Sunday, November 24, 2024
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भाषाई समरूपता से अखण्डित राष्ट्र की परिकल्पना

माँ, माटी और मातृभाषा की अनिवार्यता और यथोचित सम्मान की चाह होना हर भारतवंशी का कर्तव्य भी है और नैतिक जिम्मेदारी भी। राष्ट्र केवल लोग नहीं बल्कि वहाँ का समाज, संस्कृति, लोगों के अंदर की भावनाएं, वहाँ की भाषा, वहाँ की जिम्मेदार व्यवस्था मिल कर बनाते है। और राष्ट्र के सम्पूर्ण तत्व की व्याख्या उस राष्ट्र का उपलब्ध ज्ञान भंडार ही कर सकता है, वहाँ की शिक्षा व्यवस्था से उसकी प्रासंगिकता प्रचारित होती है। उस राष्ट्र की आंतरिक अखण्डता और उसे एक सूत्र में बंधे रहने की आवश्यकता का एकमात्र समाधान भाषाई समरूपता है, यानी ‘एक देश-एक जनभाषा’ की अनिवार्यता होने से सम्पूर्ण राष्ट्र में सामान्य लोक व्यवहार का सहज और सरल हो जाना निहित है।ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि विभिन्न भाषा-भाषियों के मध्य आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिए किसी एक बिंदु का एक जैसा होना जरूरी है। किंतु जहाँ बात संवाद की आती है वहाँ संवाद का प्रथम सूत्र ही भाषा का एक होना है।

वर्तमान में हिंदुस्तान में लगभग 500 से अधिक बोलियाँ व 22 भाषाएँ उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में जब तमिलनाडु से व्यवहार करना हो तो व्यक्ति को तमिल सीखना होगी और जब पंजाबी से व्यवहार करना हो तो पंजाबी। ऐसे में सामान्य बोलचाल की भाषा एक जैसी नहीं होने से संवाद की स्थापना असंभव है, और बिना संवाद के व्यापार, विनिमय, रिश्तेदारी आदि सभी ताक में रह जाते है। अन्य प्रान्त के लोगों में संवाद की सफलता के लिए एक मध्यस्थ भाषा का होना अत्यंत आवश्यक है।

इस कमी को अंग्रेजी भी पूरा कर सकती है किंतु अंग्रेजी स्वभाषा नहीं है, और भारत चूँकि ग्राम प्रधान राष्ट्र होने से आज भी अंचल में अंग्रेजी प्रासंगिक और सहज नहीं है। इसीलिए हिंदी भाषा ही जनभाषा के रूप में एकमात्र श्रेष्ठ विकल्प उपलब्ध है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा है कि-
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।’
निजभाषा का महत्व सदा से ही अपनेपन के साथ संस्कार सींचन हेतु आवश्यक माना गया है। आरंभिक दौर में प्राकृत, पाली से सजा राष्ट्र का तानाबाना देवभाषा संस्कृत के प्रचारित होने के बाद सज नहीं पाया, संस्कृत भी आज के दौर में जनभाषा नहीं है क्योंकि उसे बोलने-समझने वाले लोग अब मुट्ठीभर शेष है।

प्राकृत-पाली के साथ संस्कृत निष्ठ हिन्दी का जन्म हुआ और यह हिन्दी ने जनता के बीच क्षेत्रीय भाषाओं से अधिक स्थान प्राप्त किया।

क्षेत्रीय भाषाओं का अपना एक सीमित दायरा है इसमें कोई संशय नहीं है, और आज हिंदुस्तान के 57 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी ही है। शेष 43 प्रतिशत लोग भी हिंदी से अपरिचित नहीं है, वे जानते-समझते है किंतु उनकी स्थानीय भाषाओं में वे ज्यादा दक्ष है, ज्यादा प्रवीण है। इसीलिए जनभाषा के तौर पर हिन्दी की अस्वीकार्यता नहीं हो सकती, रही बात हिन्दी के विरोध की तो यह केवल भ्रम से उत्पन्न या कहे राजनैतिक प्रेरित विरोध के स्वर है। क्योंकि हिन्दी के प्रचारकों ने जिस तरह हिन्दी को एक संस्कृति ही बना कर प्रस्तुत किया यह बहुत गलत है।

हिन्दी एक भाषा है, न कि अकेली एक संस्कृति या धर्म। हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान की सोच से ही हिन्दी भाषा का हश्र बिगड़ा हुआ है। भाषा महज अभिव्यक्ति का माध्यम और जनसंवाद का केंद्र है। यह कदापि सत्य नहीं है कि यदि हिंदी भाषा होगी तो हिन्दू राष्ट्र बनेगा। आज चलन में अंग्रेजी भाषा का प्रभाव ज्यादा है ,तो क्या हम यह मान ले कि देश फिर इंग्लिशतान या ईसाईयत की तरफ बढ़ गया? या देश पुनः गुलाम हो चुका?

भारत एक गणतांत्रिक राष्ट्र है, यहाँ प्रश्न अपनी जनभाषा के सम्मान का है न कि किसी धर्म के आधिपत्य का। भाषा किसी धर्म या पंथ की प्रतिलिपि नहीं होती, भाषा तो संवाद और संचार का माध्यम है। यहाँ बात स्वभाषा की स्थापना की है, न कि धर्म के साथ जोड़ कर भाषा की हत्या की।

हाल बुरा तो इसी सोच के चलते उर्दू का भी हुआ है।
उर्दू के उम्दा फनकार राहत इंदौरी जी का शेर है-
क़त्ल उर्दू का भी होता है और इस निस्बत से,
लोग उर्दू को मुसलमान समझ लेते हैं

जब हिन्दी को हिन्दू और उर्दू को मुसलमान माना जाता है तो इन्ही खोखले आधारों से भाषा के कारण युद्ध और विरोध का जन्म होता है। इसी पर तथाकथित लोगों को राजनीति करने का मौका मिल जाता है, इसे वे एक संस्कृति या धर्म को थोपना बताकर एक जनभाषा की हत्या कर देते है। भाषा मनोवैज्ञानिक प्रभाव का कारक हो सकती है पर वो कभी भी किसी धर्म की ठेकेदार नहीं होती।

विखण्डनवादी सोच के चलते हिन्दुस्तान में आज सांस्कृतिक अखण्डता खतरे में है। क्योंकि हिन्दी कही थोपी नहीं जा रही, जो लोग कहते है कि आप हमारी दक्षिण भारतीय भाषा सीखिए, तो वे भी ये बताएं कि कितने प्रतिशत लोगों तक संवाद उससे सहज होगा, मात्र 8 से 10 प्रतिशत लोगों से और हिन्दी के कारण कम से कम 57प्रतिशत और अधिकतम सम्पूर्ण हिंदुस्तान से।
क्योंकि वर्तमान समय में यह कटु सत्य है कि अहिन्दी भाषी भारतीय भी हिन्दी तो समझते-बोलते है। बस चूँकि यह राजनीति प्रेरित एजेंडा बना इसीलिए हिंदी के बहाने हिंदुस्तान का विरोध शुरू हुआ।

वैश्विक लोकभाषा सर्वेक्षण विभाग की रपट कहती है कि ‘जो बच्चें एक से अधिक भाषाओं में दक्ष होते है वे अन्य बच्चों की तुलना में 67प्रतिशत अधिक बुद्धिमान होते है। इसीलिए माँ-पिता को यह चाहिए कि बच्चों को मातृभाषा, राजभाषा हिंदी व अन्य विदेशी भाषा यानी अंग्रेजी, फ्रेंच, या चाइनीज भाषा सीखना चाहिए।

कश्मीर या अन्य जिन राज्यों की आय का मूल स्रोत पर्यटन है वे इस बात से भली-भाँति परिचित है कि उनकर राज्य में ज्यादातर पर्यटक हिंदी पट्टी से आते है, और यदि आपके यहाँ के स्थानीय दुकानदार, रहवासी लोग यदि हिन्दी नहीं समझेंगे, बोलेंगे तो पर्यटकों को कैसे आकर्षित कर पाएंगे, इससे तो उनका धंधा चौपट होगा, साथ ही पर्यटकों की संख्या में गिरावट आएगी और इससे राजस्व की हानि होगी यह तय है। एक भाषा के कारण यदि ऐसा भी होता है तो यह राज्य के लिए नुकसानदायक है। इसीतरह बात यदि संस्कारों की है तो भारत की सामाजिक व्यवस्था में संस्कारों का बीजारोपण दादा-दादी व नाना-नानी की कहानियों के माध्यम से होता है, और दादा-दादी व नाना-नानी प्रायः मातृभाषा में दक्ष होते है जिससे उन बच्चों को मिलने वाली संस्कार शाला अपनी मातृभाषा की प्रासंगिकता बनी हुई है। इसीलिए भारत की मेधा को बच्चों को हिंदी या मातृभाषा में दक्ष रखना ही होगा।

23 साल बाद राज्यसभा पहुंचे एमडीएमके नेता वायको ने भाषाई अलगाववाद की राजनीति को संसद से हवा दी है। वायको ने कहा कि, ‘आज हिंदी की वजह से (संसद में) बहस का स्तर गिर गया है। वे सिर्फ हिंदी में चिल्लाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिंदी में ही संसद को संबोधित करते हैं।’ उन्होंने पीएम मोदी पर कड़े प्रहार के लिए उनकी तुलना प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से की और कहा कि नेहरू संसद के हर सत्र में भाग लेते थे जबकि मोदी सदन में मौजूद होते हैं।

वायको ने आगे कहा, ‘वाजपेयी अंग्रेजी बोला करते थे। मोरारजी देसाई भी संसद में इंग्लिश बोलते थे। आप यह नहीं कह सकते कि वे हिंदी के मुरीद नहीं थे। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरिसिम्हा राव और मनमोहन सिंह भी सदन को अंग्रेजी में संबोधित करते थे।’ उन्होंने कहा कि सिर्फ मोदी ही बार-बार हिंदी के प्रति प्यार जताते रहते हैं। उनकी नजर में हिंदी बोलने के पीछे प्रधानमंत्री की भावना ‘हिंदी, हिंदू, हिंदू राष्ट्र’ की है। एमडीएमके महासचिव ने कहा कि जब तक संसद में संविधान की मान्यता प्राप्त सभी 28 भाषाओं में बातचीत शुरू नहीं हो जाती, तब तक सिर्फ अंग्रेजी में ही बातचीत होनी चाहिए।

संभवतः वायको इस बात को भूल गए कि हिन्दी भाषा भारत के ५७ प्रतिशत लोगों की मातृभाषा या कहें प्रथम भाषा है। जबकि अंग्रेजी महज ५ प्रतिशत लोग भी ठीक से नहीं बोल-सुन पाते है। स्पष्ट रूप से वायको या तो भारत के भूगोल से अनभिज्ञ यही या फिर उनकी भाषाई राजनीती का यह हिस्सा है। वैसे भी वायको जैसे लोगों के विशेष अंग्रेजी प्रेम से न तो संसद में कुछ फर्क पड़ना न ही राष्ट्र के लोगों में। क्योंकि वायको जिस राजनैतिक दल से सबद्धता रखते है उस दल का मुख्य ध्येय ही हिन्दी विरोध है। और हिंदुस्तान में हिन्दी का विरोध करने वाले लोग उन ५७ प्रतिशत लोगों के संख्याबल व स्वाभिमान को संभवतः न समझने की भूल कर रहे है, जो कतई स्वीकार नहीं होगी।

हिंदी न केवल एक भाषा है बल्कि संवाद का सर्वोच्च शिखर भी आज हिन्दुस्तान में यही है। हिन्दी के विरोध स्वरूप जन्मी राजनैतिक पार्टी के मुखिया करुणानिधि का एक बयान यह भी था कि मेरी हिन्दी मे अनुवादित पुस्तक की बिक्री ज्यादा हुई है, इससे यह स्पष्ठ है कि भाषा को राजनैतिक मुद्दा बनाकर विरोध तो कर रहे है, किन्तु दबे स्वर में ही सही पर हिन्दी का महत्व भी समझते है।
हिन्दी भाषा की सम्पूर्ण राष्ट्र में अनिवार्यता इसलिए आवश्यक नहीं है कि उससे हिन्दी प्रदेशों के मान या किसी पंथ, धर्म का गौरव बढ़ेगा, बल्कि इसलिए आवश्यकता है क्योंकि इसी से सम्पूर्ण राष्ट्र में एक सूत्रीय संवाद और संपर्क के साथ समन्वय स्थापित होगा, प्रगति के नए द्वार खुलेंगे, व्यापार का क्षेत्र विस्तार होगा, और यदि हमारा राष्ट्र आंतरिक तौर पर मजबूत होगा तो निश्चित मानिए वैश्विक रूप से भी हम मजबूत होकर आगे बढ़ेंगे।

क्योंकि सम्पूर्ण देश में जब भाषा की एक सूत्रीय स्थापना होगी तो देश का अंतिम वर्ग भी राष्ट्र की प्रगति के लिए भाषा और क्षेत्र बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से पूरे देश में काम करेगा, जहाँ दलित, वंचित और शोषित जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं पनपेगी, राष्ट्र को जिन राजनैतिक मुद्दों ने कमजोर कर रखा है वे मुद्दे शिक्षा के बढ़ते स्तर के कारण गौण हो जाएंगे। विकासशीलता की इबारत लिखना है वो सबसे पहले पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना होगा, देश के लोग ही देश को ताकत बनेंगे, यदि वे धर्म, जाति, समाज, क्षेत्र, भाषा या कानून के टुकड़ों में बंटे रहें तो कभी एक नहीं होंगी और बिखराव में तोड़ना आसान है, संगठित लोगों में विघटन सरल नहीं है। हिन्दी की अनिवार्यता से राष्ट्र की अखण्डता परिभाषित हो सकती है।आज यदि हिंदी के गौरव की पुनर्स्थापना करना है तो देश की भाषाई आधार पर एक रूपता से रंगाई करनी चाहिए। हमें सोच बदलनी होगी, तभी प्रगति का पथ प्रदर्शित होगा। अन्यथा ढाक के तीन पात।

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं स्तंभकार
संपर्क: ०७०६७४५५४५५
अणुडाक: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com
[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वयआदि का संचालन कर रहे हैं]

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