैसे कुष्ठ रोग से मर रहे मरीज़ों को समाज से अलग-थलग दिया गया था. कैसे खदानों में काम करने वाले मजदूरों का शोषण किया जा रहा था. कैसे समाजवादियों को ख़त्म किया जा रहा था और कैसे पंद्रहवीं शताब्दी की महान ‘इंका सभ्यता’ से जुड़े लोगों को हाशिये पर धकेला जा रहा था. गेवारा ने इस पूरे वृतांत को ‘मोटरसाइकिल डायरीज’ नाम से संस्मरण में कलमबद्ध किया है. इसके अंत में उन्होंने ग़रीब और हाशिये पर धकेले जा चुके लोगों के लिए जीवनभर लड़ने की कसम भी उठाई थी.

1953 में गेवारा अपने शहर ब्यूनस आयर्स लौट आए. कुछ ही वक्त में उनकी पढ़ाई पूरी हो गई और वे डॉ एर्नेस्तो गेवारा बन गए. लेकिन उनका इरादा डॉक्टरी करने का नहीं था. वे पहले ही दुनिया और समाज को बदलने की कसम खा चुके थे. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्हें एक बड़ी जंग लड़नी थी. यह जंग या क्रांति पूंजीवाद के ख़िलाफ़ थी जो अमेरिकी समाज का आधार था. गेवारा जिस व्यवस्था के प्रशंसक थे, कुछ-कुछ वैसी ही व्यवस्था पड़ोसी देश ग्वाटेमाला में तैयार हो रही थी. उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद निश्चय किया कि वे वहां जाकर इस व्यवस्था को करीब से देखेंगे.

ग्वाटेमाला में तब समाजवादी सरकार हुआ करती थी और जहां राष्ट्रपति जैकब अर्बेंज गुजमान बड़े पैमाने पर भूमि सुधार कार्यक्रम लागू कर रहे थे. इन कार्यक्रमों का शिकार अमेरिका की एक बड़ी कंपनी – यूनाइटेड फ्रूट कंपनी भी हुई जिसके पास वहां लाखों एकड़ जमीन थी. इन कार्यक्रमों से अमेरिका के और भी कारोबारी हित प्रभावित हो रहे थे तो आखिरकार अमेरिकी सरकार और सीआईए ने यहां गुजमान सरकार का तख्ता पलट करवा दिया. गेवारा उस समय ग्वाटेमाला में ही थे और गुजमान का समर्थन कर रहे थे. लेकिन तख्तापलट के बाद पकड़े और मारे जाने के डर से वे मैक्सिको आ गए.

ग्वाटेमाला में सरकार के तख्तापलट ने गेवारा के मन में क्रांति की आग और अमेरिका विरोध को और भड़का दिया. लेकिन वे तुरंत कुछ करने की स्थिति में नहीं थे इसलिए मैक्सिको पहुंचकर उन्होंने एक अस्पताल में नौकरी कर ली. इसी दौरान उनकी मुलाकात क्यूबा से निर्वासित फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो से हुई. इस मुलाकात के बाद गेवारा के लिए आगे का रास्ता बिलकुल स्पष्ट हो गया था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब उनका लक्ष्य क्यूबा की अमेरिका समर्थित तानाशाही सरकार को हटाना है. इसके बाद वे फिदेल के साथ क्यूबा की क्रांति के अगुवा नेता बन गए.

क्यूबा की क्रांति के दौरान गेवारा की दिलेरी ने बाकी विद्रोहियों के ज़ेहन पर गहरी छाप छोड़ी थी; डॉक्टर की हैसियत से और विद्रोही की हैसियत से भी. इसी संघर्ष ने उन्हें एर्नेस्तो गेवारा से चे गेवारा बना दिया. स्पेनिश में चे का मतलब होता है- दोस्त. चे गेवारा की जीवनी लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार जॉन ली एंडरसन के मुताबिक़ ‘गेवारा की ख़ुद को मिटाकर क्रांति को जिंदा रखने की ज़िद ने विद्रोहियों के बीच उन्हें सबसे ऊंचा मुक़ाम दिलाया था. पंद्रह-सोलह साल के विद्रोहियों के लिए तो चे ‘सबकुछ’ हो गए थे – महान नायक, क्रान्तिकारी और किंवदंती.’

दूसरी तरफ सीआईए क्यूबा की बातिस्ता सरकार के सैनिकों को कास्त्रो के विद्रोह के ख़िलाफ़ हथियार और प्रशिक्षण दे रही थी. इसकी वजह यह थी कि अमेरिकियों का बेहिसाब पैसा क्यूबा के तेल और अन्य व्यवसायों में लगा हुआ था. उनके लिए क्यूबा ड्रग्स, वेश्यावृति और जुए का सबसे मुख्य स्थान भी था. इसके बावजूद कास्त्रो के विद्रोही जीत रहे थे. इस जीत के पीछे स्थानीय लोगों का समर्थन एक वजह थी और इस समर्थन के पीछे चे की प्रेरणा की भी अहम भूमिका थी.

धीरे-धीरे यह विद्रोह क्यूबा में प्रांत दर प्रांत फैलता जा रहा था. जनवरी 1959 में मुश्किल से 500 विद्रोहियों ने बतिस्ता सरकार का तख्तापलट कर दिया. फ़िदेल कास्त्रो ने सत्ता में आते ही चुनावों का वादा किया, जो कभी पूरा नहीं हुआ. चे के विचारों से प्रभावित होकर फिदेल ने क्यूबा में मार्क्सवादी व्यवस्था को लागू किया था. क्यूबा क्रांति के संस्मरणों पर भी चे गेवारा ने क़िताब लिखी है.

फ़िदेल की सरकार में गेवारा को उद्योग मंत्रालय मिला और वे ‘बैंक ऑफ़ क्यूबा’ के अध्यक्ष बनाये गए. चे की ‘नई दुनिया’ अब आकार लेने लगी थी. बतौर मंत्री उन्होंने कभी भी सत्ता को नहीं जिया. एंडरसन बताते हैं कि उनका परिवार उस समय पर भी बसों से सफ़र किया करता था और वे सप्ताह में एक दिन खुद श्रमदान भी करते. सत्याग्रह में ही 12 जून को प्रकाशित लेख ‘मार्क्स ख़ुद कितने मार्क्सवादी थे’ पढ़कर और चे गेवारा को जानकर लगता है कि शायद चे गेवारा ही अकेले सच्चे मार्क्सवादी रहे हैं.

1959 में क्यूबा के उद्योग मंत्री के रूप में वे भारत भी आये थे. कहा जाता है कि उन्होंने नेहरू से क्यूबा की चीनी ख़रीदकर अपरोक्ष रूप से समाजवाद को फ़ैलाने का अनुरोध किया था.

क्यूबा क्रांति के बाद चे ने पूरे लैटिन अमेरिका के राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य को बदलने का संकल्प लिया. इसका मतलब था हर देश में विद्रोह फैलाना. और जाहिर है कि इसके लिए खूंनी क्रांति को ही जरिया बनाया जाना था. चे और कास्त्रो ने कई राजनैतिक विद्रोहियों का क़त्ल किया था. चे पर इल्ज़ाम लगा कि उन्होंने कई बेगुनाह भी मारे. हालांकि एंडरसन बेगुनाहों की हत्या की बात नकारते हैं.

चे क्यूबा को रूस के नज़दीक ले गए. सोवियत रूस के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव के बेटे सर्गेई एक इंटरव्यू में बताते हैं कि ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त होता है’ वाले फ़लसफ़े पर उनके पिता ने क्यूबा को सहयोग देने का फ़ैसला किया था. जानकारों के मुताबिक ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के दौरान चे चाहते थे कि रूस अमेरिका पर परमाणु बम गिराए पर लेकिन बाद में रूस के अमेरिका से हाथ मिलाने पर उन्हें धक्का लगा था.

अब चे गेवारा चीन की तरफ झुकने लगे थे. इधर फिदेल कास्त्रो रूस के साथ ही रहना चाहते थे. लिहाज़ा, दोनों में वैचारिक मतभेद उभरने लगे. इसको देखते हुए चे ने क्यूबा छोड़ कर कांगो में क्रांति लाने का मन बनाया जो नाकाम रही. कांगो में रहने के दौरान ही उन्होंने फ़िदेल कास्त्रो को ख़त लिखकर सरकार में अपना मंत्री पद और इस देश की नागरिकता छोड़ने के फैसले से अवगत कराया.

हालांकि कांगो में विफल होने पर फ़िदेल ने उन्हें दोबारा क्यूबा लौटने का सुझाव दिया जिसे चे ने ठुकरा दिया. उसके बाद वे बोलीविया में सरकार का तख्ता पलट करने की कोशिश में नौ अक्टूबर, 1967 को बोलीवियाई सेना और सीआईए के हाथों मारे गए.

विश्वभर का युवा आज चे के चेहरे के तस्वीर वाली टी-शर्ट पहनना फैशन समझता है. हाथ में बड़ा सा सिगार, बिखरे हुए बाल, सिर पर टोपी, फौजी वर्दी सबको लुभाती है. जिस तरह से वे जिए और जैसे मरे उसने उन्हें पूरी दुनिया में ‘सत्ताविरोधी संघर्ष’ का प्रतीक बना दिया है.

कुछ अर्थों में चे गेवारा की यात्रा भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक महात्मा गांधी से भी मिलती है. दोनों एक मध्यवर्गीय परिवार से थे. दोनों ने ऊंची तालीम हासिल की और दोनों के सपनों की परिणति बराबरी और इंसाफ वाली एक व्यवस्था थी. चे गेवारा की तरह गांधी ने भी अपने अस्तित्व को एक यात्रा के जरिये खोजा था. लेकिन ऐसी यात्रा के बीच जहां चे गेवारा पिस्तौल उठा लेते हैं, वहीं चौरीचौरा में हिंसा के बाद गांधी असहयोग आंदोलन को बंद करते वक़्त दलील देते हैं कि ‘हिंसा से प्राप्त हुई आजादी का कोई मोल नहीं है.’ गांधी साधन और साध्य की एकता में यकीन करते थे. उनका विश्वास हिंसा के बजाय प्रेम से हृदय परिवर्तन में था. शायद इसीलिए बहुत से लोग मानते हैं कि भारतीयों में ही नहीं पूरे विश्व की बड़ी आबादी के के डीएनए में ‘चेवाद’ से ज़्यादा ‘गांधीवाद’ है. और शायद रहेगा भी.

याद कीजिये रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ का वह दृश्य जिसमें गांधी दक्षिण अफ्रीका में ‘परमिट’ को जलाते हैं. गांधी अपने परमिट को आग के हवाले करते हैं और अंग्रेज़ सिपाही उनके हाथ पर लाठी मारकर उन्हें ख़बरदार कर देता है. अब जब तय है कि दोबारा ऐसा करने पर लाठी पड़ेगी, गांधी एक और परमिट उठाते हैं और जलती हुई आग में डाल देते हैं. उन्हें दोबारा लाठी पड़ती है. कुल मिलाकर गांधी समाज में व्याप्त अंतर को खत्म करने का बीड़ा उठाते हैं पर वे हथियार नहीं उठाते.

जहां चे गेवारा आज़ाद प्रेस जैसी किसी भी बात को मानने से इंकार कर देते हैं, गांधी ‘यंग इंडिया’, या ‘हरिजन’ जैसे अखबार निकालकर समाज तक पहुंचते हैं. जहां चे पूरे विश्व में समान विचारधारा के लिए हिंसक हो उठते हैं, वहीं गांधी अध्यात्म के रास्ते भारत में विविध विचारधाराओं को समेटने का प्रयास करते नज़र आते हैं. एक तरह से मार्क्सवाद समाज की विचारधारा को पलटने की कोशिश करता है. वहीं गांधीवाद समाज के अन्दर पनप रहीं विचारधाराओं को अध्यात्म से साधने की कोशिश है. और गांधी की राह चले नेल्सन मंडेला से लेकर मार्टिन लूथर किंग के संघर्षों का हासिल बताता है कि यह रास्ता मुश्किल सही, पर कारगर है.

जों ली एंडरसन चे और गांधी की लोकप्रियता के अंतर को भौतिक स्तर पर समझाते हैं. उनके मुताबिक़ चे पूरे ऊंचे कद के ख़ूबसूरत इंसान थे वहीं गांधी छोटे कद के थे और चश्मा लगाते थे. कहा जा सकता है कि चे की क्रांति को समझने के लिए सिर्फ़ पिस्तौल थाम लीजिए वही काफी है. लेकिन गांधी की विचारधारा समझने के लिए अध्यात्म थामना होगा. इसलिए अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था- ‘आने वाली पीढ़ियां ताज्जुब करेंगी कि हाड़-मांस का एक ऐसा इंसान इस धरती पर कभी चला था.’

साभार-https://satyagrah.scroll.in/ से

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