Thursday, November 28, 2024
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जम्मू कश्मीर को मुस्लिम आबादी बनाने की सबसे पहली साजिश किसने रची

जम्मू कश्मीर राज्य की समस्या क्या है। आतंकवाद है, पाकिस्तान है, स्थानीय लोगों की महत्वाकांक्षा है या देश के बाकी हिस्सों के लोगों की जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ संवाद हीनता है। जम्मू कश्मीर की संस्कृति, परंपरा, जम्मू कश्मीर का इतिहास, भूगोल और वहाँ की राजनीति से लेकर जम्मू कश्मीर से जुड़े कई मुद्दों पर मुंबई में जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र द्वारा दो दिवसीय चर्चा सत्र आयोजन कर एक सार्थक संवाद का आयोजन किया गया। इस संवाद में जम्मू कश्मीर से जुड़े विभिन्न विषयों पर उन क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने सारगर्भित, सार्थक और राजनीति से परे सामाजिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं के माध्यम से अपने शोध, अध्ययन आदि का निष्कर्ष प्रस्तुत किया।

मुंबई के केशव सृष्टि में स्थित रामभाऊ माळगी केंद्र में आयोजित इस दो दिवसीय सत्र जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष श्री जवाहरलाल कौल ने कहा, जम्मू कश्मीर की सबसे बड़ी समस्या आतंरवाद नहीं, बल्कि जम्मू कश्मीर के वो विशेषज्ञ हैं जो वहाँ की हर समस्या पर अपनी राय देने लगते हैं।

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उन्होंने बताया कि कश्मीरी मुसलमान आज भी अपने आपको महर्षि वाल्मिकी का वंशज मानते हैं। उनके घरों में कई पीढ़ियों तक महर्षि वाल्मिकी की तस्वीरें लगी रही। वे शाकाहार का पालन करते थे और अपने पूर्वजों का श्राध्द भी करते थे। श्राध्द भी वे श्राध्द के महीने में ही करते थे। कश्मीरी बकरवाल मुस्लिमों में अपने पूर्वजों के तर्पण और श्राध्द की परंपरा रही।

डॉ. कौल ने बताया कि कश्मीर में आतंकवाद आखिर कैसे फैला। इसकी मुख्य वजह थी केंद्र यौर राज्य सरकार दोनों ने आतंकवादियों को सब अधिकार दे रखे थे। लोगों को रसोई गैस, राशन कार्ड, सरकारी अस्पताल में इलाज उन बिचौलियों की मदद से मिलता था जो आतंकवादियों के गुर्गे थे या उनके खबरी थे।

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हुरियत के पास मात्र 20-30 लोग हैं। लेकिन उनमें से भी मात्र दो-तीन लोग नेतागिरी करते हैं, जिनको भारतीय मीडिया और टीवी चैनलों ने हीरो बना रखा है और कश्मीर के हर मामले में उनकी राय पूछकर उनको नेता बनाते रहे हैं। इनका एक मौलवी है उमर फारुख जिसके पास 50 मस्जिदों की जिम्मेदारी है, लेकिन कश्मीर घाटी में इनकी कोई नहीं सुनता।

डॉ. कौल ने कहा हम तलवार से संस्कित को नहीं बचा सकते। कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़े तीस साल हो गए अब इनकी एक नई पीढ़ी तैयार हुई है जो कभी कश्मीर गई ही नहीं।

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इसके लिए सबसे पहले हमें उन लोगो को चिन्हित करना होगा जिनका धर्म परिवर्तन किया गया है। वहाँ मुस्लिम लोग कौल सरनेम लगाते हैं तो हिंदू लोग सुल्तान सरनेम लगाते हैं। उस समय घाँव के मुखिया का बलात धर्म परिवर्तन करवाकर बाकी लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए डराया जाता था। हिंदुओँ में जो लोग ऊँची जाति के थे उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोड़ी।

उन्होंने कहा कि आज भी कश्मीर घाटी के लोग देश के बाकी हिस्सों के लोगों से अपने मन की बात करना चाहते हैं, लेकिन आतंकवादी और अलगाववादी उनको भड़काते रहते हैं। उन्होंने बताया कि एक बार बीबीसी वाले कश्मीर के लोगों के पर डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहते थे। मैने उनको सलाह दी कि वो हाई वे पर रहने वाले मुसलमानों की बजाय दूर गाँवों में पहाड़ों में रहने वाले मुसलमानों से बात करें, क्योंकि वो लोग भारत के बारे में ईमानदारी से बात करते हैं, वो लोग भारत को चाहते हैं और खुद आतंकवादियों से परेशान हैं। लेकिन उनके गाँव में भी आतंकवादियों के एजेंट, मुखबिर और दलाल होते हैं, जब भी कोई उन लोगों से बात करने जाता है तो वो उसके साथ खड़े हो जाते हैं। इन दलालों व मुखबिरों के सामने वह व्यक्ति अपने मन की बात नहीं कर पाता है।

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उन्होंने बताया कि जब सर मोहम्मद इकबाल लंदन गए तो उनकी मानसिकता बदल गई। उनका सोचना था कि भाषण दिया कि मुस्लिम बहुल राज्यों को एक किया जाए ताकि अफगानिस्तान तक मुस्लिम बहुल कोरिडोर बने। इसके लिए उन्होंने 1926 में जिन्ना को संदेश दिया। मुस्लिम लीग में ये कश्मीर 1926 में ब्रिटिश राज्य का हिस्सा नहीं था। कश्मीर को तब पंजाब का हिस्सा बनाने की साजिश की गई।

उसी दौर में पंजाब के कादियान में मिर्जा गुलाम मोहम्मद ने अहमदिया पथ शुरु किया। उसने दावा किया कि मोहम्मद साहब के बाद वही पैगंबर है। कुछ मुस्लिम उसके समर्थन में आ गए। लेकिन सुन्नी मुसलमानों ने इसकी खिलाफत की। गुलाम मोहम्मद के बाद बशीर उद्दीन महमूद जिन्ना से मिल गया। जिन्ना और बशीर उद्दीन ने ये साजिश रची कि कश्मीरी मुसलमानों को अहमदिया मुसलमान बनाया जाए। इसके लिए दोनों ने मिलकर जेके कमेटी बनाई। लाहौर से पंजाबी मुसलमानों ने इसके लिए आंदोलन भी शुरु कर दिया। बशीरउद्दीन ने कुछ लोगों को कश्मीर भेजा। उन्होंने कश्मीरी मुसलमानों से कहा कि कश्मीरी मुसलमान तो मुसलमान है ही नहीं। ये तो दरगाहों और कब्रों पर हिंदुओं के साथ जाते हैं। खीर भवानी मंदिर पर उपवास करते हैं। कब्रों पर दीपक जलाते हैं।

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इसके बाद जिन्ना ने वहाँ सांस्कृतिक प्रदूषण के लिए शेख अब्दुल्ला को तैयार किया। 1931 में वहाँ दंगा करवाकर हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाया गया।

जम्मू कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत की चर्चा करते हुए जम्मू कश्मीर अध्ययन कैंद्र के अध्यक्ष श्री जवाहरलाल कौल ने कहा कि सकी कहानी किसी महाकाव्य जैसी है। इसके अतीत में झाँके तो हम पाते हैं कि 125 लंबी किलोमीटर घाटी किसी जमाने में एक झील थी। इसे सतीसर यानी पार्वती का सर कहा जाता था। इसके किनारे घाटियों में हमारे पूर्वज रहा करते थे। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने अपने शोध में पाया है कि 300 ईसा वर्ष पूर्व पहाड़ियों पर टापुओं में लोग रहा करते थे। तब यहाँ इतनी ठंड पड़ती थी कि मछली तक नहीं पकड़ी जा सकती थी। दूसरी जगहों से आकर लोग यहाँ लूटपाट करते थे। तिब्बत और चीन की पहाड़ियों से भी हमलावर यहाँ आते थे।

इस जिंदगी से तंग आकर यहाँ के लोग कश्यप ऋषि के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि उनका जीवन बचाएँ। इस पर कश्यप ऋषि ने इन्हें बारामुला जो पहले वराहबुल था और प्राचीन विताता नदी के किनारे है वहाँ बसने की सलाह दी। झेलम नदी का झेलम नाम पंजाब में पड़ा। प्राचीन लेखकों ने इसे विताता ही लिखा है। अभी जो झीलें हैं वे उसी प्राचीन झील के अवशेष हैं।

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फिर यहाँ एक सभ्यता व संस्कृति का जन्म हुआ। नाग यहाँ की मूल जाति थी। कश्मीर में पानी के स्त्रोत को नाग कहते हैं। इसीलिए यहाँ अनंतनाग नामक स्थान है जो पानी का स्त्रोत है।

कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि यहाँ के राजा कश्मीर के नहीं थे, वो बाहर आए थे। अभिनव गुप्त बाहर के थे। कश्मीर उस समय विविध विचारों की प्रयोगशाला थी। कश्मीर की ये विशेषता थी कि यहाँ वैचारिक भिन्नता वाले धर्म, दर्शन और संस्कृति के लोग मिलकर रहते ही नहीं थे बल्कि एक दूसरे की संस्कृति, धर्म, दर्शन और विचारों व परंपराओं का सम्मान करते थे।

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श्रीनगर अशोक ने बसाया था, बौध्द होने के बावजूद उसके काल में यहाँ वैष्णव, शैव मंदिर और यहाँ आने वाले यात्रियों के लिए अतिथिगृह बनाए गए।

कश्मीर का राजा ललितादित्य जो उत्तर भारत से दक्षिण तक जीत चुका था वैष्णव था। उसने कश्मीर में बुध्द प्रतिमाएँ बनवाई। बौध्द विहार बनवाए। कश्मीर की यही विशेषता थी कि वहाँ का राजा सबकी आस्थाओं का सम्मान करता था। शंकराचार्य जब कश्मीर गए तो राजा ने उनका स्वागत किया, उनको सम्मान दिया।

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कश्मीर तब श्रीनगर से अफगानिस्तान और गिलगिट बाल्टिस्तान से लेकर चिनाब घाटी तक फैला था। कश्मीर उस समय विद्वानों का ऐसा केंद्र था जहाँ विभिन्न धर्मों के विद्वान शास्त्रार्थ करते थे। कश्मीर के राजा ललितादित्य ने केरल में 64 मंदिर बनवाये। इनसे जो गाँव जुड़े थे वहाँ उसने कश्मीर ब्राह्मणों को बसाया। केरल के नंबूदिरी कश्मीरी ब्राह्मण हैं। आज भी जब नंबूदिरी ब्राह्मणों का यज्ञोपवित होता है तो वे यज्ञोपवित के लिए छाई कदम शारदादेश (कश्मीर) की ओर चलते हैं।

कोई भी विद्वान जब किसी ग्रंथ की रचना के लिए कश्मीर जाता था तो वहाँ के राजा उसको आश्रय स्थल बनाकर देते थे और उनके भोजन आदि की व्यवस्था करते थे।

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कन्नौज के राजा यशोवर्धन जब कश्मीर के राजा ललितादित्य से हार गए तो ललितादित्य ने यशोवर्मन से अभिनव गुप्त को अपने साथ ले गए और अपने दरबार में रखा। अभिनव गुप्त शैव थे जबकि ललितादित्य वैष्णव थे। ललितादित्य ने शैव विद्वान अभिनव गुप्त को कश्मीर लाकर उन्हें आश्रम बनाकर दिया और कई गाँव जागीर में दिए ताकि वे अपना खर्च चला सकें।

अब सवाल ये उठता है कि एक बौध्द राजा ने एक शैव विद्वान को अपने यहाँ आश्रय क्यों दिया। इसका कारण था कि उस समय तंत्र साधना की वजह से बौध्द धर्म में कुछ विकृतियाँ आ गई थी। और राजा लिलतादित्य शैव धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे, इसीलिए वे आचार्य अभिनव गुप्त को अपने राज्य में लेकर आए ताकि वो शैव धर्म की अच्छाईयों को पुनर्जीवित कर सके।

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अभिनव गुप्त ने अपने शिष्यों के साथ मिलकर ध्वनि शास्त्र पर एक वृहद ग्रंथ लिखा था, जिस पर आज दुनिया के 80 देशों में शोध हो रहा है और इसे पढ़ाया जा रहा है।

मुसलमानों के आक्रमण से पहले कश्मीर के शासक आसपास के शासकों से लड़ने लगे थे इस कारण यहाँ की दार्शनिक, वैचारिक और सांस्कृतिक परंपराएँ नष्ट हो गई। कल्हण मंत्री का बेटा था और उसने ये सब निकटता से देखा था इसलिए उसने राजतरंगिणी में इनका विस्तार से उल्लेख किया।

श्री कौल ने कहा कि कश्मीर में इस्लामीकरण धोखे से हुआ, तलवार से नहीं। ईरान में तैमूर लंग मंगोल शासक था। उसने पूर्वी रुस पश्चिम एशिया को लूटा था। वहाँ से सईद अपने आपको असली इस्लामी मानते थे। उसने हरदान पर हमला किया और 700 लोगों को इस्लाम में शामिल किया। कश्मीर में कई पीढ़ियों के मुस्लिम शासकों के बावजूद 75 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की थी।

उन्होंने बताया कि जम्मू की चिनाब घाटी को काश्यवात कहते थे। वहाँ एक कन्वर्ट मुस्लिम परिवार का लड़का नंद (नूंद) कश्मीर आया था। एक कवयित्री लल्ली (जिसे मस्तानी या लल्लेश्वरी भी कहते थे) थी जो बहुत विद्वान थी। उससे प्रभावित होकर नूंद संत हो गया। उसने अपनी कविता का नाम शुक श्लोक रखा। उसने लल्ली को गुरू माना। नूंद बाद में ऋषि हो गए और उन्होंने लल्ली की मौत पर कहा, हे परमात्मा मुझ पर वैसी ही कृपा कर जैसी लल्ली पर की । नूंद नवाज़ भी पढ़ता था और ऋषियों के शब्दों का प्रयोग करता था। वहाँ मुसलमानों के सरनेम भी ऋषि हैं। 1947 तक ये संस्कृति वहाँ रही।

बाद में अचानक लोग अलगाववादी हो गए। तब पाकिस्तान बनने की बात चली थी। ये माना जाने लगा कि मुसलमान यहाँ बहुमत में हैं और वे हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते। फिर ये बात आई कि मुस्लिम बहुल सीमा अलग हो।

डॉ. कौल ने एक रोचक किस्सा सुनाते हुए कहा कि मेरे पास एक बार एक कश्मीरी पति-पत्नी आए, उन्होंने कहा कि उनकी बेटी के लिए उनको एक पढ़ा-लिखा वर चाहिए, वे अपनी बेटी की शादी कश्मीर के किसी आतंकवादी या मुख़बिर से हरगिज नहीं करेंगे।

कश्मीर के लोगों को इस बात का अफसोस है कि वहाँ की सरकार कश्मीर भाषा को छोड़कर उर्दू को बढ़ावा दे रही है। उनको डर है कि भाषा के खत्म होते ही उनकी कश्मीररियत और उनकी संस्कृति खत्म हो जाएगी। कश्मीर घाटी में पर्यावरण संरक्षण की भी गंभीर समस्या है। वहाँ तामपान तेजी से बढ़ता जा रहा है इस वजह से कई पक्षी और पौधे लुप्त हो रहे हैं।

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